22.11.12

युवा अमरीकी सपनों की मंजिल बनता भारत

 गुरुवार, 22 नवंबर, 2012 को 06:58 IST तक के समाचार

सीन ब्लाग्सवेट
सीन के लिए भारत आना काफी फायदेमंद रहा
अमरीका की सिलिकॉन वैली हमेशा से उन प्रतिभाशाली और दक्ष प्रवासी भारतीयों के लिए सपनों की मंजिल रही है जो अपना बिजनेस शुरू करना चाहते हैं. लेकिन अब उल्टी गंगा बह रही है.
अमरीका में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो अपनी बिजनेस योजनाओं के साथ भारत का रुख कर रहे हैं.
वैलरी वैगनर प्रतिभाशाली और उत्साही महिला हैं. उन्होंने अमरीका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़ाई की और उसके बाद ऑनलाइन नीलामी वेबसाइट ईबे के लिए काम किया. उन्हें दुनिया में कहीं भी नौकरी मिल सकती थी.
लेकिन उन्होंने भारत को चुना.

"किसी से कम नहीं भारत"

वैलरी ने पांच साल पहले कैलिफोर्निया की सिलिकॉन वैली छोड़ी और बंगलौर चली आईं और अब अपनी खुद की मोबाइल मार्केटिंग कंपनी जिपडायल चला रही हैं.
काउफमन फाउंडेशन का शोध कहता है कि 2005 से सिलिकॉन वैली में शुरू होने वाली आधी से ज्यादा कंपनियां प्रवासियों की रही हैं. वहां एक तिहाई कंपनियों की शुरुआत भारतीय प्रवासियों ने की.
"हर किसी को एक महीने में पता चल जाता है कि वो महीने के आखिर में वापस अपने देश जाएगा या फिर यहीं रहेगा."
वालेरी वागोनर, युवा अमरीकी उद्यमी
लेकिन अब कई अमरीकी लोग अपने देश को छोड़ भारत का रुख कर रहे हैं. ये चलन काम की तलाश में विदेश जाने वाले रुझान से अलग है क्योंकि ये लोग किसी कंपनी के लिए काम करने नहीं, बल्कि अपना खुद का कारोबार शुरू करने आ रहे हैं.
वैलरी कहती हैं, “हर किसी को एक महीने में पता चल जाता है कि वो महीने के आखिर में वापस अपने देश जाएगा या फिर यहीं रहेगा.”
उन्होंने चीन की बजाय भारत को इसलिए चुना क्योंकि यहां का बाजार अंग्रेजी भाषी है.
वो बताती हैं, “यहां बिजनेस खड़ा करने और कुछ नया करने के बहुत अवसर हैं. यही इस बाजार की खासियत है.”
वैलरी ने भारत में मोबाइल फोन के फैलते बाजार और यहां ‘मिस कॉल की संस्कृति’ में अपने लिए संभावनाएं तलाशीं.
उन्होंने एक ऐसी टेक्नोलजी विकसित की जिसमें एक नंबर डायल कर लोग प्रतियोगिता या ईनामी ड्रॉ में शामिल हो सकते हैं. इसके बाद वो फोन काट देते हैं और उन्हें टेक्स्ट मैसेज के रूप में विज्ञापन प्राप्त होते हैं. इससे फोन कॉल करने की लागत बच जाती है.
एशिया में अब भी नई चीजें करने के नाम पर पश्चिम की नकल की जाती है. अमेजन वेबसाइट का भारतीय संस्करण इसकी मिसाल है. लेकिन वैलरी का मानना है कि दुनिया भर को मौलिक विचार देने के मामले में एक दिन बंगलौर भी सिलिकॉन वैली को टक्कर दे सकता है.

चुनौती में अवसर

भारतीय समाज
भारत का पारंपरिक समाज कई बदलावों से गुजर रहा है
हाल के दशकों में बंगलौर वैलरी जैसे उद्यमियों के लिए मुख्य केंद्र बन गया है. इसे भारत की तकनीकी राजधानी भी कहा जाने लगा है. कुछ लोग तो इसे भारत की सिलिकॉन वैली भी कहते हैं. यहां गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और याहू जैसी दिग्गज तकनीकी कंपनियों के दफ्तर हैं.
अमरीका की सिलिकॉन वैली में स्थित स्टार्टअप जीनोम शोध परियोजना के अनुसार बंगलौर भी दुनिया के उन 10 चुनिंदा शहरों में है जो कारोबार शुरू करने के लिए सबसे मुआफिक हैं.
सीन ब्लाग्सवेट सात साल पहले माइक्रोसॉफ्ट रिसर्च का दफ्तर स्थापित करने के लिए सिएटल से बंगलौर पहुंचे. वो बताते हैं, “मैं मानता हूं कि बुद्धिमत्ता का स्तर पूरी दुनिया में समान होता है. अगर यहां दुनिया की कुल आबादी का छठा हिस्सा रहता है तो विश्व की दिमागी ताकत का छठा हिस्सा भी यहीं होगा.”
कुछ साल बाद उन्होंने अपने अमरीकी साथी वीर कश्यप के साथ मिल कर खुद का बिजनेस शुरू किया.
इन नए उद्यमियों के लिए भारत की गरीबी और लचर बुनियादी ढांचा जैसी समस्याएं एक चुनौती होती हैं. लेकिन अपना कारोबार शुरू करने वाले विदेशियों के लिए ये चुनौती एक अवसर भी हो सकता है, बशर्ते वो लोगों की समस्याओं को दूर करने का सही बिजनेस मॉडल विकसित कर लें.
सीन और वीर ने मिल कर ऐसी वेबसाइट तैयार की जो निम्न मध्यमवर्गीय भारतीयों को उनकी काबलियत के हिसाब से नौकरी तलाशने में मदद करती है.
"शुरू में यहां बहुत अलग और अनजाना सा महसूस होता था. हम कभी भारत नहीं आए थे, और यहां इतना आगे बढ़ पाएंगे, इसका अंदाज़ा तो बिल्कुल नहीं था. लेकिन इस उभरते देश का बाज़ार बहुत फायदेमंद निकला."
एडम साश, युवा अमरीकी उद्यमी
सीन कहते हैं कि उनकी वेबसाइट babajob.com एक उदाहरण है कि कैसे इंटरनेट और तकनीक मिल कर भारत की समाजिक समस्याओं से निपट सकते हैं.
वैसे किसी भी विदेशी के लिए भारत में बिजनेस शुरू करना अब भी खासा चुनौतीपूर्ण है. विदेशी होने के नाते आपको वीजा मंजूर कराने, बैंक खाता खुलवाने और कॉन्ट्रैक्ट साइन कराने में दोगुनी मेहनत करनी पड़ती है.

बदलता भारत

भारत कई तरह से बदल रहा है. इसी बदलाव में एडम साश को बड़ी संभावना दिखी.
एडम ने न्यूयॉर्क में एक डेटिंग वेबसाइट शुरू की. लेकिन उन्हें जल्द ही अहसास हो गया किसी और बाजार में उनकी इन सेवाओं की कहीं ज्यादा जरूरत है. और वो भारत चले आए.
वो कहते हैं, “शुरू में यहां बहुत अलग और अनजाना सा महसूस होता था. हम कभी भारत नहीं आए थे, और यहां इतना आगे बढ़ पाएंगे, इसका अंदाज़ा तो बिल्कुल नहीं था. लेकिन इस उभरते देश का बाज़ार बहुत फायदेमंद निकला.”
धीरे धीरे एडम और उनके साथियों ने देखा कि उनके ग्राहकों का सबसे बड़ा केंद्र भारत बनता जा रहा है. भारत में पारंपरिक रूप से शादी से पहले डेटिंग का चलन नहीं है, लेकिन अब शहरों में युवाओं के बीच इसका चलन बढ़ रहा है.
एडम की वेबसाइट stepout.com के इस वक्त 45 लाख रजिस्टर्ड यूजर हैं जिनमें से 95 प्रतिशत भारत से हैं.
(अगर आप ये कहानी टीवी पर देखना चाहते है तो क्लिक करें बीबीसी हिंदी का कार्यक्रम ग्लोबल इंडिया देखना न भूलें. ये कार्यक्रम ईटीवी नेटवर्क के पांच चैनलों पर शुक्रवार से रविवार तक अलग अलग समय पर आता है.)

16.11.12


मिलिए दुनिया के 'सबसे गरीब' राष्ट्रपति से

 शुक्रवार, 16 नवंबर, 2012 को 08:11 IST तक के समाचार
दुनिया के सबसे गरीब राष्ट्रपति के तौर पर जाने जाते हैं जोस मुजीका.
जोस मुजीका उरुग्वे के राष्ट्रपति हैं लेकिन उन्हें देखकर किसी को भी ये विश्वास नहीं होता. वजह साफ़ है वो एक गरीब किसान की तरह अपना जीवन जीते हैं.
एक फार्म हाउस में तीन टांग के अपने कुत्ते की रखवाली के भरोसे मुजीका अपना जीवन गुज़ार रहे हैं जो किसी भी राष्ट्रप्रमुख के लिए लगभग असंभव है.
एक पंक्ति में कहें तो, उनकी जीवन शैली कुछ इस प्रकार है, एक जीर्ण-शीर्ण फार्म हाउस में वो निहायत कम सुविधाओं के साथ रहते हैं, जहां कुएं से पानी भरा जाता है और कपड़े भी बाहर खुले में ले जाते हैं.
"मैं जरा पागल और सनकी दिखता होउंगा शायद, लेकिन ये तो अपने-अपने खयालात है"
जोस मुजीका,उरुग्वे के राष्ट्रपति
मुजीका राष्ट्रपति हैं लिहाज़ा सुरक्षा के नाम पर उन्हें दो पुलिस अधिकारी मिले हैं और निजी स्तर पर वो मनुएला नाम का एक कुत्ता अपने साथ रखते हैं.

‘मैं सनकी सही’

ऐसा नहीं है कि उरुग्वे में राष्ट्रपति को सुविधाओं के नाम पर कुछ दिया नहीं जाता बल्कि, जोस खुद अपनी मर्जी से इस तरह से रहते हैं.
उन्होंने, उरुग्वे की तरफ से दिए गए आलीशान घर को नकार कर अपनी पत्नी के छोटे से फार्म हाउस में रहना पसंद किया जो राजधानी मोनतेविडियो के पास है.
जोस अपनी पत्नी के साथ इस फार्म हाउस में रहते हैं और फूलों की खेती भी करते हैं.
वो कहते हैं, “मुमकिन है मैं पागल और सनकी दिखता हूं लेकिन ये तो अपने-अपने ख्याल हैं.”
जोस जो बोलते हैं उसे हूबहू अपनाने में विश्वास रखते हैं.
जोस, अपनी तनख्वाह का 90 फीसद दान कर देते हैं जो तकरीबन 12 हजार डॉलर के आस-पास है.

जोस की पत्नी का छोटा सा घर जहां दोनों पति-पत्नी रहते हैं.
अपने वेतन से 775 डॉलर वो उरुग्वे के गरीब और छोटे उद्दमियों को दान कर देते हैं.
फार्म हाउस में पुरानी सी कुर्सी पर बैठे जोस कहते हैं, “मेरे पास जो भी है मैं उसमें जीवन गुजार सकता हूं.”

जोस का जीवन

जोस 'क्यूबा क्रांति' से निकले हुए नेता हैं और 2009 में उरुग्वे के राष्ट्रपति चुने गए.
लेकिन 1960 और 1970 में वो उरुग्वे में गुरिल्ला संघर्ष के सबसे बड़े नेता भी हैं और उन्होंने अपने सीने पर छह बार गोलिया खाई हैं.
उन्होंने चौदह साल जेल में काटे हैं. जोस को 1985 में तब जेल से रिहा किया गया जब देश में लोकतंत्र की वापसी हुई.
"मैं सबसे गरीब राष्ट्रपति कहलाता हूं, लेकिन मैं समझता हूं कि मैं गरीब नहीं हूं. गरीब तो वो होते हैं जो अपना पूरा जीवन खर्चीली जीवशैली के लिए काम करने में बिता देते हैं और अधिक से अधिक कमाने की इच्छा रखते हैं"
जोस मुजीका, उरुग्वे के राष्ट्रपति
उनकी जिंदादिली की एक मिसाल मशहूर है. वो कहते हैं, “मैं सबसे गरीब राष्ट्रपति कहलाता हूं, लेकिन मैं समझता हूं कि मैं गरीब नहीं हूं. गरीब तो वो होते हैं जो अपना पूरा जीवन खर्चीली जीवशैली के लिए काम करने में बिता देते हैं और अधिक से अधिक कमाने की इच्छा रखते हैं.”
वो कहते हैं, ''ये पूरा मामला आजादी का है. अगर आपकी बहुत ज्यादा जरूरतें नहीं है, तो कोई मतलब नहीं है कि जीवन भर काम ही करते रहें. अगर आपके अंदर इस तरह की भूख नहीं होगी तो आपके पास वक्त ही वक्त होता है.”

आलोचना

हालांकि इन सबके बावजूद जोस की आलोचना भी जमकर होती है.
खासतौर से उरुग्वे का विपक्षी दल ये मानता है कि हालिया वर्षों में देश के आर्थिक हालात खराब हुए हैं.
जोस के विरोधी मानते हैं कि सार्वजनिक सेवा, स्वास्थ्य और शिक्षा के स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है.
गर्भपात कानून में बदलाव के लिए भी जोस की काफी निंदा हो रही है.

12.11.12



किन्हीं फ़्रेडरिक हूबलर ने अपने ब्लॉग पर इन आँकड़ो को दुनिया के नक्शे पर लगाकर दिखाया है. उनके विश्लेषण के अनुसार जिन 145 देशों के लिए आँकड़े उपलब्ध हैं उनमें वयस्क साक्षरता दर का माध्य 81.2% है. वयस्क साक्षरता दर यानी 15 साल या उससे बड़े लोगों की साक्षरता का प्रतिशत. 90% से ऊपर की दर वाले 71 देशों में से अधिकतर योरप, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया, और दक्षिण अमेरिका में हैं. जिन देशों का डाटा उपलब्ध नहीं है वहाँ भी दर 90% से अच्छी ही होने की अपेक्षा है क्योंकि उनमें से अधिकतर विकसित देश हैं. पिछड़े देशों में से लगभग सभी या तो अफ़्रीका में है या दक्षिण एशिया में.

सबसे बड़े दो देश चीन और भारत अलग-अलग तस्वीर पेश करते हैं. चीन में जहाँ 93.3% लोग पढ़-लिख सकते हैं, भारत में केवल 66%.

आँकड़े ख़ुद अपनी कहानी कहते हैं. पर इन्हें अलग नज़रियों से देखना अक्सर दिलचस्प नतीजे दे जाता है. ऊपर का विश्लेषण समस्या के भौगोलिक वर्गीकरण पर केंद्रित है. अब अगर इन्हीं आँकड़ों को भाषाई नज़रिये से देखा जाए तो देखिये क्या तस्वीर सामने आती है.

ये रहे शीर्ष 15 देश, उनका साक्षरता प्रतिशत, और उनकी आधिकारिक भाषाएँ:

एस्टोनिया - 99.8 - एस्टोनियन, वोरो
लातविया - 99.8 - लातवियन, लातगेलियन
क्यूबा - 99.8 - स्पैनिश
बेलारूस - 99.7 - बेलारूसी, रूसी
लिथुआनिया - 99.7 - लिथुआनियन
स्लोवेनिया - 99.7 - स्लोवेनियन
उक्रेन - 99.7 - उक्रेनी
कज़ाख़िस्तान - 99.6 - कज़ाख़
ताजिकिस्तान - 99.6 - ताजिक
रूस - 99.5 - रूसी
आर्मेनिया - 99.5 - आर्मेनियन
तुर्कमेनिस्तान - 99.5 - तुर्कमेन
अज़रबैजान - 99.4 - अज़रबैजानियन
पोलैंड - 99.3 - पोलिश
किरगिज़स्तान - 99.3 - किरगिज़

और अब देखिये साक्षरता दर में नीचे के 20 देश (भारत भी इनमें शामिल है):

भारत - 66 - अंग्रेज़ी, हिंदी
घाना - 65 - अंग्रेज़ी और स्थानीय भाषाएँ
गिनी बिसाउ - 64.6 - पुर्तगाली
हैती - 62.1 - फ्रांसीसी, हैती क्रिओल
यमन - 58.9 - अरबी
पापुआ न्यू गिनी - 57.8 - अंग्रेज़ी व 2 अन्य
नेपाल - 56.5 - नेपाली
मारिशियाना - 55.8 - फ्रांसीसी
मोरक्को - 55.6 - फ्रांसीसी, अरबी
भूटान - 55.6 - अंग्रेज़ी, जोंग्खा
लाइबेरिया - 55.5 - अंग्रेज़ी
पाकिस्तान - 54.9 - अंग्रेज़ी
बांग्लादेश - 53.5 - बांग्ला
मोज़ाम्बीक़ - 44.4 - पुर्तगाली
सेनेगल - 42.6 - फ्रांसीसी
बेनिन - 40.5 - फ्रांसीसी
सिएरा लियोन - 38.1 - अंग्रेज़ी
नाइजर - 30.4 - अंग्रेज़ी
बरकीना फ़ासो - 28.7 - फ्रांसीसी
माली - 23.3 - फ्रांसीसी

आपको कुछ कहते हैं ये आँकड़े?

क्या इनमें यह नहीं दिखता कि निचले अधिकतर देशों में आधिकारिक या शासन की भाषा आम लोगों द्वारा बोले जानी वाली भाषा से अलग (अक्सर औपनिवेशिक) है, जबकि सर्वाधिक साक्षर देशों में शिक्षा का माध्यम और शासन की भाषा वही है जो वहाँ के अधिकतर लोग बोलते हैं?

मैं ये नहीं कहता कि सिर्फ़ यही एक कारण होगा या इतना भी कि यही सबसे महत्वपूर्ण कारण है. ऐसा मानना एक गूढ़ समस्या का अतिसरलीकरण होगा. ऐसे कुर्सीविराजित-विश्लेषण (आर्मचेयर एनैलिसिस) में मेरा विश्वास भी नहीं है. पर क्या ये नज़रिया इतना वजनी भी नहीं है कि इस दिशा में कम से कम गंभीरता से सोचा जाए?
कृपया निम्न तथ्यों को बहुत ही ध्यान से तथा मनन करते हुए पढ़िये:-
1. 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार कुछ ही हफ्तों में कुचल कर रख देती है।
2. 1945 में ब्रिटेन विश्वयुद्ध में ‘विजयी’ देश के रुप में उभरता है।
3. ब्रिटेन न केवल इम्फाल-कोहिमा सीमा पर आजाद हिन्द फौज को पराजित करता है, बल्कि जापानी सेना को बर्मा से भी निकाल बाहर करता है।
4. इतना ही नहीं, ब्रिटेन और भी आगे बढ़कर सिंगापुर तक को वापस अपने कब्जे में लेता है।
5. जाहिर है, इतना खून-पसीना ब्रिटेन ‘भारत को आजाद करने’ के लिए तो नहीं ही बहा रहा है। अर्थात् उसका भारत से लेकर सिंगापुर तक अभी जमे रहने का इरादा है।
6. फिर 1945 से 1946 के बीच ऐसा कौन-सा चमत्कार होता है कि ब्रिटेन हड़बड़ी में भारत छोड़ने का निर्णय ले लेता है?
       हमारे शिक्षण संस्थानों में आधुनिक भारत का जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसके पन्नों में सम्भवतः इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा। हम अपनी ओर से भी इसका उत्तर जानने की कोशिश नहीं करते- क्योंकि हम बचपन से ही सुनते आये हैं- दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल। इससे आगे हम और कुछ जानना नहीं चाहते।
(प्रसंगवश- 1922 में असहयोग आन्दोलन को जारी रखने पर जो आजादी मिलती, उसका पूरा श्रेय गाँधीजी को जाता। मगरचौरी-चौरा में ‘हिंसा’ होते ही उन्होंने अपना ‘अहिंसात्मक’ आन्दोलन वापस ले लिया, जबकि उस वक्त अँग्रेज घुटने टेकने ही वाले थे! दरअसल गाँधीजी ‘सिद्धान्त’ व ‘व्यवहार’ में अन्तर नहीं रखने वाले महापुरूष हैं, इसलिए उन्होंने यह फैसला लिया। हालाँकि एक दूसरा रास्ता भी था- कि गाँधीजी ‘स्वयं अपने आप को’ इस आन्दोलन से अलग करते हुए इसकी कमान किसी और को सौंप देते। मगर यहाँ ‘अहिंसा का सिद्धान्त’ भारी पड़ जाता है- ‘देश की आजादी’ पर।) 
       यहाँ हम 1945-46 के घटनाक्रमों पर एक निगाह डालेंगे और उस ‘चमत्कार’ का पता लगायेंगे, जिसके कारण और भी सैकड़ों वर्षों तक भारत में जमे रहने की ईच्छा रखने वाले अँग्रेजों को जल्दीबाजी में फैसला बदलकर भारत से जाना पड़ा।
(प्रसंगवश- जरा अँग्रेजों द्वारा भारत में किये गये ‘निर्माणों’ पर नजर डालें- दिल्ली के ‘संसद भवन’ से लेकर अण्डमान के ‘सेल्यूलर जेल’ तक- हर निर्माण 500 से 1000 वर्षों तक कायम रहने एवं इस्तेमाल में लाये जाने के काबिल है!) 
       ***
लालकिले के कोर्ट-मार्शल के खिलाफ देश के नागरिकों ने जो उग्र प्रदर्शन किये, उससे साबित हो गया कि जनता की सहानुभूति आजाद हिन्द सैनिकों के साथ है।
इस पर भारतीय सेना के जवान दुविधा में पड़ जाते हैं।
फटी वर्दी पहने, आधा पेट भोजन किये, बुखार से तपते, बैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादूरी के साथ समाजवाद के लिए लड़ने वाले आजाद हिन्द सैनिकों को हराकर एवं बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थे, जो महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए लड़ रहे थे! अगर ये जवान सही थे, तो देश की जनता गलत है; और अगर देश की जनता सही है, तो फिर ये जवान गलत थे! दोनों ही सही नहीं हो सकते।
सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रुप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रुप में फूटकर बाहर आने लगा।
फरवरी 1946 में, जबकि लालकिले में मुकदमा चल ही रहा था, रॉयल इण्डियन नेवी की एक हड़ताल बगावत में रुपान्तरित हो जाती है।* कराची से मुम्बई तक और विशाखापत्तनम से कोलकाता तक जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया जाता है। देश भर में भारतीय जवान ब्रिटिश अधिकारियों के आदेशों को मानने से इनकार कर देते हैं। मद्रास और पुणे में तो खुली बगावत होती है। इसके बाद जबलपुर में बगावत होती है, जिसे दो हफ्तों में दबाया जा सका। 45 का कोर्ट-मार्शल करना पड़ता है।
यानि लालकिले में चल रहा आजाद हिन्द सैनिकों का कोर्ट-मार्शल देश के सभी नागरिकों को तो उद्वेलित करता ही है, सेना के भारतीय जवानों की प्रसिद्ध राजभक्ति की नींव को भी हिला कर रख देता है।
जबकि भारत में ब्रिटिश राज की रीढ़ सेना की यह राजभक्ति ही है!
***
बिल्कुल इसी चीज की कल्पना नेताजी ने की थी. जब (मार्च’44 में) वे आजाद हिन्द सेना लेकर इम्फाल-कोहिमा सीमा पर पहुँचे थे। उनका आव्हान था- जैसे ही भारत की मुक्ति सेना भारत की सीमा पर पहुँचे, देश के अन्दर भारतीय नागरिक आन्दोलित हो जायें और ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान बगावत कर दें।
इतना तो नेताजी भी जानते होंगे कि-
1. सिर्फ तीस-चालीस हजार सैनिकों की एक सेना के बल पर दिल्ली तक नहीं पहुँचा जा सकता, और
2. जापानी सेना की ‘पहली’ मंशा है- अमेरिका द्वारा बनवायी जा रही (आसाम तथा बर्मा के जंगलों से होते हुए चीन तक जानेवाली) ‘लीडो रोड’ को नष्ट करना; भारत की आजादी उसकी ‘दूसरी’ मंशा है।
ऐसे में, नेताजी को अगर भरोसा था, तो भारत के अन्दर ‘नागरिकों के आन्दोलन’ एवं ‘सैनिकों की बगावत’ पर। ...मगर दुर्भाग्य, कि उस वक्त देश में न आन्दोलन हुआ और न ही बगावत।
इसके भी कारण हैं। 
पहला कारण, सरकार ने प्रेस पर पाबन्दी लगा दी थी और यह प्रचार (प्रोपागण्डा) फैलाया था कि जापानियों ने भारत पर आक्रमण किया है। सो, सेना के ज्यादातर भारतीय जवानों की यही धारणा थी।
दूसरा कारण, फॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, अतः आम जनता के बीच इस बात का प्रचार नहीं हो सका कि इम्फाल-कोहिमा सीमा पर जापानी सैनिक नेताजी के नेतृत्व में युद्ध कर रहे हैं।
तीसरा कारण, भारतीय जवानों का मनोबल बनाये रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नामी-गिरामी भारतीयों को सेना में कमीशन देना शुरु कर दिया था। इस क्रम में महान हिन्दी लेखक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सयायन 'अज्ञेय' भी 1943 से 46 तक सेना में रहे और वे ब्रिटिश सेना की ओर से भारतीय जवानों का मनोबल बढ़ाने सीमा पर पहुँचे थे। (ऐसे और भी भारतीय रहे होंगे।)
चौथा कारण, भारत का प्रभावशाली राजनीतिक दल काँग्रेस पार्टी गाँधीजी की ‘अहिंसा’ के रास्ते आजादी पाने का हिमायती था, उसने नेताजी के समर्थन में जनता को लेकर कोई आन्दोलन शुरु नहीं किया। (ब्रिटिश सेना में बगावत की तो खैर काँग्रेस पार्टी कल्पना ही नहीं कर सकती थी!- ऐसी कल्पना नेताजी-जैसे तेजस्वी नायक के बस की बात है। ...जबकि दुनिया जानती थी कि इनभारतीय जवानों की राजभक्ति के बल पर ही अँग्रेज न केवल भारत पर, बल्कि आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं।) 
पाँचवे कारण के रुप में प्रसंगवश यह भी जान लिया जाय कि भारत के दूसरे प्रभावशाली राजनीतिक दल भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी (CPI) (FRAUD COMMUNIST PARTY)  ने ब्रिटिश सरकार का साथ देते हुए आजाद हिन्द फौज को जापान की 'कठपुतली सेना' (पपेट आर्मी) घोषित कर रखा था। नेताजी के लिए भी अशोभनीय शब्द तथा कार्टून का इस्तेमाल उन्होंने किया था
***
खैर, जो आन्दोलन एवं बगावत 1944 में नहीं हुआ, वह डेढ़-दो साल बाद होता है और लन्दन में राजमुकुट यह महसूस करता है कि भारतीय सैनिकों की जिस राजभक्ति के बल पर वे आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं, उस राजभक्ति का क्षरण शुरू हो गया है... और अब भारत से अँग्रेजों के निकल आने में ही भलाई है।
वर्ना जिस प्रकार शाही भारतीय नौसेना के सैनिकों ने बन्दरगाहों पर खड़े जहाजों में आग लगाई है, उससे तो अँग्रेजों का भारत से सकुशल निकल पाना ही एक दिन असम्भव हो जायेगा... और भारत में रह रहे सारे अँग्रेज एक दिन मौत के घाट उतार दिये जायेंगे।
लन्दन में ‘सत्ता-हस्तांतरण’ की योजना बनती है। भारत को तीन भौगोलिक तथा दो धार्मिक हिस्सों में बाँटकर इसे सदा के लिए शारीरिक-मानसिक रूप से अपाहिज बनाने की कुटिल चाल चली जाती है। और भी बहुत-सी शर्तें अँग्रेज जाते-जाते भारतीयों पर लादना चाहते हैं। (ऐसी ही एक शर्त के अनुसार रेलवे का एक कर्मचारी आज तक वेतन ले रहा है, जबकि उसका पोता पेन्शन पाता है!) इनके लिए जरूरी है कि सामने वाले पक्ष को भावनात्मक रूप से कमजोर बनाया जाय।



 
लेडी एडविना माउण्टबेटन के चरित्र को देखते हुए बर्मा के गवर्नर लॉर्ड माउण्टबेटन को भारत का अन्तिम वायसराय बनाने का निर्णय लिया जाता है- लॉर्ड वावेल के स्थान पर। एटली की यह चाल काम कर जाती है। विधुर नेहरूजी को लेडी एडविना अपने प्रेमपाश में बाँधने में सफल रहती हैं और लॉर्ड माउण्टबेटन के लिए उनसे शर्तें मनवाना आसान हो जाता है
(लेखकद्वय लैरी कॉलिन्स और डोमेनिक लेपियरे द्वारा भारत की आजादी पर रचित प्रसिद्ध पुस्तक फ्रीडम एट मिडनाईट में एटली की इस चाल को रेखांकित किया गया है।)
***
बचपन से ही हमारे दिमाग में यह धारणा बैठा दी गयी है कि ‘गाँधीजी की अहिंसात्मक नीतियों से’ हमें आजादी मिली है। इस धारणा को पोंछकर दूसरी धारणा दिमाग में बैठाना कि ‘नेताजी और आजाद हिन्द फौज की सैन्य गतिविधियों के कारण’ हमें आजादी मिली- जरा मुश्किल काम है। अतः नीचे खुद अँग्रेजों के ही नजरिये पर आधारित कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिन्हें याद रखने पर शायद नयी धारणा को दिमाग में बैठाने में मदद मिले-
***
सबसे पहले, माईकल एडवर्ड के शब्दों में ब्रिटिश राज के अन्तिम दिनों का आकलन:
भारत सरकार ने आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चलाकर भारतीय सेना के मनोबल को मजबूत बनाने की आशा की थी। इसने उल्टे अशांति पैदा कर दी- जवानों के मन में कुछ-कुछ शर्मिन्दगी पैदा होने लगी कि उन्होंने ब्रिटिश का साथ दिया। अगर बोस और उनके आदमी सही थे- जैसाकि सारे देश ने माना कि वे सही थे भी- तो भारतीय सेना के भारतीय जरूर गलत थे। भारत सरकार को धीरे-धीरे यह दीखने लगा कि ब्रिटिश राज की रीढ़- भारतीय सेना- अब भरोसे के लायक नहीं रही। सुभाष बोस का भूत, हैमलेट के पिता की तरह, लालकिले (जहाँ आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चला) के कंगूरों पर चलने-फिरने लगा, और उनकी अचानक विराट बन गयी छवि ने उन बैठकों को बुरी तरह भयाक्रान्त कर दिया, जिनसे आजादी का रास्ता प्रशस्त होना था।
***
अब देखें कि ब्रिटिश संसद में जब विपक्षी सदस्य प्रश्न पूछते हैं कि ब्रिटेन भारत को क्यों छोड़ रहा है, तब प्रधानमंत्री एटली क्या जवाब देते हैं।
प्रधानमंत्री एटली का जवाब दो विन्दुओं में आता है कि आखिर क्यों ब्रिटेन भारत को छोड़ रहा है-
1. भारतीय मर्सिनरी (पैसों के बदले काम करने वाली- पेशेवर) सेना ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति वफादार नहीं रही, और
2. इंग्लैण्ड इस स्थिति में नहीं है कि वह अपनी (खुद की) सेना को इतने बड़े पैमाने पर संगठित एवं सुसज्जित कर सके कि वह भारत पर नियंत्रण रख सके। 
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यही लॉर्ड एटली 1956 में जब भारत यात्रा पर आते हैं, तब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल निवास में दो दिनों के लिए ठहरते हैं। कोलकाता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश चीफ जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती कार्यवाहक राज्यपाल हैं। वे लिखते हैं:
... उनसे मेरी उन वास्तविक विन्दुओं पर लम्बी बातचीत होती है, जिनके चलते अँग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। मेरा उनसे सीधा प्रश्न था कि गाँधीजी का "भारत छोड़ो आन्दोलन कुछ समय पहले ही दबा दिया गया था और 1947 में ऐसी कोई मजबूर करने वाली स्थिति पैदा नहीं हुई थी, जो अँग्रेजों को जल्दीबाजी में भारत छोड़ने को विवश करे, फिर उन्हें क्यों (भारत) छोड़ना पड़ा? उत्तर में एटली कई कारण गिनाते हैं, जिनमें प्रमुख है नेताजी की सैन्य गतिविधियों के परिणामस्वरुप भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों में आया ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में क्षरण। वार्तालाप के अन्त में मैंने एटली से पूछा कि अँग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे गाँधीजी का कहाँ तक प्रभाव रहा? यह प्रश्न सुनकर एटली के होंठ हिकारत भरी मुस्कान से संकुचित हो गये जब वे धीरे से इन शब्दों को चबाते हुए बोले, न्यू-न-त-म!” ”
(श्री चक्रवर्ती ने इस बातचीत का जिक्र उस पत्र में किया है, जो उन्होंने आर.सी. मजूमदार की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑव बेंगाल’ के प्रकाशक को लिखा था।)
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निष्कर्ष के रुप में यह कहा जा सकता है कि:-
1. अँग्रेजों के भारत छोड़ने के हालाँकि कई कारण थे, मगर प्रमुख कारण यह था कि भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों के मन में ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में कमी आ गयी थी और- बिना राजभक्त भारतीय सैनिकों के- सिर्फ अँग्रेज सैनिकों के बल पर सारे भारत को नियंत्रित करना ब्रिटेन के लिए सम्भव नहीं था।
2. सैनिकों के मन में राजभक्ति में जो कमी आयी थी, उसके कारण थे- नेताजी का सैन्य अभियान, लालकिले में चला आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा और इन सैनिकों के प्रति भारतीय जनता की सहानुभूति।
3. अँग्रेजों के भारत छोड़कर जाने के पीछे गाँधीजी या काँग्रेस की अहिंसात्मक नीतियों का योगदान नहीं के बराबर रहा।

सो, अगली बार आप भी ‘दे दी हमें आजादी ...’ वाला गीत गाने से पहले जरा पुनर्विचार कर लीजियेगा।