18.10.12

सरकार जवाब दे यह देश किसका है



हाल में देश में हुए बदलावों ने एक आधारभूत सवाल पूछने के लिए मजबूर कर दिया है. सवाल है कि आखिर यह देश किसका है? सरकार द्वारा देश के लिए बनाई गई आर्थिक नीतियां और राजनीतिक वातावरण समाज के किस वर्ग के लोगों के फायदे के लिए होनी चाहिए? लाजिमी जवाब होगा कि सरकार को हर वर्ग का ख्याल रखना चाहिए. आज भी देश के साठ प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर हैं. मुख्य रूप से सरकारी और निजी क्षेत्र में काम कर रहा संगठित मज़दूर वर्ग भी महत्वपूर्ण है. दुर्भाग्यवश 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद सरकार का सारा ध्यान कॉरपोरेट सेक्टर, विदेशी कंपनियों और विदेशी निवेश पर केंद्रित हो गया. कृषि क्षेत्र की लगातार उपेक्षा की गई और अगर ऐसा ही आने वाले 20 सालों तक चलता रहा तो जिस तरह देश की जनसंख्या बढ़ रही है, उसे देखते हुए देश में अनाज की भारी कमी हो जाएगी. हो सकता है कि जनसंख्या वृद्धि की दर कम हो, मगर वह बढ़ेगी ही और उसके लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध नहीं होगा. जब आप अपने लोगों का पेट नहीं भर सकते हैं, तब कोई भी विकास और कितना भी पैसा किसी देश की मदद नहीं कर सकता है.
जब जवाहर लाल नेहरू जीवित थे, तब कांग्रेस पार्टी ने तमिलनाडु में मद्रास के निकट अवाडी में एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें कहा गया था कि राष्ट्रीय नीतियां समाजवाद के सिद्धांत को बढ़ावा देने वाली होनी चाहिए. 1991 में मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे और तब उन्होंने कहा कि इन नीतियों से देश के लोगों का भला नहीं हुआ और उन्होंने सारी नीतियों को उलट दिया. उनका मुख्य तर्क यह था कि लाइसेंस राज के दौरान कुछ लोगों ने सभी लाइसेंस अपनी मुट्ठी में कर लिए और बाद में उन्हें ऊंचे दामों पर दूसरों को बेच दिया, जो अनुचित था. यदि वह लाइसेंस राज खत्म कर देते तो शायद बहुत सारे लोग कल-कारखाने खोल सकते थे या कुछ और कर सकते थे, जिससे प्रतिस्पर्धा बढ़ती, कीमतों में कमी आती और लोगों को फायदा होता. पिछले 21 सालों में क्या हुआ है? महंगाई बढ़ गई है, कहीं भी प्रतिस्पर्धा नहीं है. इलेक्ट्रॉनिक एवं दूरसंचार जैसे जिन क्षेत्रों में काम हुआ है, तकनीकी विकास के कारण हुआ है, न कि सरकारी नीतियों की वजह से. यदि आईटी (सूचना प्रौद्योगिकी) कंपनियों ने बेहतर प्रदर्शन किया तो उसकी वजह तकनीक और समय में बदलाव था, अमेरिका और भारत में कीमतों का अंतर था. जहां कहीं भी सरकार शामिल थी, वहां कोई वास्तविक प्रगति नहीं हुई.
आपने अमेरिका को खुश करने के लिए न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल पास किया, खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति अमेरिका को खुश करने के लिए दी. इस देश के ग़रीबों का क्या हुआ? उदाहरण के तौर पर यहां लाभ पर कोई टैक्स नहीं है. यदि किसी कंपनी का मालिक लाभ की घोषणा करता है और उसे लाभ स्वरूप पैसे मिले हैं तो उसे उस पर कोई टैक्स नहीं देना होता है.
1991 के पहले और 1991 के बाद की परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. वहीं दूसरी तऱफ टू जी स्पेक्ट्रम और कोयले के मामले में अब सरकार का कहना है कि उसने स्पेक्ट्रम और कोयले की खदानों का आवंटन किया था. आवंटन लाइसेंस की जगह इस्तेमाल हुआ दूसरा शब्द है और उसने एक नए शब्द का इस्तेमाल किया. अगर दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने टू जी स्पेक्ट्रम अपने पसंदीदा लोगों को आवंटित कर दिए और कोयले की खदानें भी अपने पसंदीदा लोगों को आवंटित कर दीं. आखिर उसने क्या किया? टू जी स्पेक्ट्रम के मामले में एक व्यक्ति ने x रुपये में स्पेक्ट्रम खरीदा और फिर एक महीने या फिर कुछ दिनों बाद दूसरे को उसे 10 x में बेच दिया. लोगों को सेवा प्रदान करने वाला व्यक्ति वह है, जिसने स्पेक्ट्रम 10 x कीमत पर खरीदा है. इस पर कपिल सिब्बल का तर्क था कि यदि सरकार स्पेक्ट्रम को ऊंचे दामों पर बेचती तो उससे दूरसंचार सेवा महंगी हो जाती. यह पूरी तरह झूठा बयान था, क्योंकि जो व्यक्ति लोगों को मोबाइल सेवा दे रहा है, उसने स्पेक्ट्रम 10 x कीमत पर खरीदा है. किसने x और 10 x के बीच पैसा बनाया? बिचौलिए ने. वह व्यक्ति, जिसे आपने स्पेक्ट्रम आवंटित किया था. किसे इस पैसे में से हिस्सा मिला, यह उनकी परेशानी का कारण है. हालांकि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने कहा है कि यदि वह इसे 10 x में बेचते तो उन्हें पैसे नहीं मिलते, क्योंकि यहां x और 10 x के बीच बड़ा अंतर है. कपिल सिब्बल और चिदंबरम हर दिन यही बयान देते थे कि सरकार को कोई घाटा नहीं हुआ है. इसका मतलब क्या है? एक अर्द्ध शिक्षित व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि यदि आपने एक चीज को किसी दाम पर बेचा है और यदि उसे ज़्यादा दाम पर बेचा जा सकता था, तो यहां घाटा हुआ है. उच्चतम न्यायालय ने हाल में दिए अपने एक फैसले में कहा है कि नीलामी किसी भी चीज की सही कीमत पाने का एकमात्र तरीका नहीं है.
उच्चतम न्यायालय ने यह नहीं कहा कि आप कोयले की खदान और स्पेक्ट्रम अपने भतीजे को दे दें, अपने भांजे को दे दें या किसी ऐसे शख्स को दे दें, जिसका सरनेम (उपनाम) आपसे मिलता हो या फिर कोई ऐसा शख्स, जो आपका बहुत प्रिय हो. नहीं नहीं… बिल्कुल नहीं. उसने बस इतना कहा कि एक सही और पारदर्शी तरीका होना चाहिए, जिसमें नीलामी भी एक तरीका हो सकता है, दूसरे और तरीके भी हो सकते हैं. इसका यह मतलब नहीं है कि उच्चतम न्यायालय ने आपके किए को सही ठहराया है. अब सरकार ने सीएजी पर हमला करना शुरू कर दिया है, क्योंकि सीएजी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि इन कोयला खदानों के आवंटन में हमें बहुत घाटा हुआ है. चिदंबरम ने यह कहा है कि सरकार को कोई घाटा नहीं हुआ है, क्योंकि कोयला अभी भी ज़मीन के अंदर ही है. यह सही है कि अभी घाटा नहीं हुआ है, लेकिन आपने निजी लोगों को फायदा पाने के अधिकार दे दिए हैं. जब भी कोयला बाहर निकाला जाएगा तो फायदा निजी कंपनियों को होगा, न कि सरकार को. यह अशोका होटल को 1000 करोड़ रुपये की बजाय 10 करोड़ रुपये में बेचने जैसा है और फिर आप कहते हैं कि सरकार को कोई घाटा नहीं हुआ है. आप कहते हैं कि होटल में रहने कोई नहीं आया. सरकार के लोग ही वहां नहीं ठहरेंगे तो दूसरे लोगों की बात छोड़िए. आपने संपत्ति को पहले ही बेच दिया है और जब कभी कोई होटल में ठहरता है तो वह पैसा कमाएगा, न कि सरकार.
यह समझना बहुत ज़रूरी है कि कब सीएजी घाटे की बात करता है. इसका मतलब है, जो फायदा हमें हो सकता था, उतना नहीं हो पाया. यह फायदे का नुकसान है. यह अनुमानित घाटा नहीं है, बल्कि यह वास्तविक घाटा है, क्योंकि हमने टू जी स्पेक्ट्रम के मामले में देखा कि एक कंपनी ने दूसरी कंपनी को अधिकार दस गुना दामों पर हफ्ते भर में बेच दिए. हमने कोयला खदान आवंटन के मामले में देखा कि जिन्होंने कोयले की खदानें ली हैं, उन्होंने बैंक से पैसे उधार ले लिए हैं और वे शेयर बाज़ार में अपने शेयर भी ला चुके हैं. वह भी इस आधार पर कि उन्होंने जगह खरीदी है. जबकि उन्होंने यह सब कुछ सरकार और बैंक के पैसे से लिया है. हर कोई खुश हो रहा है. यह समय कांग्रेस के अवाडी रिजॉल्यूशन पर लौटने का है, जिसमें कहा गया है कि हमें समाजवाद के सिद्धांतों पर आधारित समाज का निर्माण करना है, ग़रीबों का ख्याल रखा जाए. किसी ने यह नहीं कहा, अवाडी रिजॉल्यूशन में भी नहीं कहा कि कॉरपोरेट सेक्टर को बंद कर देना चाहिए या निजी क्षेत्र को कोई अधिकार नहीं होने चाहिए. सभी ने यह कहा है कि ग़रीबों का ख्याल रखा जाना चाहिए, पब्लिक सेक्टर को सुदृढ़ करना चाहिए. यहां निजी क्षेत्र के लिए बहुत से रास्ते खुले हैं, जहां वह अपना पराक्रम दिखा सकता है और अपना काम कर सकता है. सरकार द्वारा मनरेगा को लागू करना एक महत्वपूर्ण क़दम था. ग़रीबों के लिए 100 दिनों के रोजगार की व्यवस्था की गई थी. यह अलग बात है कि योजना को किस तरह क्रियान्वित किया गया और इसमें कितना भ्रष्टाचार फैला हुआ है, लेकिन यह क़दम सही था. मनरेगा में हर साल कितना पैसा खर्च किया जाता है, मान लीजिए 40 हज़ार करोड़, लेकिन यह पैसा कॉरपोरेट सेक्टर से आना चाहिए. धनवान लोगों को ग़रीबों के लिए भुगतान करना चाहिए. सरकार को कॉरपोरेट टैक्स 5 प्रतिशत बढ़ा देना चाहिए. अमीरों से पैसे लो और ग़रीबों में बांट दो, लेकिन यह सरकार ऐसा कभी नहीं कर सकती, क्योंकि उसे लगता है कि इससे शेयर बाज़ार में गिरावट आएगी. अमेरिका कहेगा कि तुम कॉरपोरेट सेक्टर को क्यों बर्बाद कर रहे हो.
अब क्या पहले देश के ग़रीबों एवं किसानों के हितों का ख्याल रखा जाएगा या फिर अमेरिकी अधिकारियों की खुशी का ख्याल रखा जाएगा? यह विषय आज हमारे सामने है. आपने अमेरिका को खुश करने के लिए न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल पास किया, खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति अमेरिका को खुश करने के लिए दी. इस देश के ग़रीबों का क्या हुआ? उदाहरण के तौर पर यहां लाभ पर कोई टैक्स नहीं है. यदि किसी कंपनी का मालिक लाभ की घोषणा करता है और उसे लाभ स्वरूप पैसे मिले हैं तो उसे उस पर कोई टैक्स नहीं देना होता है. कौन टैक्स देता है? कंपनी टैक्स देती है. एक बराबरी पर लाने के लिए कम से कम यह किया जाना चाहिए कि कंपनी में काम करने वालों को टैक्स के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए. कर्मचारियों का टैक्स जो कुछ भी हो, उसका भुगतान कंपनी को करना चाहिए. यदि कंपनी अपने मालिक के टैक्स का भुगतान कर सकती है तो वह कर्मचारियों के टैक्स का भुगतान भी कर सकती है. यदि ग़रीब कर्मचारी टैक्स का भुगतान कर रहे हैं, जिनकी एक नियत आमदनी है, महंगाई बढ़ रही है, उन्हें यह नहीं मालूम है कि इसका समाधान क्या होगा, मालिक को बिना किसी टैक्स का भुगतान किए लाभांश मिल रहा है, तो क्या हम एक सा़फ-सुथरे और न्यायपूर्ण समाज में रह रहे हैं? यह आधारभूत सवाल पूछने की ज़रूरत आ पड़ी है. अगले चुनाव इस विषय पर होंगे कि यह देश किसका है? क्या यह देश मुट्ठी भर व्यवसायिक घरानों का है या फिर करोड़ों किसानों एवं मज़दूरों का है, जो खेतों और फैक्ट्रियों में काम कर रहे हैं. यह आज के समय का सबसे बड़ा मुद्दा है. बात एक लाख अस्सी हज़ार करोड़ या एक लाख सत्तर हज़ार करोड़ की नहीं है, बात शासन की ईमानदारी की है, काम करने के सही तरीके की है, पारदर्शिता की है. सरकार ग़रीबों के वोटों से चुनी जाती है, लेकिन वह केवल धनी लोगों की सेवा करती है. इस तरह का लोकतंत्र कितने दिनों तक चलेगा. हमारा लोकतंत्र कुछ देशों की तरह हो गया है, जिनके नाम मैं नहीं लेना चाहता हूं, जहां मतदान तो होता है, लेकिन लोगों को आज़ादी नहीं है. भारत में भी हम लोग उस स्तर पर पहुंच गए हैं, जहां हमारी सारी आज़ादी समाप्त हो गई है.
हमें बताइए कि आम आदमी कोयला आवंटन में हुई लूट या फिर टू जी घोटाले या चारों तऱफ फैल रहे भ्रष्टाचार को देखकर क्या सोचता होगा? अन्ना हजारे जैसे लोगों का आंदोलन उनके कारण लोकप्रिय नहीं हुआ, बल्कि इन्हीं कारणों से हुआ है और अन्ना हजारे को अचानक गांधी बना दिया गया. उनका आंदोलन इतना बड़ा इसलिए हो गया, क्योंकि उन्होंने जनता की दुखती रगों पर हाथ रख दिया. लोग पहले से इन बातों का अनुभव कर रहे थे, उसी समय आंदोलन हुआ, इसलिए लोग उनके आसपास खड़े होने लगे, क्योंकि लोगों का मानना था कि अन्ना हजारे सही कह रहे हैं. जब तक सरकार यह नहीं दिखाएगी कि वह भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए कुछ कर रही है, भ्रष्टाचारियों को दंड दे रही है, गलत कामों को रोक रही है, तब तक लोगों को उस पर भरोसा नहीं होगा. लाभ कमाना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन लाभ का नाटक करके कुछ लोगों को लाभ देना सही नहीं है. कोयला आवंटन या फिर टू जी स्पेक्ट्रम में सरकार को लाभ नहीं हुआ, बल्कि कुछ लोगों को लाभ दिया गया, जो शर्मनाक है.
मैं वैश्विक समाजवाद को जानता हूं. 1991 में मनमोहन सिंह ने समाजवाद का मजाक उड़ाया, जैसे कि जवाहर लाल नेहरू या इंदिरा गांधी को देश के हितों का ख्याल ही नहीं था. हम लोग यह कभी नहीं भूल सकते हैं कि टाटा, बिड़ला एवं अंबानी जैसे उद्योगपति उसी समाजवादी काल की उपज हैं. 1991 के बाद क्या हुआ, यह सभी लोग जानते हैं. इस पूंजीवादी और प्रतिस्पर्धा वाली व्यवस्था में सरकार ने क्या पैदा किया है. मुझे लगता है कि कुछ भी नहीं. आप एक और बात समझ सकते हैं कि कॉरपोरेट सेक्टर को नीति बनाने के लिए किसी और लोगों की ज़रूरत नहीं है, वे स्वयं ही नीति बना लेते हैं. जो भी नियम-क़ानून हों, वे अपना रास्ता खुद बना लेंगे और अपनी जीविका चला लेंगे. इसलिए सरकार को उन लोगों की जीविका के लिए किसी तरह के क़ानून बनाने की ज़रूरत नहीं है. बनिया समाज या फिर कॉरपोरेट क्षेत्र अपने लिए रास्ते बना ही लेते हैं. कोई भी क़ानून पूरे देश के फायदे के लिए बनाया जाना चाहिए. इस तरह के क़ानून बनाए जाने चाहिए, जिनसे देश के अधिकांश लोगों को फायदा हो, न कि किसी वर्ग विशेष को. वे लोग धन कमा लेंगे, हालांकि वे जिस तरह से धन कमाना चाहते हैं या जितना धन कमाना चाहते हैं, उतना नहीं कमाएंगे, लेकिन उनका धन सफेद धन होगा. इतने से उन्हें संतुष्ट होना चाहिए, हमें संतुष्ट होना चाहिए. इसके बाद सरकार को भी अपनी ज़िम्मेदारी निभानी पड़ेगी. उसे जनता को जवाब देना होगा.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अवाडी अधिवेशन

वर्ष 1955 का अवाडी अधिवेशन कांग्रेस के लिए सबसे ऐतिहासिक माना जाता है. इसमें कांग्रेस ने राष्ट्र के समाजवादी स्वरूप की योजना बनाई थी. इसे जवाहर लाल नेहरू और मौलाना आज़ाद ने रचा था. अवाडी प्रस्ताव में कहा गया था कि कांग्रेस का लक्ष्य अब संविधान की उद्देशिका और राज्य के नीति निदेशक तत्वों का पालन करना होगा. योजनाएं समाजवादी स्वरूप के आधार पर बनाई जानी चाहिए, जिनमें उत्पादन के साधनों पर समाज का अधिकार हो, उत्पादन को बढ़ाया जाए और देश की संपत्ति के वितरण में समानता हो. देश के संसाधनों का उपयोग सभी लोगों के हित में किया जाएगा, न कि किसी वर्ग विशेष के फायदे के लिए इसका उपयोग किया जाएगा. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1955 में अवाडी प्रस्ताव पारित किया था. इसमें यह तय किया गया था कि भारत में किस तरह का समाज होगा और और इसके लिए क्या किया जाना है. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में हुए इस अधिवेशन में कांग्रेस ने समाज के समाजवादी स्वरूप के आदर्श को स्वीकार किया था. जवाहर लाल नेहरू का मानना था कि समाजवाद पूरे मानव समाज की समस्याओं का समाधान कर सकता है. केवल समाजवाद के माध्यम से ही ग़रीबी एवं बेरोजगारी को दूर किया जा सकेगा. समाजवाद ही देश के राजनीतिक और सामाजिक स्वरूप को बदल सकता है. यू एन ढेबर, पंडित जी बी पंत, मोरारजी देसाई, खंडूभाई देसाई, एस एन अग्रवाल, देवकी नंदन नारायण, बलवंतरी मेहता, डॉ. सैयद महमूद, हरे कृष्ण महताब, डॉ. के एन काटजू, गुलजारी लाल नंदा और लाल बहादुर शास्त्री आदि ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया था.

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