सिंगुर में सुनाई दे रही हैं सिसकियाँ
रविवार, 24 जून, 2012 को 04:51 IST तक के समाचार
"एक बार फिर हमारा सपना टूट गया.
आखिर बार-बार टूटते सपनों के साथ हम जिंदगी का बोझ कब तक ढो सकते हैं? अब
तो रही-सही आस भी टूट गई है," - यह कहते हुए सिंगुर के देबू पाखिरा की
आँखें भर आती हैं.
जिस कानून के सहारे वे अपनी 12 कट्ठा जमीन वापस पाने के सपने देख रहे थे, कलकत्ता हाईकोर्ट ने उसे असंवैधानिक करार दे दिया है."हम तो गंदी राजनीति का शिकार हो गए. जमीन तो हाथ से गई ही, मेरे इकलौते बेटे का भविष्य भी अंधेरे में डूब गया"
रेखा दास, सिंगुर निवासी
देबू और लीना की कहानी से मलती-जुलती हजारों कहानियों टाटा के इस संयंत्र के चारों और फिजाँ में तैर रही हैं जिस संयंत्र के सहारे स्थानीय लोगों की आंखों ने कभी सतरंगी सपने देखे थे.
लेकिन यह सपना इतनी बार टूट चुका है कि अब लोगों में सपने देखने की भी हिम्मत नहीं बची.
राजनीति के शिकार
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, कोई 2400 ऐसे किसान हैं जिनसे उस परियोजना के लिए जबरन जमीन ली गई थी.इन अनिच्छुक किसानों की जमीन लौटाने के मुद्दे पर ममता बनर्जी ने इतना बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया था कि टाटा को कारोबार समेट कर गुजरात जाना पड़ा.
उज्जवल पाखिरा ने कोई बड़ा सपना नहीं देखा था.
वर्ष 2004 में जब उसे टाटा की परियोजना की जानकारी मिली तो भविष्य को ध्यान में रखते हुए उसने संयंत्र के पास नेशनल हाइवे पर खाने-पीने की चीजों की एक दुकान खोल ली थी.
उसने सोचा था कि चार-पांच साल में फैक्टरी खुल जाने पर दुकान को पक्का बनवा लेगा.
लेकिन न तो फैक्टरी खुली और न ही दुकान चली. उस बियाबान में भला उसकी दुकान पर खाने के लिए कौन आता? अब वह पड़ोसी हावड़ा जिले में निमार्णाधीन एक बहुमंजिली इमारत में मजदूरी कर परिवार का खर्च चलाता है.
सिंगुर के देवब्रत दास कहते हैं,"हमें ममता बनर्जी सरकार से काफी उम्मीदें थीं. सरकार तो प्रयास कर ही रही है. लेकिन हमारे पास न तो जमीन है और न ही उसके बदले कोई मुआवजा मिला. हम तो न घर के रहे न घाट के."
उनकी पत्नी श्यामली दास कहती हैं,"मुख्यमंत्री हमें हर महीने एक हजार रुपए की आर्थिक सहायता दे रही हैं और दो रुपए किलो की दर से चावल भी मिल रहा है. लेकिन मेरे पति की दवाओं पर ही पांच सौ रुपए खर्च हो जाते हैं. आखिर बाकी पांच सौ में जीवन कैसे चलेगा?"
सिंगुर में नैनो संयंत्र के आसपास खामोशी पसरी है. संयंत्र के मुख्यद्वार पर तैनात सुरक्षा कर्मियों के अलावा वहां कोई नजर नहीं आता. गांव वाले दूर से ही इसकी चारदीवारी को देखते हुए आहें भरते नजर आते हैं.
लंबा इंतज़ार
"किसानों की किस्मत का फैसला हो चुका है. उनका जीवन तो टाटा के नैनो संयंत्र की तरह धीरे-धीरे खंडहर में बदल रहा है"
शंकर मल्लिक, सिंगुर निवासी
लेकिन आखिर कब ? उसके और उसके पड़ोसियों के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है. वह कहता है कि अब सुप्रीम कोर्ट में पता नहीं कब तक मामला चलेगा?
सिंगुर में अधिग्रहण आंदोलन चलाने वाले तृणमूल कांग्रेस के नेता भी भारी दबाव में हैं.
स्थानीय तृणमूल नेता मानिक चंद्र दास कहते हैं,"यहां के लोगों को बेहद लुभावने सपने दिखाए गए थे. लेकिन अब उनके पैरों तले की जमीन भी खिसक रही है. अब हमारे पास खोने को कुछ नहीं है. अब हमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करना होगा."
सिंगुर टाउन में तो लोग इस मुद्दे से इतने आजिज आ चुके हैं कि वे इस पर ज्यादा बात तक नहीं करना चाहते.
चाय दुकान चलाने वाले शंकर मल्लिक कहते हैं,"अब यहाँ फैक्टरी के लिए जमीन देने वाले किसानों की किस्मत का फैसला हो चुका है. उनका जीवन तो टाटा के नैनो संयंत्र की तरह धीरे-धीरे खंडहर में बदल रहा है."
शायद आज की तारीख में सिंगुर का सच भी यही है.
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