जनता को बहुत महंगी पड़ी मनमोहन सरकार !
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम
14.5 प्रतिशत बढ़ने और डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत 3.2 प्रतिशत गिरने के
बावजूद पिछले साल नवंबर के बाद से पेट्रोल के दाम नहीं बढ़े हैं। इस दौरान
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को देखते हुए तेल कंपनियों ने दाम नहीं
बढ़ाए। लेकिन अब रुपए के मूल्य में डॉलर के मुकाबले गिरावट और कच्चे तेल के
दामों की हालिया वृद्धि को वजह बताया जा रहा है। यानी कहने को भले ही तेल
के दाम सरकारी नियंत्रण से मुक्त हों, पर इनके बढ़ने के पीछे आज भी सरकार
का ही हाथ होता है। महंगाई की मार से बेहाल जनता पर यह ऐसा चाबुक है, जिसने
उसकी कमर तोड़ कर रख दी है। पेट्रोल के दाम बढ़ाने का यह नया मनोवैज्ञानिक
तरीका सरकार के कारिंदों ने खोज निकाला है कि पहले से कीमतें बढ़ाने की
चर्चा संचार माध्यमों के जरिए छेड़ दी जाए, ताकि यह बढ़ोतरी कोई नई और चकित
करने वाली घटना न रह जाए। फिर मौका ताक कर घाटा पूरा करने और रुपए की
गिरती साख पर पैबंद लगाने के नाम पर तेल के खेल को आसानी से खेला जा सके।
दरअसल, सरकारें जानबूझ कर इस बात की
उपेक्षा करती आई हैं कि बढ़ते औद्योगीकरण, शहरीकरण में निजी आवागमन का
प्रमुख स्रोत पेट्रोल है। हर परिवार का पेट्रोल का निश्चित मासिक खर्च होता
है। इसे दस फीसद बढ़ा देने से घरेलू बजट गड़बड़ा गया है। फिर भी
अंतर्राष्ट्रीय दामों की दुहाई देकर हर बार इसकी कीमतें बढ़ाई जाती रही
हैं। कंपनियों ने कथित घाटे को पाटने की खातिर जनता की जेब को सबसे आसान
निशाना मान लिया गया है जबकि इसके अन्य वैकल्पिक उपायों पर कभी विचार तक
नहीं किया गया। मसलन, अब तक एक लीटर पेट्रोल पर जनता से अट्ठाईस से उनतीस
रुपए टैक्स वसूला जा रहा है। इसमें कमी लाकर भी घाटे की भरपाई की जा सकती
है।
लेकिन बदकिस्मती से इस पर अमल तो दूर,
उलटे हर बार कीमतों में वृद्धि के समांतर कर की दर भी दबे पांव बढ़ाई जाती
रही है। महंगाई को लेकर निरुपाए हो चुकी यूपीए सरकार में मौजूद नामचीन
अर्थशास्त्रियों का ज्ञान जहां धूल चाटता नजर आ रहा है, वहीं जनता इस भीषण
गर्मी में महंगाई की तपन से झुलस रही है। वर्तमान सरकार से आवाम को हर
मुद्दे पर हताशा हाथ लगी है। कहना पड़ता है कि यह सरकार जनता को बहुत महंगी
पड़ी है।
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