31.8.12

आप खुद  सोचिये की जब कसाब पर रोज 3.5 लाख रुपये खर्च हो रहे है तो क्या फांसी में 50 रूपए फांसी होगी 

कसाब को फांसी देने का खर्च सिर्फ 50 रूपए!




कसाब को फांसी देने का खर्च सिर्फ 50 रूपए!
 

मुंबई : अजमल कसाब को सुरक्षित रखने के लिए महाराष्ट्र सरकार अब तक करीब पचास करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है। लेकिन यदि कसाब को फांसी पर लटकाने की बात हो तो ये काम महज 50 रुपये में ही हो जाएगा। नियम के मुताबिक किसी अपराधी को फांसी देने के लिए सरकारी बजट में इतने ही रुपए खर्च करने का प्रावधान है। यानी जिस कसाब को सेफ रखने के लिए राज्य सरकार ने 50 करोड़ रुपए खर्च कर दिए, उसी कसाब को फांसी देने में मात्र 50 रुपए ही लगेंगे।


अगर एक अपराधी को मौत की सजा सुनाई जाती है तो जेल कर्मचारियों को सबसे पहले फांसी की सजा पाने वाले व्यक्ति की गर्दन के माप और वजन को मापने के लिए कहा जाता है। अपराधी की गर्दन के सही माप और वजन के बाद एक ऐसे कोण की माप की जाती है जिसके जरिये जब उसे फांसी दी जाए तो उसके बाएं कान के नीचे के जबड़े पर दबाव बने। फांसी देने से पहले जेल अधिकारी अपराधी के वजन की कोई चीज फांसी पर लटकाकर इसका परीक्षण करते हैं।

फांसी की सजा जेल अधीक्षक द्वारा अनुमति प्राप्त लोग ही देख सकते हैं जिनकी संख्या एक दर्जन तक हो सकती हैं। अपराधी के रिश्तेदार भी चाहें तो सजा देख सकते हैं। हालांकि कसाब के मामले में ऐसा नहीं होने की संभावना है क्योंकि कसाब का कोई ज्ञात रिश्तेदार भारत में नहीं है। फांसी की तारीख तय होने के बाद फांसी देने वाली रस्सियों को मापा जाता है और इनके परीक्षण के बाद कुछ और कानूनी प्रक्रियाओं को पूरा किया जाता है।

जेल अधीक्षक कसाब को इस बात की सूचना दे सकते हैं कि उसके पास सात दिनों का वक्त है, जिसमे वह लिखित दया याचिका दायर कर सकता है। इसके पश्चात महाराष्ट्र के गवर्नर और राष्ट्रपति कोर्ट पर यह बात निर्भर करेगी कि आगे की कार्यवाई क्या हो। महाराष्ट्र में पुणे के यरवदा जेल में सुधाकर जोशी को अगस्त 1995 में एक हत्या के मामले में फांसी की सजा दी गई थी। अगर दलीलों को ठुकरा दिया जाता है तो यह सजा दी जा सकती है।

यरवदा जेल के महानिरीक्षक मीरन बोरवनकर के मुताबिक़ फांसी देने वाले जल्लाद को किसी भी अपराधी को फांसी देने के लिए अलग से कोई भी रकम नहीं दी जाती है। 96 देशों सहित भारत में भी मौत की सजा 1894 में बनाये गए क़ानून के द्वारा निष्पादित की जाती है। भारतीय संविधान के कारागार अधिनियम में समय समय पर बदलाव और संशोधन किए गए हैं जिसके द्वारा राज्य को इस बात का अधिकार है कि वह फांसी की सजा को किस तरीके से अंजाम दे। महाराष्ट्र ने इस नियम के तहत 1971 से अब तक कई कारागार कैदियों को मौत की सजा सुनाई।
 

कसाब पर रोज 3.5 लाख रुपये खर्च

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कसाब पर रोज 3.5 लाख रुपये खर्च
 

नई दिल्ली: मुंबई हमलों करवाने वाला पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब पर सरकार रोज करीब 3.5 लाख रुपये खर्च कर रही है। इसमें कसाब का खाना, सुरक्षा, वकील का खर्च शामिल हैं। इस हिसाब से पिछले 46 महीनों में कसाब पर कुल खर्च 48 करोड़ रुपये के आसपास बैठता है। हालांकि, कुछ सरकारी अधिकारियों की बातों पर भरोसा करें तो यह रकम 65 करोड़ रुपये के आसपास है। गौरतलब है कि बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस चंद्रमौलि कुमार प्रसाद की बेंच ने कसाब की मौत की सजा को सही ठहराया था।

कॉन्स्टेबल तुकाराम ओंबले की बहादुरी के चलते 27 नवंबर 2008 को एक मात्र जिंदा पकड़ा गया आतंकवादी अजमल कसाब देश पर एक आर्थिक बोझ की तरह है। कसाब के लजीज भोजन के साथ उसकी सुरक्षा और मुकदमे की सुनवाई पर होने वाला खर्च रोज लाखों में बैठ रहा है। ऑर्थर रोड जेल में कसाब को जिस बैरक में रखा गया है उसके बुलेटप्रूफ पर 5.25 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। 1.5 करोड़ रुपये तो सिर्फ कसाब की गाडिय़ों पर खर्च हुए हैं। 11 करोड़ रुपये आईटीबीपी की सुरक्षा पर खर्च है।

इसके अलावा और भी कई तरह के खर्च कसाब के ऊपर हैं। इन खर्चों को मिला दें तो यह रोज का करीब 3.5 लाख रुपये है। 46 महीनों में यह रकम करीब 48 करोड़ रुपये के आसपास बैठता है। गौरतलब है कि पिछले साल विधानसभा में महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर.आर.पाटिल ने करीब 20 करोड़ रुपये खर्च होने की बात कही थी। हालांकि, सरकारी सूत्रों पर भरोसा किया जाए तो कसाब पर कुल खर्च 65 करोड़ रुपये बैठता है। सरकार की धीमी न्यायिक प्रक्रिया को देखकर ऐसा लग रहा है कि कसाब के फांसी पर चढऩे तक यह 100 करोड़ को पार कर सकता है।

कारगिल युद्ध के बारह साल




करगिल और एलओसी के आसपास का इलाक़ा लद्दा़ख के ठंडे रेगिस्तान का एक हिस्सा है. सर्दियों में भारी ब़र्फबारी की वजह से रास्ता बाधित हो जाता है. 18000 फीट ऊंची पहा़िडयों पर -60 डिग्री का तापमान और ठंडी तेज़ हवाएं सांस लेना मुश्किल कर देती हैं. 1977 के भारत-पाक समझौते के तहत दोनों देशों की सेना 15 सितंबर से लेकर 15 अप्रैल तक इन इलाक़ों की किसी भी पोस्ट पर तैनात नहीं रहेगी, लेकिन पाक सेना ने इस क़रार को ताक़ पर रखकर 1999 में इसी दौरान घुसपैठ की. पाक की रणनीत यह थी कि वर्फ पिघलने से पहले इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया जाए क्योंकि इस दौरान सेना का श्रीनगर से इधर कूच करना संभव नहीं हो पाएगा. यह रणनीति कामयाब हो जाती तो पाकिस्तान सेना का कई महत्वपूर्ण चोटियों पर क़ब्ज़ा हो जाता, जहां से श्रीनगर-लेह राष्ट्रीय राजमार्ग-1ए का रास्ता कई जगह से बंद किया जा सकता था और भारतीय सेना के कई दस्तों को इस सीमा में लेकर बंधक बनाया जा सकता था. पाकिस्तान का क़ब्ज़ा एलओसी के महत्वपूर्ण इलाक़ों पर हो जाता, जहां से इस्लामाबाद को और भी मज़बूत बनाया जा सकता था. इससे भारतीय कश्मीर का एक ब़डा हिस्सा पाकिस्तान के क़ब्ज़े में जाता. इसके अलावा उनकी मंशा परमाणु शक्ति का डर दिखाना भी थी.

1998 से पाक आक्रमण की तैयारी में
पाकिस्तान 1998 से ही आक्रमण की तैयारी कर रहा था, लेकिन उसने अपने मिशन को गुप्त रखने के लिए एलओसी के आसपास अपनी सैन्य टुकड़ियों की संख्या नहीं बढ़ाई, ताकि भारतीय गुप्तचर संस्थाएं अंधेरे में रहें. वर्ष 1998 में जुलाई से सितंबर तक एफसीएनए (फोर्स नॉदर्न एरिया कमांड) में भेजे गए आर्टिलरी फोर्सेस को लौटाया नहीं जा रहा था और सितंबर के बाद भी धीरे-धीरे इसे सीमा तक भेजा जा रहा था. पाक सेना ने रिजर्व बलों को एफसीएनए में लाना तब शुरू किया, जब भारतीय सेना ने जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी थी. पाक ने युद्व के दौरान कोई नई प्रशासकीय नियुक्तियां नहीं की थीं, स़िर्फ सेना के दूसरे दलों से सैनिकों को बुलाया था. पाक सेना का प्लान तय होने के बाद अप्रैल, 1999 के अंत से ही कार्य करने लगा था. मुख्य दलों को तो़डकर 30-40 लोगों की कई पलटनें बनाई गईं, जो घुसपैठिए बनकर भारतीय चौकियों पर क़ब्ज़ा करने लगीं.
भारतीय सेना सतर्क हुई
वक़्त से पहले ही ब़र्फ पिघलने की वजह से जोजी-ला को खोल दिया गया. भारतीय सेना ने 3-12 मई के बीच घुसपैठियों के इलाक़े में प्रवेश की पुष्टि कर ली और 8-15 मई, 1999 के बीच इलाक़े में भारतीय सेना की पेट्रोलिंग के दौरान पता चला कि भारी संख्या में पाक घुसपैठिए भारतीय सीमा में प्रवेश कर चुके हैं. भारतीय सेना हरकत में आई, जिसकी उम्मीद पाकिस्तान को नहीं थी. बटालिक और द्रास इलाक़ों में घुसपैठ का तरीक़ा देखकर आसानी से पता चल गया कि ये मामूली घुसपैठिए नहीं, बल्कि पाक सेना और मुजाहिदीन द्वारा प्रशिक्षित लोग हैं.
ऑपरेशन द्रास
भारतीय सेना ने एक ऑपरेशन के तहत द्रास के घुसपैठियों का ़खात्मा किया और बचे हुए घुसपैठियों को बटालिक सेक्टर में खदे़डा. पहा़िडयों पर क़ब्ज़ा करने वाले पाकिस्तान सेना के नॉर्दन लाइट इंफेंट्री की 3,4,5,6 और 12वीं बटालियन के सैनिक थे. इनमें मुजाहिदीन और पाक स्पेशल सर्विसेज ग्रुप यानी एसएसजी के सदस्य थे. 160 वर्ग फीट के एरिया में चोटियों पर क़ब्ज़ा जमाने वाले घुसपैठियों की संख्या का अनुमान शुरू में तक़रीबन 500 से 1000 लगाया गया, जबकि बाद में पता चला कि इनकी संख्या 5000 थी.
ऑपरेशन विजय
घुसपैठियों ने एलओसी के आसपास ऐसी चोटियों पर धाक जमाई थी, जहां से इन्हें पीओके से आसानी से युद्ध सामग्री की सप्लाई हो सके. इनके पास एके-47 एके-56 के अलावा मोर्टार्स, एंटी एयररक्राफ्ट बंदूक़ें और स्टिंगर मिसाइलें भारी मात्रा में मौजूद थीं. 15-25 मई के बीच मिलिट्री प्लानिंग हुई. 26 मई, 1999 में ऑपरेशन विजय लांच किया गया. लड़ाकू विमानों और हेलिकॉप्टरों द्वारा कवर सुरक्षा के साथ भारतीय सैन्य टुक़िडयां पाकिस्तानी सेना द्वारा क़ब्ज़ा किए गए स्थानों पर भेजी गईं.
गैलेंट्री अवार्ड से सम्मानित
लेफ्टिनेंट मनोज पांडे: परमवीर चक्र
कै प्टन विक्रम बत्रा: परमवीर चक्र
कैप्टन अनुज नायरमहावीर चक्र
मेजर सर्वाननवीरचक्र
ग्रनेडियर योगेंद्र यादव: परमवीर चक्र
स्न्वाड्रन लीडर अजय आहुजा: वीर चक्र
राइफलमैन संजय कुमार: परमवीर चक्र
मेजर राजेश अधिकारी: महावीर चक्र
टाइगर हिल पर तिरंगा
13 मई, 1999 को ही द्रास क्षेत्र के तोलोलिंग कॉम्प्लेक्स को घुसपैठियों से आज़ाद कराने में भारतीय सेना को यह समझ में आ गया कि अब आगे की ल़डाई के लिए भारी तोप और गोलों का इस्तेमाल करना होगा, क्योंकि पाक सेना ऊंचाई पर है. तब विवादित बोफोर्स तोप, ग्रैड रॉकेट और 105 एमएम देशी फील्ड बंद़ूकों का इस्तेमाल हुआ. तोलोलिंग कॉम्प्लेक्स पर जीत ने टाइगर हिल्स की तऱफ ब़ढने की हिम्मत दी और कई दिशाओं से भारतीय सेना ने इसे घेरा. पाकिस्तानी आर्टिलरी ऑब्जर्वेशन पोस्टस यानी पाकिस्तानी तोप प्रेक्षण चौकियों से घिरे होने के बावजूद भरतीय सेना ने नीचे से 122 एमएम ग्रैड मल्टी बैरल रॉकेट लांचर्स का इस्तेमाल कर ऊपर की तऱफ सीधे फायरिंग की. टाइगर हिल पर भारतीय सेना ने 5 जुलाई, 1999 को तिरंगा फहराया. इसमें दोनों तऱफ के का़फी सैनिक मारे गए और खूब तबाही हुई.
मशकोह बना गन हिल
टाइगर हिल के बाद से पश्चिम की तऱफ मशकोह हिल को 7 जुलाई को जीत लिया गया, जिसे तब से गन हिल कहा जाता है. द्रास और मशकोह क्षेत्र की चोटियों पर जीत के बाद सेना ने बटालिक क्षेत्र की तऱफ कूच की. यहां पहा़िडयों पर च़ढाई ज़्यादा कठिन थी. सेना को इन पहा़िडयों पर क़ब्ज़ा करने में एक महीना लग गया. ऊंची पहा़िडयों पर तोप प्रेक्षण चौकियां लगाई गईं और लगातार गोले और बम बरसाए गए, जिससे  ढालो और टाइगर हिल के आसपास पर पाक सेना के तक़रीबन 180 लोग घायल हुए और कई बंकर नष्ट हो गए.
सेना की चतुराई
घाटी और पहाड़ियों पर पाकिस्तानी सेना का ध्यान हटाने के लिए हेलिकॉप्टर गनशिप का इस्तेमाल हुआ, जिससे भारतीय सेना को तोलोलिंग सेक्टर के प्वाइंट 5140 पर क़ब्ज़ा करने में का़फी मदद मिली. हालांकि इसी प्रक्रिया में एक हेलिकॉप्टर खो गया था, जो का़फी क्षति के बावजूद वापस लौट आया.
वायुसेना का इस्तेमाल
कारगिल युद्ध में वायुसेना ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वायुसेना के लिए सबसे ब़डी चुनौती थी एलओसी पार नहीं करने का निर्देश. मगर वायु विमानों ने भारत अधिकृत एलओसी क्षेत्र पर पाक सैन्य संचालन केंद्रों की स्थिति पता की और मिराज 2000एस और जगुआर हथियारों से इन्हें नष्ट किया गया. इस युद्ध में वायुसेना ने समुद्र तट से 30000 फीट से लेकर 10000 फीट की ऊंचाई से बम गिराए, जिससे तक़रीबन 700 घुसपैठिए मारे गए. इसमें तक़रीबन 250,000 गोले, बम और रॉकेट दाग़े गए. प्रतिदिन तक़रीबन 50000 तोप के गोले, मोर्टर बम और रॉकेट 300 बंदूक़, मोर्टर और एमबीआरएस द्वारा छो़डे गए थे. इतनी भारी मात्रा में बम, गोलों का इस्तेमाल दूसरे विश्व युद्ध के बाद का पहली बार इसी युद्ध में हुआ था.
जलसेना का इस्तेमाल
युद्ध में जल सेना ने भी अहम भूमिका निभाई. दरअसल, 20 मई से ही जल सेना सतर्क थी, नौसेना औरकोस्टगार्ड के विमान चौबीसों घंटे सर्विलांस पर लगाए गए थे जिससे पाकिस्तान पर दबाव बनाया जा सके. भारतीय नौसेना की हरकत की वजह से पाकिस्तान का ध्यान गल्फ से उसके तेल व्यापार को प्रभावित होने की तऱफ लग गया. भारत की तऱफ से आक्रमण की आशंका में पाकिस्तान ने रैपिड एक्शन मिसाइलों को नॉर्थ अरेबियन सी की तऱफ भेज दिया. एक ओर कारगिल में भारतीय सेना पाक के खिलाफ कार्रवाई त़ेज कर रही थी, तो दूसरी ओर वह पाक पोतोंे को ब्लॉक करने की तैयारी कर चुकी थी और अंडमान एवं निकोबार आयलैंड से सेना को पश्चिमी सी बोर्ड में बुलाकर स्वयं को भी मज़बूत कर रही थी. जलसेना के इस कार्य को ऑपरेशन तलवार नाम दिया गया था. युद्ध के बाद नवाज़ शरी़फ ने माना कि इस वक़्त यदि नौसैनिक युद्ध हो जाता तो पाकिस्तान के पास केवल छह दिनों तक युद्ध में सरवाइव करने लायक़ ईंधन बचा था.
शर्मनाक घोटाले
कारगिल युद्ध के बाद कई घोटाले सामने आए. इनकी वजह से जहां सैनिकों के मनोबल पर असर प़डा, वहीं देश को भी शर्मसार होना प़डा.
ताबूत घोटाला वर्ष 1999-2000 के दौरान भारत के रक्षा मंत्रालय ने ज़्यादा क़ीमत पर एक अमेरिकी कंपनी से 500 ताबूत और शव सुरक्षित रखने वाले 3000 थैले ख़रीदे थे. इससे सरकार को क़रीब एक लाख 87 हज़ार अमेरिकी डॉलर का घाटा हुआ.
पेट्रोल पंप घोटाला करगिल युद्ध में शहीद हुए जवानों के परिवारों को आर्थिक मदद के तौर पर पेट्रोल पंप, कुकिंग गैस और कैरोसीन एजेंसी देने का सरकार ने वायदा किया, लेकिन इसे पूरा नहीं किया गया. 2002 में उजागर हुए पेट्रोल पंप घोटाले की जांच में सुप्रीम कोर्ट की तऱफ से गठित दो रिटायर्ड जजों की कमेटी ने 409 विवादास्पद मामलों की जांच के बाद पाया है कि पेट्रोल पंप और गैस-कैरोसीन डीलरशिप के 297 आवंटन रद्द कर दिए जाने चाहिए.
आदर्श हाउसिंग घोटाला करगिल युद्ध में शहीदों की विधवाओं के  नाम पर मुंबई के कोलाबा के पॉश इला़के में आदर्श हाउसिंग सोसाइटी का निर्माण किया गया था. लेकिन ये फ्लैट ब़डे सैन्य अ़फसरों और नेताओं ने अपने परिजनों को दे दिए गए जिसकी जांच सीबीआई कर रही है.
अ़फसरों से जु़डे विवाद
युद्ध के बाद सैन्य अ़फसरों के भी कई विवाद सामने आए.
  1. सबसे पहले घुसपैठ की खबर देने वाले ब्रिगेडियर देविंदर सिंह ने आरोप लगाया कि लेफ्टिनेंट जनरल ने उनके बेहतरीन प्रदर्शन के बाद भी उनके ब्रिगेडियर से मेजर जनरल पद पर प्रमोशन के लिए स़िफारिश नहीं की जिसके कारण सेना पदक नहीं मिला. सिंह की शिकायत पर हुई जांच के बाद ट्रिब्यूनल ने सेना के वरिष्ठ अ़फसरों के खुफिया फैसला दिया और सेना को आदेश दिया है कि वह रिपोर्ट के उस हिस्से को हटाए, जिसमें लिखा है कि ब्रिगेडियर सिंह का प्रदर्शन बेहतर नहीं था.
  2. मेजर पंकज कंवर ने कभी मेजर इक़बाल बनकर तो कभी मेजर हसन बनकर पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों के बारे में पता लगाया था. पंकज कंवर को मई, 1999 में मिलिट्री इंटेलिजेंस (पाकिस्तान डेस्क) में एमआई25 के प्रमुख ब्रिगेडियर राकेश गोयल ने पाकिस्तानी यूनिटों में फोन कर जानकारी निकालने के लिए कहा था. मगर युद्ध के बाद ऑपरेशन डायल हार्ड में कंवर के काम का उल्लेख नहीं किया गया, क्योंकि ब़डे अ़फसरों के अनुसार, इससे एमआई25 और युद्ध क्षेत्र के इर्द-गिर्द तैनात खुफिया यूनिटों की तैयारियों पर ग़लत प्रभाव पड़ सकता था. पंकज की शिकायत पर मूल्यांकन के लिए विशेषज्ञों की कमी बताकर आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल ने भी मामला देखने से इनकार कर दिया. तब कंवर ने 12 जून, 2011 को तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह को शिकायती पत्र भेजा.
करगिल युद्ध के बाद दोनों देशों की स्थिति
  • घुसपैठ की जांच के लिए तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने प्रमुख सैन्य रणनीतिकार के  सुब्रह्मणयम की अध्यक्षता में समिति बनाई, जिसने अपनी रिपोर्ट में खुफिया तंत्र को मज़बूत बनाने और सैन्य साजो-सामान की खरीद प्रक्रिया में सुधार आदि स़िफारिशें कीं, लेकिन बाद में तमाम कारणों से इस समिति की रिपोर्ट ही विवादों में उलझ गई.
  • तत्कालीन एनडीए सरकार पर फैसले लेने में देरी करने का आरोप लगे. इसके बावजूद 13वीं लोकसभा के  चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार स्पष्ट बहुमत के साथ केंद्र में आई.
  • इस युद्ध में अमेरिका और चीन ने भी पाकिस्तान के पक्ष में कोई वक्तव्य जारी नहीं किया. इन देशों ने पाक की भर्त्सना ही की.