मौत का निवाला |
Friday, 19 July 2013 09:48 |
जनसत्ता
19 जुलाई, 2013: छपरा में विषाक्त भोजन से बाईस बच्चों की मौत के बाद वहां
के राजनीतिक दल अब सरकार को निशाना बना कर अपना पक्ष मजबूत करने में जुट
गए हैं।
भाजपा, राजद और लोजपा ने एक दिन के प्रदेश बंद का आह्वान किया। इसके लिए
मुख्यमंत्री से इस्तीफे की मांग की जा रही है, तो सत्तापक्ष इस घटना के
पीछे किसी साजिश का शक जता रहा है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय का
कहना है कि उसने अप्रैल में ही बिहार सरकार को वहां के स्कूलों में दिए जा
रहे दोपहर के भोजन की गुणवत्ता को लेकर चेतावनी दी थी। अब बिहार के ही
मधुबनी, गया आदि जिलों से दूषित भोजन खाने से बच्चों के बीमार होने की
शिकायतें आने लगी हैं। कुछ दूसरे राज्यों से भी ऐसी खबरें आई हैं। हालांकि
विषाक्त मध्याह्न भोजन खाने से बच्चों के बीमार होने या दम तोड़ देने की ये
घटनाएं नई नहीं हैं। हर राज्य से ऐसी शिकायतें जब-तब आती रहती हैं। मगर
उनमें जांच का फरमान जारी कर या कुछ कर्मचारियों को मुअत्तल करके
जिम्मेदारी पूरी समझ ली जाती है। जबकि सरकारी स्कूलों में बच्चों को दिए
जाने वाले मुफ्त भोजन के मामले में किस स्तर की गड़बड़ियां होती हैं,
गुणवत्ता को लेकर स्कूल किस कदर लापरवाही बरतते हैं, यह किसी से छिपा नहीं
है। मगर तमाम शिकायतों के बावजूद न तो केंद्र के स्तर पर कभी कोई
व्यावहारिक उपाय तलाशने की कोशिश की गई और न राज्यों की विपक्षी पार्टियों
ने इसे गंभीर मुद्दा माना। चुनावी तैयारी का माहौल न होता तो शायद बिहार की
घटनाओं पर भी राजनीतिक दलों का ध्यान न जा पाता।
दोपहर का भोजन योजना शुरू करने के पीछे बच्चों के स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति और उनमें बढ़ रहे कुपोषण पर काबू पाना बड़ा मकसद था। मगर यह योजना भी भ्रष्टाचार के भंवर में फंसती चली गई। बड़े शहरों में भोजन पकाने और वितरित करने की जिम्मेदारी कई जगह कुछ ठेकेदारों या स्वयंसेवी संगठनों को दी गई है। मगर वहां भी स्थिति संतोषजनक नहीं है। ऐसा इसलिए भी है कि सरकारी स्कूलों में ज्यादातर गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ने आते हैं और उनके प्रति स्कूल प्रशासन का रवैया संवेदनशील नहीं देखा जाता। क्या सरकारें और विपक्षी दल इस स्थिति से वाकिफ नहीं हैं! फिर बच्चों की सेहत से हो रहे इस खिलवाड़ को रोकने की जरूरत तभी क्यों महसूस की जाती है जब राजनीतिक लाभ मिलने की गुंजाइश बनती दिखती है। केवल योजनाएं बनाना और लागू करना नहीं, उन्हें लक्ष्य तक पहुंचाने के उपाय करना भी सरकारों की जिम्मेदारी होती है। ये किसी की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का जरिया बन जाएं तो भी स्थिति खतरनाक बन सकती है। |
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