संदर्भ :- जनप्रतिनिधि कानून की धारा8;(4) की निरस्तगी -
प्रमोद भार्गव
यह एक सुखद ऐतिहासिक फैसला है कि सजायाफता अब जनप्रतिनिधि नहीं रह पाएंगे। सांसदों-विधायकों की सदस्यता उन्हें किसी आपराधिक मामले में दोषी ठहराए जाने और दो साल या इससे अधिक की सजा सुनाते ही समाप्त हो जाएगी। सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था जन प्रतिनिधत्व कानून की धारा8;(4) को खारिज करके की है। यह एक ऐसी विरोधाभासी धारा थी, जो पक्षपात बरतते हुए दोषियों को दोहरे दृष्टिकोण से परिभाषित करती थी। यह संहिता एक ओर तो उस आम आदमी को ही चुनाव लड़ने से रोकती है, जिसे दो साल या इससे अधिक की सजा हुर्इ हो और दूसरी तरफ आपराधिक दोषी करार दिए गए नेताओं को पद पर बने रहने की छूट देती थी। इस भेद को खत्म करना, न्यायिक समानता के लिए जरुरी था, जिससे संवैधानिक मर्यादा का पालन हो। इस फैसले में यदि संसद कोर्इ हस्तक्षेप नहीं करती है तो यह राजनीति को अपराधीकरण से मुक्ति का सार्थक उपाय साबित हो सकता है। हालांकि यह उपाय न्यायालय की बजाए, विधायिका के माध्यम से होता तो यह जन- संदेश जाता कि नेतृत्व राजनीति को अपराध मुक्त करने की दृष्टि से गतिशील है। लेकिन लोक-कल्याण का आडंबर रचने वाले बहुदलीय नेतृत्व ने यह अवसर गंवा दिया।
हमारे यहां अनेक ऐसी कानूनी विसंगतियाँ हैं, जो संविधान सम्मत नहीं होने के कारण भेद की संहिता रचती हैं। इसी बाबत यह विडंबना भी दुर्भाग्यपूर्ण थी कि कारागार में बंद विचाराधीन आम आरोपी तो मतदान करने के अधिकार से वंचित रहता है, लेकिन किसी सांसद अथवा विधायक को सजा भी हो जाए तो भी उसकी सदस्यता बरकरार रहती थी। अलबत्ता ये सजायाफता जेल में रहते हुए भी चुनाव लड़ने के अधिकारी थे। इस बाबत दायर जनहित याचिका के सिलसिले में जब शीर्ष न्यायालय ने केंद्र सरकार से सलाह ली थी। यह स्तब्ध करने वाली बात थी कि केंद्र ने प्रस्तुत हलफनामें में कहा था कि वह मौजूदा राजनीतिक परिदृष्य में कोर्इ सुधार अथवा बदलाव नहीं चाहती है। जाहिर है, केंद्र ने साफ कर दिया था कि नेताओं का दागी अतीत वर्तमान और भविष्य में भी राजनीतिक नेतृत्व की अगुवार्इ करता रहेगा। मसलन सरकार जनप्रतिनिधत्व कानून के प्रारुप में कोर्इ परिवर्तन नहीं चाहती थी। जिससे दोषी सांसद-विधायकों की यथास्थिति बनी रहे।
दरअसल जनप्रतिनिधि कानून की जिस धारा8;(4) को न्यायालय ने विलोपित किया है, उसकी प्रतिच्छाया में अब तक प्राथमिकी में नामजद और सजायाफताओं को निर्वाचन में भागीदारी के सभी अधिकार प्राप्त थे। इसके अनुसार सजा सुनाए जाने के छह साल बाद राजनेता मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराकर चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन इसके विपरीत यदि दोषी व्यकित की अपील उपरी अदालत मंजूर कर लेती है और जब तक उसका फैसला नहीं आ जाता है, तब तक दोषी व्यकित को न तो मतदान से वंचित किया जा सकता है और न ही चुनाव लड़ने से ? तय है, अपीलों का यह सिलसिला उच्चतम न्यायालय तक चलता है और तारीखें बढ़वाने की सुविधा के क्रम में दशकों बीत जाते हैं, नतीजतन सदस्यता भी बरकरार रहती है और नया चुनाव लड़ने का अधिकार भी बना रहता है।
हालांकि जनप्रतिनिधि कानून के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा दोषी-करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि जब संविधान के अनुसार कोर्इ अपराधी मतदाता भी नहीं बन सकता तो वह जनप्रतिनिध बनने के नजरिए से निर्वाचन प्रकि्रया में भागीदारी कैसे कर सकता है ? संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत यह दोहरा मापदण्ड समानता के अधिकार का उल्लंघन था। समान न्यायिक व्यवहार की इस मांग को जनहित याचिका के जरिए लिली थामस और लोक प्रहरी नामक एनजीओ ने अदालत के समक्ष रखा था। याचिका में दर्ज इस विसंगति को शीर्ष न्यायालय ने जब अपने अभिलेख में प्रश्नांकित करते हुए केंद्र से जवाब तलब भी किया था। केंद्र ने शपथ-पत्र देकर तर्क गढ़ा था कि ‘कर्इ बार सरकार बनाने या गिराने में चंद वोट ही बेहद महत्वपूर्ण होते हैं, लिहाजा सजा मिलने पर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता खत्म कर दी जाती है तो सरकार की स्थिरता ही खतरे में पड़ सकती है। सरकार ने यह भी तर्क दिया कि ‘यह उन मतदाताओं के संवैधानिक अधिकार का हनन होगा, जिन्होंने उन्हें चुना है। जाहिर है, सरकार राजनीति में शुचिता लाने के बरक्ष अपराध को तरजीह दे रही थी। अन्यथा सरकार क्या यह नहीं जानती कि जो प्रतिनिधि जेल में कैद हैं, वह क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है ? क्या सरकार इस संवैधानिक व्यवस्था से अनभिज्ञ है कि किसी प्रतिनिधि की मृत्यु होने, इस्तीफा देने अथवा सदस्यता खत्म होने पर छह माह के भीतर नया जनप्रतिनिध चुनने की अनिवार्यता शामिल है ? इस स्थिति में न तो कोर्इ निर्वाचन क्षेत्र नेतृत्वविहीन रह जाता है और न ही किसी सरकार की स्थिरता खतरे में पड़ती है ? फिर क्या महज सरकार बनाए रखने के लिए अपराधियों का साथ लिया जाए ? ऐसी दोषपूर्ण प्रणाली के चलते ही राजनीति का मूलाधार वैचारिक अथवा संवैधानिक निष्ठा की बजाए, सत्ता के गणित में सिमट कर रह गया है।
यही वजह रही कि देश में बीते दो-ढार्इ दशकों के भीतर राजनीतिक अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ती रही है। पुरुष व महिला की हत्या, महिलाओं से दुष्कर्म और छेड़छाड़ करने वाले राजनीतिक अपराधी भी संसद और विधानसभाओं में बड़ी संख्या में हैं। मध्यप्रदेश के निष्कासित मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष राघवजी पर तो नौकर से अप्राकृतिक कृत्य करने का आरोप हाल ही में लगा है और वे जेल में हैं। जनप्रतिनिधियों द्वारा महिलाओं से किए अपराध अब कोर्इ कलिपत अवधारणा नहीं रही है, खुद इन जनप्रतिनिधियों ने अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि का खुलासा निर्वाचन प्रकि्रया के दौरान दिए शपथ-पत्रों में किया है। आरटीआर्इ के तहत यह जानकारी चुनाव सुधार की दिशा में काम कर रही संस्था ‘एसोसिएशन फार डेमोक्रटिक रिफार्म ने जुटार्इ है। इसके मुताबिक वर्तमान संसद और विधानसभाओं में 369 प्रतिनिधि ऐसे हैं, जिन पर महिलाओं को प्रताडि़त अथवा यौन – उत्पीडि़त करने के मामले पुलिस थानों में पंजीबद्ध हैं और कर्इ मामले अदालतों में विचाराधीन हैं। सेवानिवृत्त आर्इएएस अधिकारी और अब सामाजिक कार्यकर्ता ओमिका दुबे ने देश के समस्त 4835 सांसदों और विधायकों में से अपराधियों की सूची तैयार की है। इनकी संख्या 1448 है। मौजूदा संसद में ऐसे 161 सांसद हैं, जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें 44 कांग्रेस, 43 भाजपा, 9 सपा, 6 बसपा, 8 जदयू और 3 माकपा के हैं। 41 राज्यसभा सांसदों पर भी आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसी तरह कुल विधायकों में से 1,112 विधायक ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मामले लंबित हैं। यहां आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि 534 प्रतिनिधि ऐसे गंभीर मामलों में आरोपी हैं, जिन्हें पांच साल की कैद से लेकर फांसी तक की सजा सुनार्इ जा सकती है। यदि त्वरित न्यायालयों में ये मामले छह माह के भीतर अंतिम अंजाम तक पहुंचा दिए जाएं तो 2014 में संसद और विधानसभाओं की तसवीर कुछ और ही होगी ? क्योंकि धारा 8;(4) के निरस्त हो जाने के बाद जिन प्रतिनिधियों को दो साल या इससे अधिक की सजा होती है तो उनकी सदस्यता निलंबित कर दी जाएगी। फैसले के खिलाफ अपील के लिए तीन माह का समय भी नहीं मिलेगा। जाहिर है सदस्यता तब तक निलंबित रहेगी, जब तक सजायाफता को सर्वोच्च न्यायालय दोषमुक्त नहीं कर देती ? जनप्रतिनिधित्व कानून में इस संशोधन ने अपराधियों को संसद और विधानसभाओं से दूर रखने का रास्ता तो खोल दिया है, लेकिन अब आशंका यह उत्पन्न हो रही है कि अदालत द्वारा बौरार्इ सत्ता को सीधा करने का यह उपाय न्यायपालिका और विधायिका के बीच टकराव के हालात उत्पन्न न कर दे ? संसद एकमत से न्यायालय के इस आदेश को रदद कर सकती है। क्योंकि राजनीतिक दलों को केंद्रीय सूचना आयुक्त द्वारा आरटीआर्इ के दायरे में लाने संबंधी दिए आदेश के वक्त भी दलों ने गोलबंदी का रुख अपनाते हुए इस फैसले का विरोध किया था। और लोकपाल के हश्र के लिए भी सभी दल जिम्मेदार साबित हुए थे। क्योकि विधायिका में बैठी राजनीतिक अपराधियों की जमात ऐसे कानून को क्यों महत्व देने लगी, जो उसकी ही गर्दन नापने लग जाए ?
प्रमोद भार्गव
यह एक सुखद ऐतिहासिक फैसला है कि सजायाफता अब जनप्रतिनिधि नहीं रह पाएंगे। सांसदों-विधायकों की सदस्यता उन्हें किसी आपराधिक मामले में दोषी ठहराए जाने और दो साल या इससे अधिक की सजा सुनाते ही समाप्त हो जाएगी। सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था जन प्रतिनिधत्व कानून की धारा8;(4) को खारिज करके की है। यह एक ऐसी विरोधाभासी धारा थी, जो पक्षपात बरतते हुए दोषियों को दोहरे दृष्टिकोण से परिभाषित करती थी। यह संहिता एक ओर तो उस आम आदमी को ही चुनाव लड़ने से रोकती है, जिसे दो साल या इससे अधिक की सजा हुर्इ हो और दूसरी तरफ आपराधिक दोषी करार दिए गए नेताओं को पद पर बने रहने की छूट देती थी। इस भेद को खत्म करना, न्यायिक समानता के लिए जरुरी था, जिससे संवैधानिक मर्यादा का पालन हो। इस फैसले में यदि संसद कोर्इ हस्तक्षेप नहीं करती है तो यह राजनीति को अपराधीकरण से मुक्ति का सार्थक उपाय साबित हो सकता है। हालांकि यह उपाय न्यायालय की बजाए, विधायिका के माध्यम से होता तो यह जन- संदेश जाता कि नेतृत्व राजनीति को अपराध मुक्त करने की दृष्टि से गतिशील है। लेकिन लोक-कल्याण का आडंबर रचने वाले बहुदलीय नेतृत्व ने यह अवसर गंवा दिया।
हमारे यहां अनेक ऐसी कानूनी विसंगतियाँ हैं, जो संविधान सम्मत नहीं होने के कारण भेद की संहिता रचती हैं। इसी बाबत यह विडंबना भी दुर्भाग्यपूर्ण थी कि कारागार में बंद विचाराधीन आम आरोपी तो मतदान करने के अधिकार से वंचित रहता है, लेकिन किसी सांसद अथवा विधायक को सजा भी हो जाए तो भी उसकी सदस्यता बरकरार रहती थी। अलबत्ता ये सजायाफता जेल में रहते हुए भी चुनाव लड़ने के अधिकारी थे। इस बाबत दायर जनहित याचिका के सिलसिले में जब शीर्ष न्यायालय ने केंद्र सरकार से सलाह ली थी। यह स्तब्ध करने वाली बात थी कि केंद्र ने प्रस्तुत हलफनामें में कहा था कि वह मौजूदा राजनीतिक परिदृष्य में कोर्इ सुधार अथवा बदलाव नहीं चाहती है। जाहिर है, केंद्र ने साफ कर दिया था कि नेताओं का दागी अतीत वर्तमान और भविष्य में भी राजनीतिक नेतृत्व की अगुवार्इ करता रहेगा। मसलन सरकार जनप्रतिनिधत्व कानून के प्रारुप में कोर्इ परिवर्तन नहीं चाहती थी। जिससे दोषी सांसद-विधायकों की यथास्थिति बनी रहे।
दरअसल जनप्रतिनिधि कानून की जिस धारा8;(4) को न्यायालय ने विलोपित किया है, उसकी प्रतिच्छाया में अब तक प्राथमिकी में नामजद और सजायाफताओं को निर्वाचन में भागीदारी के सभी अधिकार प्राप्त थे। इसके अनुसार सजा सुनाए जाने के छह साल बाद राजनेता मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराकर चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन इसके विपरीत यदि दोषी व्यकित की अपील उपरी अदालत मंजूर कर लेती है और जब तक उसका फैसला नहीं आ जाता है, तब तक दोषी व्यकित को न तो मतदान से वंचित किया जा सकता है और न ही चुनाव लड़ने से ? तय है, अपीलों का यह सिलसिला उच्चतम न्यायालय तक चलता है और तारीखें बढ़वाने की सुविधा के क्रम में दशकों बीत जाते हैं, नतीजतन सदस्यता भी बरकरार रहती है और नया चुनाव लड़ने का अधिकार भी बना रहता है।
हालांकि जनप्रतिनिधि कानून के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा दोषी-करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि जब संविधान के अनुसार कोर्इ अपराधी मतदाता भी नहीं बन सकता तो वह जनप्रतिनिध बनने के नजरिए से निर्वाचन प्रकि्रया में भागीदारी कैसे कर सकता है ? संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत यह दोहरा मापदण्ड समानता के अधिकार का उल्लंघन था। समान न्यायिक व्यवहार की इस मांग को जनहित याचिका के जरिए लिली थामस और लोक प्रहरी नामक एनजीओ ने अदालत के समक्ष रखा था। याचिका में दर्ज इस विसंगति को शीर्ष न्यायालय ने जब अपने अभिलेख में प्रश्नांकित करते हुए केंद्र से जवाब तलब भी किया था। केंद्र ने शपथ-पत्र देकर तर्क गढ़ा था कि ‘कर्इ बार सरकार बनाने या गिराने में चंद वोट ही बेहद महत्वपूर्ण होते हैं, लिहाजा सजा मिलने पर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता खत्म कर दी जाती है तो सरकार की स्थिरता ही खतरे में पड़ सकती है। सरकार ने यह भी तर्क दिया कि ‘यह उन मतदाताओं के संवैधानिक अधिकार का हनन होगा, जिन्होंने उन्हें चुना है। जाहिर है, सरकार राजनीति में शुचिता लाने के बरक्ष अपराध को तरजीह दे रही थी। अन्यथा सरकार क्या यह नहीं जानती कि जो प्रतिनिधि जेल में कैद हैं, वह क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है ? क्या सरकार इस संवैधानिक व्यवस्था से अनभिज्ञ है कि किसी प्रतिनिधि की मृत्यु होने, इस्तीफा देने अथवा सदस्यता खत्म होने पर छह माह के भीतर नया जनप्रतिनिध चुनने की अनिवार्यता शामिल है ? इस स्थिति में न तो कोर्इ निर्वाचन क्षेत्र नेतृत्वविहीन रह जाता है और न ही किसी सरकार की स्थिरता खतरे में पड़ती है ? फिर क्या महज सरकार बनाए रखने के लिए अपराधियों का साथ लिया जाए ? ऐसी दोषपूर्ण प्रणाली के चलते ही राजनीति का मूलाधार वैचारिक अथवा संवैधानिक निष्ठा की बजाए, सत्ता के गणित में सिमट कर रह गया है।
यही वजह रही कि देश में बीते दो-ढार्इ दशकों के भीतर राजनीतिक अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ती रही है। पुरुष व महिला की हत्या, महिलाओं से दुष्कर्म और छेड़छाड़ करने वाले राजनीतिक अपराधी भी संसद और विधानसभाओं में बड़ी संख्या में हैं। मध्यप्रदेश के निष्कासित मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष राघवजी पर तो नौकर से अप्राकृतिक कृत्य करने का आरोप हाल ही में लगा है और वे जेल में हैं। जनप्रतिनिधियों द्वारा महिलाओं से किए अपराध अब कोर्इ कलिपत अवधारणा नहीं रही है, खुद इन जनप्रतिनिधियों ने अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि का खुलासा निर्वाचन प्रकि्रया के दौरान दिए शपथ-पत्रों में किया है। आरटीआर्इ के तहत यह जानकारी चुनाव सुधार की दिशा में काम कर रही संस्था ‘एसोसिएशन फार डेमोक्रटिक रिफार्म ने जुटार्इ है। इसके मुताबिक वर्तमान संसद और विधानसभाओं में 369 प्रतिनिधि ऐसे हैं, जिन पर महिलाओं को प्रताडि़त अथवा यौन – उत्पीडि़त करने के मामले पुलिस थानों में पंजीबद्ध हैं और कर्इ मामले अदालतों में विचाराधीन हैं। सेवानिवृत्त आर्इएएस अधिकारी और अब सामाजिक कार्यकर्ता ओमिका दुबे ने देश के समस्त 4835 सांसदों और विधायकों में से अपराधियों की सूची तैयार की है। इनकी संख्या 1448 है। मौजूदा संसद में ऐसे 161 सांसद हैं, जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें 44 कांग्रेस, 43 भाजपा, 9 सपा, 6 बसपा, 8 जदयू और 3 माकपा के हैं। 41 राज्यसभा सांसदों पर भी आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसी तरह कुल विधायकों में से 1,112 विधायक ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मामले लंबित हैं। यहां आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि 534 प्रतिनिधि ऐसे गंभीर मामलों में आरोपी हैं, जिन्हें पांच साल की कैद से लेकर फांसी तक की सजा सुनार्इ जा सकती है। यदि त्वरित न्यायालयों में ये मामले छह माह के भीतर अंतिम अंजाम तक पहुंचा दिए जाएं तो 2014 में संसद और विधानसभाओं की तसवीर कुछ और ही होगी ? क्योंकि धारा 8;(4) के निरस्त हो जाने के बाद जिन प्रतिनिधियों को दो साल या इससे अधिक की सजा होती है तो उनकी सदस्यता निलंबित कर दी जाएगी। फैसले के खिलाफ अपील के लिए तीन माह का समय भी नहीं मिलेगा। जाहिर है सदस्यता तब तक निलंबित रहेगी, जब तक सजायाफता को सर्वोच्च न्यायालय दोषमुक्त नहीं कर देती ? जनप्रतिनिधित्व कानून में इस संशोधन ने अपराधियों को संसद और विधानसभाओं से दूर रखने का रास्ता तो खोल दिया है, लेकिन अब आशंका यह उत्पन्न हो रही है कि अदालत द्वारा बौरार्इ सत्ता को सीधा करने का यह उपाय न्यायपालिका और विधायिका के बीच टकराव के हालात उत्पन्न न कर दे ? संसद एकमत से न्यायालय के इस आदेश को रदद कर सकती है। क्योंकि राजनीतिक दलों को केंद्रीय सूचना आयुक्त द्वारा आरटीआर्इ के दायरे में लाने संबंधी दिए आदेश के वक्त भी दलों ने गोलबंदी का रुख अपनाते हुए इस फैसले का विरोध किया था। और लोकपाल के हश्र के लिए भी सभी दल जिम्मेदार साबित हुए थे। क्योकि विधायिका में बैठी राजनीतिक अपराधियों की जमात ऐसे कानून को क्यों महत्व देने लगी, जो उसकी ही गर्दन नापने लग जाए ?
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