28.12.12

                कृषि भूमि पर हो इनका भी हक
मुद्दा भारत डोगरा
लंबे समय तक देश की खेती-किसानी में केवल मजदूर की भूमिका तक सीमित रखे गए दलित व अन्य कमजोर समुदायों के भूमिहीन परिवारों को भी अनुकूल अवसर मिलें तो वे बहुत सफल किसान बन सकते हैं। इतने वर्षो तक दूसरों के खेतों में मेहनत-मजदूरी कर उन्होंने देश का खाद्य-उत्पादन बढ़ाने में अमूल्य योगदान दिया। अब समय आ गया है कि न्यायसंगत समाज की स्थापना के उद्देश्यों के अनुकूल उन्हें अपनी जमीन देकर सफल किसान बनने के समुचित अवसर दिए जाएं। राष्ट्रीय स्तर पर लाखों दलित व अन्य कमजोर वगरे के परिवार हैं जिन्हें सरकारी कागजों में तो जमीन का पट्टा मिल चुका है पर व्यावहारिक स्तर पर वे भूमिहीन हैं क्योंकि वे भूमि के पट्टे पर वास्तव में कब्जा नहीं कर पाए हैं। ऐसे परिवारों को प्राय: दोहरी सजा झेलनी पड़ती है। सरकारी रिकॉर्ड में भूस्वामी दिखा दिए जाने के कारण एक ओर वे बीपीएल (गरीबी की रेखा के नीचे) का कार्ड व सुविधा प्राप्त करने से वंचित हो जाते हैं और दूसरी ओर या तो उनकी भूमि की सही पहचान व पैमाइश होती ही नहीं है या इस भूमि का पता चलने पर वे उसे जोतने जाते हैं तो गांव के दबंग लोगों द्वारा खदेड़ दिए जाते हैं। ऐसी कुछ भूमि पर दबंग स्वयं कब्जा कर लेते हैं, जबकि दलित भूमिहीनों को दी गई बहुत सी भूमि बिना जोती ही रह जाती है क्योंकि यह जमीन ऊबड़-खाबड़, पथरीली व सिंचाई के किसी स्रेत से दूर होती है। ऐसी स्थिति में यदि देश के लाखों दलित व कमजोर परिवारों को सफल किसान बनते का अवसर देना है तो इसके लिए अभियान चलाने होंगे, भूमि की पैमाइश व पहचान की विशेष व्यवस्था करनी होगी, अवैध अतिक्रमणों को हटाना होगा व गांवों में ऐसी सुरक्षा का माहौल बनाना होगा कि दलित परिवार उस जमीन को जोत सकें जो उन्हें आवंटित की गई है। इसके अलावा समतलीकरण, मेढ़बंदी व लघु सिंचाई जैसी जरूरी सहायता उपलब करवा कर ऐसी स्थितियां उत्पन्न की जाएं जिसमें पथरीली, ऊबड़-खाबड़ व सूखी भूमि में भी फसल लहलहा सके।
ऐसा ही एक प्रेरणादायक उदाहरण हाल के समय में बांदा जिले (उत्तर प्रदेश) ने नेडुवा बड़ैछा गांव में उपस्थित किया गया है। यहां कुछ दलित परिवारों के लिए तो बहुत कठिन स्थिति थी क्योंकि उन्हें जो भूमि दी गई थी वह बीहड़ व टीलों वाली थी। इसके बावजूद उसे खेती योग्य बनाया गया व वहां आज दलित किसानों की मेहनत से गेंहू, चना, अरहर समेत विविध सब्जियों आदि से खेत हरे-भरे हैं। पांच वर्ष पहले तक ऐसी अधिकांश आवंटित भूमि पर अव्वल तो खेती नहीं हो रही थी या नहीं के बराबर हो रही थी। चूंकि बीहड़ या टीलेनुमा खेतों में फसल के अवसर बहुत कम थे अत: इस ओर दलित व कमजोर वर्ग के परिवार ज्यादा ध्यान नहीं देते थे और पेट भरने के लिए दूरदू र के क्षेत्रों में पलायन करते थे जहां प्रवासी मजदूर के रूप में उन्हें बहुत कष्ट सहने पड़ते थे। बहुत शोषण होता था पर मजबूरी के कारण लगभग हर वर्ष प्रवास करते थे। इस स्थिति में यहां बुंदेलखंड की एक विख्यात संस्था अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान ने सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट के सहयोग से एक वाटरशेड कार्यक्रम आंरभ किया जिसके पहले चरण में विशेष अभियान चलाकर प्रशासन से पट्टों की उचित पहचान व पैमाइश करवाई। इस तरह विभिन्न दलित परिवारों को यह सुनिश्चित हो गया है कि यह उनका पट्टा है और वे उस पर अधिक मेहनत के लिए वे तत्पर हो गए। इसके बाद भूमि समतलीकरण व बांधीकरण का अभियान चलाया गया जिससे टीले व बीहड़ भी ऐसे अच्छे खेतों का रूप लेने लगे जहां मिट्टी व जल संरक्षण की उचित व्यवस्था थी। इसके बाद पास के नदी व नाले से लिफ्ट सिंचाई माध्यम से दूर-दूर के खेतों में पानी पंहुचाने की व्यवस्था की गई। चुनौती कठिन थी, फिर भी मेहनत और ईमानदारी के बल पर अपेक्षाकृत कम खर्च में ही यह सब कार्य हो सके। परियोजना के सीमित साधनों में अधिकतम भूमि को हरा-भरा किया गया, पर अभी शेष भूमि व आसपास के अन्य गांवों की चुनौती सामने है। उत्तर प्रदेश शासन के उच्चाधिकारियों ने प्रयोग से प्रभावित होकर इसे व्यापक स्तर पर अपनाने के बारे में विमर्श शुरू किया है। सरकार के प्रयास में भ्रष्टाचार का घुन न लगे तो यह प्रयोग अधिक व्यापक स्तर पर सफल हो सकता है। बिहारी कोरी के चेहरे पर चमक है क्योंकि वह अपने पट्टे की जमीन में 11 सदस्यीय परिवार के लिए वर्ष भर का अनाज उत्पन्न कर रहा है, साथ में मूंगफली की नकद फसद भी। उसने 17000 रुपए की मूंगफली बेची। बिहारी ने कहा कि अब पहले की अपेक्षा चार गुणा फसल का उत्पादन बढ़ने की संभावना है। झुनिया सुकून में है कि अब उसे पति व बच्चों के साथ दिल्ली की सड़कों पर असहाय हालत में नहीं रहना पड़ेगा क्योंकि वह अपने खेत में गेंहू, मूंग, चना व मूंगफली की फसलें उगा परिवार की भोजन व नकदी दोनों जरूरतें पूरा कर रही है। रतिराम ने तो एक वर्ष में तीन फसल लेकर दिखा दिया है कि अवसर मिले तो दलित सफल किसान बन सकते हैं। इस तरह की परियोजनाओं व प्रयासों का प्रसार अधिक व्यापक स्तर पर हो तो भविष्य में दलित व कमजोर वर्ग के ग्रामीणों को सफल किसान बनाया जा सकता है। एक महत्वपूर्ण सावधानी यह होनी चाहिए कि पर्यावरण रक्षा के अनुकूल व आत्म-निर्भरता बढ़ाने वाली सस्ती तकनीकों को प्रोत्साहित किया जाए। हाल में जन सत्याग्रह यात्रा के दौरान हुए समझौते से भूमि-सुधार व भूमि वितरण आंदोलन को नई दिशा मिली है इससे भविष्य में ग्रामीण भूमिहीनों विशेषकर दलित परिवारों में भूमि वितरण का कार्य जोर पकड़ेगा। यानी यह भूमि वितरण के सही नियोजन के प्रयास तेज किए जाने का उचित समय है। पहले जैसी गलती न हो कि सिंचाई व मेढबंदी के अभाव में भूमि पाने वालों की जमीन बंजर ही रह जाए। भूमि के हकदारों को समतलीकरण व मेढ़बंदी के साथ लघु सिंचाई की सुविधा मिलनी चाहिए। साथ ही कि इन परिवारों को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध करायी जाए ताकि दबंग व सामंती मानसिकता उन्हें भू स्वामित्व से बेदखल न कर दे।

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