31.1.13

देस में अपनी ज़मीन के लिए लड़ते परदेसी

 गुरुवार, 31 जनवरी, 2013 को 14:56 IST तक के समाचार

पंजाब में ज़मीन को लेकर विवाद
पंजाब की ज़मीन बहुत उपजाऊ है, लेकिन बढ़ते शहरीकरण के कारण ज़मीनों के दाम बढ़ रहे हैं
भारत में हाल के वर्षों में ज़मीन के दामों में जबरदस्त इजाफा हुआ है. ऐसे में भारतीय मूल के उन लोगों की तादाद बढ़ रही है जो विरासत में मिली ज़मीन से पैसा बनाने के लिए ब्रिटेन से भारत का रुख कर रहे हैं.
लेकिन भारत पहुंचने पर ज्यादातर लोगों को पता चलता है कि या तो वो ज़मीन बेच दी गई है या दूसरे लोगों ने उसे हथिया लिया है. कई मामलों में ज़मीन कानूनी दांव पेंच में फंसी मिलती है.
ब्रिटेन के वोल्वरहैंप्टन में रहने वाले इकबाल सिह फाइलों का एक पुलिंदा दिखाते हैं जो भारत में उनके पिता की ज़मीन को लेकर 16 वर्षों से चल रही कानूनी लड़ाई का नतीजा है.
सिंह के पिता 1960 के दशक में भारत से जाकर ब्रिटेन में बसने वाले उन पहली पीढ़ी के लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने एक नए मुल्क में मेहनत से अपनी तकदीर बनाई.

हाथों से निकलती ज़मीन

इकबाल सिंह बताते हैं, “हम बहुत गरीब थे. हमारे पास टीवी भी नहीं था.”
इकबाल सिंह के पिता ने ब्रिटेन में की गई अपनी गाढ़ी कमाई से भारत में ज़मीन खरीदी क्योंकि उनकी आंखों में एक दिन वापस लौट जाने का सपना पलता था.
"जब मेरे पिता दम तोड़ रहे थे तो मैंने उनसे वादा किया था कि ज़मीन को वापस लेकर रहूंगा और मैं अपने वादे नहीं तोड़ता हूं."
इकबाल सिंह, एनआरआई
उन्होंने किसी जमाने में लगभग 25 लाख रुपयों में 20 एकड़ ज़मीन खरीदी थी जिसकी कीमत आज इससे दस गुना है. उन्होंने भारत में अपनी इस ज़मीन की देखरेख का काम अपने एक रिश्तेदार को सौंपा था.
लेकिन इकबाल सिंह बताते हैं, “मेरे पिता एक बार खेत देखने गए तो पता चला कि उस पर तो कोई और मालिक होने का दावा कर रहा है.”
इकबाल के परिवार ने 1996 में अपनी ज़मीन को उसके नए मालिकों से हासिल करने के लिए कानूनी कार्रवाई शुरू की. हालांकि नए मालिकों का कहना है कि उन्होंने तो पूरी ईमानदारी से पैसे देकर ज़मीन ली है.
इसके बाद न जाने कितनी बार अदालत की सुनवाई हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
ये कहानी झूठ, धोखे और विश्वासघात की है और ये इस तरह का इलकौता मामला नहीं है.

कानूनी दांव पेंच

लंदन में 'लिटिल पंजाब' कहे जाने वाले साउथहॉल के इलाके में अपना दफ्तर चलाने वाले वकील हरजाप सिंह भंगल के पास इस तरह के बहुत सारे मामले हैं.
वो बताते हैं, “ये बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि ब्रिटेन में रह रहे पंजाबी अपने पूर्वजों की ज़मीन प्राप्त करना चाहते हैं.”
पंजाब में ज़मीन को लेकर विवाद
ज़मीन से जुड़े मामले अदालत में वर्षों तक चलते है और फिर भी नतीजा नहीं निकलता है
वो बताते हैं कि भारत में बहुत से मामलों में रिश्तेदार ज़मीन देना नहीं चाहते क्योंकि उन्होंने ही इन लोगों को परदेस भेजा और नई जिंदगी शुरू करने में मदद की.
पिछले एक दशक में पंजाब में तेजी से शहरीकरण हुआ है और ज़मीन के दाम आसमान को छू रहे हैं.
जालंधर में काम करने वाले प्रॉपर्टी डीलर जग चीमा का भारत के साथ साथ ब्रिटेन में भी दफ्तर है.
वो बताते हैं कि जालंधर में अच्छी लॉकेशन पर दो एकड़ के एक प्लॉट की कीमत दस लाख पाउंड यानी साढ़े आठ करोड़ रुपये के आसपास है. ऐसे प्लॉट्स पर दुकानें और अपार्टमेंट्स बनाए जा रहे हैं.
चीमा बताते हैं कि जब ज़मीन के दाम हवा से बात कर रहे हों तो ब्रिटेन में बसे भारतीय मूल के लोग भला अपना हक कैसे भूल सकते हैं.
भारतीय अदालतों में किसी मामले के निपटारे में 25 से 30 साल भी लग जाते हैं और इस पर बड़ी रकम खर्च होती है.
ऐसे में दोनों पक्ष एक दूसरे पर डराने और धमकाने के आरोप भी लगाते हैं.
पंजाब पुलिस का कहना है कि हर साल इस तरह के दो से ढाई हजार मामले दर्ज होते हैं जिनमें से ज्यादातर अदालत तक पहुंचते हैं.

पिता से किया वादा

इस बीच ज़मीन से जुड़े विवादों से फायदे उठाने वाले गिरोह भी पैदा हो गए हैं जो बेहद सस्ते दामों पर तुरत फुरत में ये ज़मीन खरीद रहे हैं.
पुलिस का कहना है कि उन्हें इस बारे में जानकारी है.
"जब ज़मीन के दाम हवा से बात कर रहे हों तो ब्रिटेन में बसे भारतीय मूल के लोग भला अपना हक कैसे भूल सकते हैं."
जग चीमा, प्रॉपर्टी डीलर
पंजाब पुलिस में प्रवासी मामलों की जिम्मेदारी संभाल रहे पुलिस महानिरीक्षक कहते हैं, “हमने इस तरह के कई संगठित गिरोह देखे हैं जिनमें प्रॉपर्टी डीलर, संभवतः कुछ सरकारी राजस्व कर्मचारी और कुछ पुलिस कर्मचारी भी शामिल हो सकते हैं.”
इस महीने पंजाब में राज्य सरकार की तरफ से कराए गए एनआरआई सम्मेलन में भी इस मामले पर चर्चा की गई थी. ऐसे मामलों में शिकायत के लिए एक वेबसाइट बनाई गई है और ऐसे मुकदमों के निपटारे के लिए फास्ट ट्रैक अदालतें बनाने की बात भी हो रही है.
लेकिन इकबाल सिंह इन कदमों से ज्यादा उत्साहित नहीं हैं. वकीलों का कहना है कि उनके मामले को हाई कोर्ट तक पहुंचने में ही दस साल लग सकते हैं. लेकिन वो इस बात के लिए प्रतिबद्ध हैं कि अपने पिता की गाढ़ी कमाई से खरीदी गई ज़मीन को वापस लेकर ही रहेंगे.
वो बताते हैं, “जब मेरे पिता दम तोड़ रहे थे तो मैंने उनसे वादा किया था कि ज़मीन को वापस लेकर रहूंगा और मैं अपने वादे नहीं तोड़ता हूं.”

PICS: औरतों को सेक्शुअल पोजिशन में पका कर खाने का शौकीन था पुलिसवाला

PICS: औरतों को सेक्शुअल पोजिशन में पका कर खाने का शौकीन था पुलिसवाला
न्यूयॉर्क के एक पुलिस ऑफिसर “गिलबेर्टो वैले” को पिछले साल अक्टूबर में अपराधी मानते हुए गिरफ्तार किया गया था। उनपर महिला का किडनैप, रेप करने और फिर पका कर खाने का आरोप है।
 
वकील जूरी सदस्यों को कुछ ऐसी तस्वीरें दिखाना चाहते हैं जिनमें महिलाओं को पकाते हुए और खाने वाली चीज की तरह दिखाया गया है। ये तस्वीरें अपराधी ‘नरभक्षी पुलिस’ “गिलबेर्टो वैले” के केस में उचित फैसला मिलने के लिए पेश की जा रही हैं।
 
‘एटोर्नी जूलिया एल गैटो’ ने कहा कि वह कुछ फोटो दिखाना चाहती हैं जिसमें कि औरतों को सेक्शुअल पोजिशन में उन्हें पकाते हुए और खाने वाली चीज की तरह दिखाया गया है।
 
जब वह बच्चे थे तभी से उनका महिलाओं को बांधने और खाने का यह पागलपन शुरू हो गया था जब उन्होंने कैमरॉन डियाज को 1994 में आई एक फिल्म ‘द मास्क’ में बंधे हुए देखा था।

मूलनिवासी नायक डेली न्यूज़ पेपर - Dilip verma










30.1.13

जाति न पूछो भ्रष्टाचार की

जाति न पूछो भ्रष्टाचार की
मशहूर समाजशास्त्री आशीष नंदी ने एक नई बात कही है। उनके कहे का अर्थ है कि सरकार और राजनीति को भ्रष्टाचार से मुक्त रखना है तो पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को इससे दूर रखो। अपनी बात के समर्थन में वह पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार का उदाहरण देते हैं, जिसने इन वर्गो को सत्ता से हमेशा दूर रखा। अगले ही पल आशीष नंदी कहते हैं कि भ्रष्टाचार अच्छा है, क्योंकि यह समाज के विभिन्न वर्गो में न केवल बराबरी लाता है, बल्कि सामाजिक समरसता को बनाए रखने में भी सहायक है। उन्हें दाऊद इब्राहिम का गैंग पंथनिरपेक्ष नजर आता है क्योंकि उसमें हिंदू भी हैं। समाजशास्त्री होते हुए भी अपनी बात के समर्थन में वह कोई प्रमाण या अध्ययन पेश नहीं करते। क्या आशीष नंदी जो कह रहे हैं उस पर यकीन करना चाहिए? क्या उनका विरोध होना चाहिए? क्या इसके लिए उन पर मुकदमा चलना चाहिए?
आशीष नंदी इन वर्गो के विरोधी नहीं रहे हैं इसलिए उनकी बात पर विचार करते समय इस संदर्भ को याद रखना जरूरी है। उन्होंने अपने स्पष्टीकरण में कहा है कि उनका इरादा किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं था। अगर अनजाने में उनके बयान से ऐसा हुआ है तो उन्हें इसका खेद है। भावनाओं को आहत तो उन्होंने किया है। उनके वक्तव्य से एक मोटी बात निकल कर आई है कि पिछड़े, दलित और आदिवासी भ्रष्ट हैं और सवर्ण जातियों के लोग ईमानदार। अपनी सफाई में उन्होंने कहा कि उनके कहने का अर्थ यह था कि समाज का ऊपरी तबका अपने भ्रष्टाचार को छिपाना जानता है इसलिए पकड़ा नहीं जाता। वास्तविक स्थिति का यह अति सरलीकरण है। उनकी बात में देश के युवाओं को सच्चाई नजर आ सकती है क्योंकि इस वर्ग ने सवर्ण जातियों के राजपाट को एक हद तक जाते हुए और पिछड़ों, दलितों व आदिवासियों के राजनीतिक सशक्तीकरण का दौर देखा है। इस आयु वर्ग के लोगों ने मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, मायावती और मधु कोड़ा को सत्ता में आते और भ्रष्टाचार के आरोप लगते देखा है। सत्ता भ्रष्टाचार सिखाती है, जाति नहीं। भ्रष्टाचार से कमाए पैसे छिपाने के गुर जाति विशेष में पैदा होने से नहीं आते। यह कला लगातार लंबे समय तक सत्ता में रहने से आती है। इस वर्ग के लोगों का भ्रष्टाचार केवल इसलिए उजागर नहीं हो जाता, क्योंकि वे वंचित जातियों के हैं। इस वर्ग के लोगों के मन में अभी तक यह भरोसा नहीं बन पाया है कि वे लंबे समय तक सत्ता में बने रहेंगे। सबसे च्यादा अनिश्चित कार्यकाल मधु कोड़ा का था इसलिए उन्होंने सबसे कम समय में सबसे च्यादा पैसा कमाया। भ्रष्टाचार के इस खेल से सवर्ण बाहर हो गए हों ऐसा भी नहीं है। जिन नेताओं का नाम आशीष नंदी ने लिया है उन सबके वित्तीय प्रबंधकों के नाम पर गौर करें तो सब सवर्ण जातियों के हैं। मधु कोड़ा के भी, जिसके भ्रष्टाचार की उपलब्धियों का जिक्र करते समय नंदी साहब लगभग गौरव का अनुभव कर रहे थे।
पश्चिम बंगाल का उदाहरण देकर आशीष नंदी ने भ्रष्टाचार को सीधे जाति से जोड़ने का जो प्रयास किया उसका कोई अनुभवसिद्ध आधार नहीं है। भ्रष्टाचार मनुष्य की एक स्वाभाविक वृत्ति- लालच का नतीजा है। आशीष नंदी को भ्रष्टाचार के कीचड़ में कमल दिख रहा है। उन्हें लग रहा है जो काम सामाजिक सुधार के तमाम आंदोलन, शिक्षा, सरकारी कार्यक्रम और सशक्तीकरण के उपाय नहीं कर पाए वह भ्रष्टाचार ने कर दिखाया। इसलिए भ्रष्टाचार को वह जरूरी मानते हैं। भ्रष्टाचार से अगर सामाजिक विषमता की समस्या खत्म होती तो दुनिया के बहुत से देशों में सामाजिक विषमता न होती। क्या भ्रष्टाचार का ऐसा महिमामंडन वंचित जातियों का भला कर पाएगा? आशीष नंदी की नजर में चार व्यवसायों- राजनीति, मनोरंजन उद्योग, अपराध और खेल में जाति-धर्म के भेद के बिना व्यक्ति की प्रतिभा को विकसित होने का अवसर मिलता है। उनकी नजर उन करोड़ों वंचितों पर नहीं है, जो भ्रष्टाचार की मार झेल रहे हैं। केंद्र और राच्य सरकारों की इन तबकों के लिए चलने वाली योजनाओं का च्यादातर पैसा उसी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है जिसे वे समतामूलक बता रहे हैं।
आशीष नंदी के बयान पर जो और जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं वे एक दूसरे संकट की ओर इशारा करती हैं। अभिव्यक्ति की आजादी सचमुच खतरे में है। राजस्थान पुलिस की कार्रवाई, राच्य के मुख्यमंत्री और अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष का बयान इसकी पुष्टि करता है। आशीष नंदी के बयान का आप विरोध कर सकते हैं, आलोचना कर सकते हैं, निंदा कर सकते हैं, लेकिन उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करना संविधान से मिले अभिव्यक्ति के अधिकार पर सीधा हमला है। नेताओं को इसमें विभाजनकारी राजनीति का एक और अवसर नजर आ रहा है। रामविलास पासवान जैसे चुके हुए नेता राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत उनकी गिरफ्तारी की मांग कर रहे हैं। केंद्र सरकार खामोश है।
विरोधी विचारों के प्रति बढ़ती असहिष्णुता जनतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। कमल हासन जैसे नास्तिक फिल्म कलाकार को भी धर्म के चश्मे से देखने की कोशिश हो रही है। सरकारें ऐसे मसलों में कोई फैसला लेने का साहस नहीं दिखातीं। उन्हें लगता है कि अदालत में फैसला हो तो बेहतर। कमल हासन देश छोड़ने के विकल्प पर भी विचार कर रहे हैं। यह सत्ता प्रतिष्ठान और एक उदारवादी समाज के रूप में हमारे लिए चुनौती और शर्म दोनों की बात है। अपने विरोधी विचारों को अभिव्यक्ति का मौका देने से जनतंत्र मजबूत होता है, कमजोर नहीं। यह बात विभाजन की राजनीति की खेती करने वालों को समझ में नहीं आती। यहीं समाज और सरकार की जिम्मेदारी का सवाल आता है। उन्हें ऐसे लोगों के बचाव में आना चाहिए। पर सरकार तो खिलाफ खड़ी है।
निराशा के इस माहौल में आशा की किरण की तरह आया है दलित चिंतक कांचा इलैया का बयान। कांचा इलैया ने अपने समाज के राजनेताओं के ठीक विपरीत रुख अपनाया। उन्होंने कहा कि आशीष नंदी ने भावनाओं को ठेस तो पहुंचाई है पर दलित समाज का बुद्धिजीवी इतना सक्षम है कि वैचारिक हमले का जवाब विचार से दे सकता है। यह बयान दलित समाज की बौद्धिक ताकत का ही नहीं अपनी क्षमता के प्रति आत्मविश्वास का भी प्रतीक है। कांचा इलैया के समाज पर हमला हुआ है। वह पीड़ित हैं पर उनका जवाब फौरी आवेश का शिकार नहीं हुआ। वह विचार का जवाब विचार से ही देना चाहते हैं। इस पूरे विवाद का यह सकारात्मक पहलू है।
[लेखक प्रदीप सिंह, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

असहिष्णुता की शुरूआत अयोध्या आंदोलन से

 बुधवार, 30 जनवरी, 2013 को 18:16 IST तक के समाचार

रामायण
दिल्ली विश्वविद्यालय में रामायण पर लिखे गए लेख को लेकर लंबा विवाद चला.
भारत में तीव्र असहिष्णुता की जो भावना इस समय नजर आती है उसकी शुरूआत अयोध्या राम मंदिर आंदोलन से देखी जा सकती है.
नब्बे के दशक में चलाए गए इस आंदोलन में पहली बार बहुसंख्यकों के नाम पर ये संदेश आया कि संख्या में अधिक होने पर आप अपनी किसी भी बात को मनवा सकते हैं, आपकी विचारधारा ही सही है ये बात अपनी ताक़त की बिना पर मनवाई जा सकती है.
उससे पहले बहुसंख्यक का मतलब, उसी की बात सही होने या माने जाने का ख़्याल उस तरह से गहरा नहीं था. तब ये भी सोचा जाता था कि आप अल्पसंख्यक होकर भी तर्क के आधार पर अपनी बात सही साबित कर सकते हैं, उसे मनवा सकते हैं.
इस आंदोलन के दौरान ये बात समझाई गई कि हम जो सोचते हैं वही सही है.
राजनीति में असहिष्णुता का ये उफ़ान धीरे-धीरे समाज में भी फैलता गया, जो अंबेडकर के कार्टून, सलमान रूश्दी या तसलीमा नसरीन की किताब, या आशीष नंदी के बयान पर मचे हंगामे, या दूसरी इसी तरह की घटनाओं में साफ़ साफ़ देखी जा सकती है.

मुल्क की नींव

अयोध्या के आंदोलन ने उन सभी बातों - धर्म-निरपेक्षता, सहिष्णुता, बहु-सांस्कृतिवाद जैसी विचारधाराओं को नकारा जिसके आधार पर मुल्क की नींव रखी गई थी.
महात्मा गांधी
महात्मा गांधी पर लिखी एक किताब को गुजरात सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था.
इन सबसे परेशानी ये हुई है कि जो भी मामले सामने आते हैं उसे कोई न कोई समूह ख़ुद से जोड़कर देखने लगते हैं, और अगर वो उनकी सोच के ज़रा भी अलग हुई या उसके ख़िलाफ़ हुई तो उससे नाराज़गी या चोट पहुंचने की भावना का इज़हार करने लगते हैं.
लेकिन इस बढ़ी हुई असहिष्णुता को समूहों के पहचान स्थापित करने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा सकता है.
जिस किसी मामले में भी उन्हें ये लगता है कि ये उनकी पहचान स्थापित कर सकता है वो उसे उठाने लगते हैं उसपर हंगामा करने लगते हैं.
आशीष नंदी के बयान पर मचे हंगामे या अंबेडकर के कार्टून पर हुए विवाद को इस नज़िरए से भी देखा जा सकता है.
हां एक बात साफ़ कर देना ज़रूरी है कि जब अयोध्या मूवमेंट के बाद बढ़ी असहिष्णुता की बात होती है तो ये सिर्फ भारत के एक धर्म तक ही सीमित नहीं है, ये समाज के सभी वर्गों चाहे वो किसी भी धर्म से तालुक्क़ रखता है, में घर कर गई है.
रही बात किसी भी बात से विरोध रखने पर उसपर बहस करके उसको सुलझाने की, या अपनी बात कहने की, तो उसकी शुरूआत बच्चों में शुरूआती दौर से ही करनी होगी, जो मुझे लगती है कि कहीं न कहीं नहीं हो पा रही है.
(बीबीसी संवाददाता फ़ैसल मोहम्मद अली से बातचीत पर आधारित)

29.1.13





















कितने अंतरंग थे गांधी-कालेनबाख के रिश्ते?

 बुधवार, 30 जनवरी, 2013 को 08:30 IST तक के समाचार

बापू- कालेनबाख के बीच पत्रातचार पहली बार सार्वजनिक.
क्या मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी और यहूदी आर्किटेक्ट हरमन कालेनबाख के संबंध आत्मीयता से बढ़कर थे? यानी क्या महात्मा गांधी समलैंगिक थे?
ये कुछ असहज सवाल हैं, जिन्हें पुल्तिज़र पुरस्कार विजेता लेखक जोसेफ़ लेलीवेल्ड ने गांधी की जीवनी ‘ग्रेट सोल: महात्मा गांधी एंड हिज़ स्ट्रगल विथ इंडिया’ में पहली बार उठाए थे.
लेलीवेल्ड ने गांधी और कालेनबाख के बीच हुए पत्राचार का हवाला देते हुए 2011 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में दावा किया था कि दोनों के बीच समलैंगिक संबंध थे.
उनके मुताबिक गांधी कालेनबाख को भेजे अपने पत्रों में खुद को अपर हाउस कहते थे और कालेनबाख को लोअर हाउस. इन संबोधन के जरिए ही लेलीवेल्ड ने दावा किया था कि दोनों के बीच रिश्ता आत्मीय संबंधों से बढ़कर था.
इस पर काफी विवाद भी हुआ. बाद में लेलीवेल्ड ने ये भी कहा कि वे दोनों के बीच आत्मीय संबंधों का जिक्र कर रहे थे.
लेकिन आखिर सच क्या था? गांधी और कालेनबाख के बीच रिश्ते कैसे थे?
यह अब सार्वजनिक होने जा रहा है. गांधी और कालेनबाख से जुड़े दस्तावेजों को पहली बार आम लोगों के सामने लाया जा रहा है.
भारत में राजनीतिक जीवन शुरू करने से पहले करीब दो दशक तक दक्षिण अफ़्रीका में रहे थे गांधी
भारत के नेशनल अर्काइव में महात्मा गांधी के पड़पोते और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी इन दस्तावेजों को उनकी पुण्यतिथि पप सार्वजनिक करेंगे.

ख़ास था रिश्ता

नेशनल अर्काइव के महानिदेशक मुशीरूल हसन के मुताबिक इन चीजों के सार्वजनिक होने से महात्मा गांधी के जीवन के दक्षिण अफ्रीकी प्रवास के बारे में लोगों को ज़्यादा जानकारी मिलेगी और यह इतिहासकारों और गांधी पर शोध करने वालों के लिए मददगार साबित होगा.
भारत सरकार ने इन दस्तावेजों को पिछले साल अगस्त महीने में करीब सात करोड़ रुपये में खरीदा था. इज़रायल में रह रहे कालेनबाख के परिवार वालों ने इन दस्तावेजों को नीलामी के लिए दे दिया था.
उन लोगों ने इन दस्तावेजों के लिए शुरुआती कीमत 28 करोड़ रुपये मांगी थी. हालांकि बाद में भारत सरकार लंदन में इन दस्तावेजों की नीलामी करने वाले सोथबी से सात करोड़ रुपये के भुगतान पर इसे खरीदने में कामयाब रही.
इन दस्तावेजों में गांधी और कालेनबाख के आपसी संबंधों से जुड़े हजारों चीजें शामिल हैं. इनमें एक दूसरे को भेजी गई चिट्ठियां, फोटो और आपसी रिश्तों को ज़ाहिर करने वाली कई अन्य अहम चीजें शामिल हैं.

दो साल का साथ

दरअसल गांधी और कालेनबाख की मुलाक़ात दक्षिण अफ़्रीका में वर्ष 1904 में हुई थी. इसके बाद 1907 से अगले दो साल तक गांधी कालेनबाख के साथ ही रहने लगे थे.
महात्मा गांधी 1914 में वे दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे. इस दौरान कालेनबाख उनके सबसे विश्वसनीय और आत्मीय सहयोगी बने रहे.
इन दस्तावेजों में वे मार्मिक पत्र भी शामिल हैं जो महात्मा गांधी ने अपने पहले बेटे हरिलाल गांधी, दूसरे बेटे मणिलाल गांधी और तीसरे बेटे रामदास गांधी के आपसी संबंधों के बारे में लिखा है.
इन पत्रों से ये भी जाहिर होता है कि कालेनबाख के गांधी के दूसरे बेटे मणिलाल गांधी के साथ गहरी दोस्ती थी.
इसके अलावा इन दस्तावेज़ों में दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान महात्मा गांधी के दैनिक गतिविधियों से संबंधित जानकारियाँ भी मौजूद हैं. मसलन खान-पान के अलावा सत्य और अहिंसा के उनके प्रयोगों के बारे में जानकारी.
गांधी के निजी जीवन में अगर आपकी भी दिलचस्पी हो तो 30 जनवरी के बाद दिल्ली में नेशनल अर्काइव में इन दस्तावेज़ों को देखा जा सकता है.

मूलनिवासी नायक पेपर रोज पढ़ें सभी मूलनिवासी बन्धु








bharat me brahman wadi का वर्चाप हो ने के कारन ही हो रहा है












गंगा जल प्रदूषित होने के बाद भी लोगों की धार्मिक आस्था में कमी नहीं आई
अब इस बात की पुष्टि हो गई है कि गंगा जल में स्वयं शुद्धि की अपार क्षमता के बावजूद बड़ी संख्या में लोगों के सामूहिक स्नान से नदी में प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है.
उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इलाहाबाद में गंगा जल की गुणवत्ता का विश्लेषण किया है. इससे पता चला है कि पिछली 14 जनवरी यानी मकर संक्रांति के दिन गंगा में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) का स्तर बढ़कर 7.4 मिलीग्राम प्रति लीटर हो गया था.


यह निर्धारित अधिकतम सीमा से चार गुना ज्यादा है.
अनुमान है कि मकर संक्रांति के दिन प्रयाग में लगभग एक करोड़ लोगों ने 'अपने पापों से मुक्ति और सुखी जीवन के लिए' संगम और उसके आस पास गंगा स्नान किया था.
बोर्ड द्वारा निर्धारित मानक के अनुसार नदी में अधिकतम बीओडी दो मिलीग्राम प्रति लीटर हो सकता है.
इस अध्ययन से पता चलता है कि मकर संक्रांति के दिन गंगा की ऊपरी धारा में रसूलाबाद घाट पर बीओडी 5.6 था. यह आगे शास्त्री पुल के पास बढ़कर सात हो गया और संगम पर यह 7.4 प्रतिशत था.
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा तैयार चार्ट के मुताबिक़, मकर संक्रांति से एक दिन पहले यानी 13 जनवरी को संगम के पानी में बीओडी का स्तर लगभग आधा यानी 4.4 दशमलव था.
बढ़ते भक्त, बढ़ता प्रदूषण

गंगा में ऐसे कई नाले आकर मिलते हैं
जैसे-जैसे तीर्थयात्रियों की संख्या कम होती गई, प्रदूषण भी कम होता गया. उदाहरण के लिए 18 जनवरी को बीओडी का स्तर घटकर 4.8 पर गया.
संगम पर यमुना का पानी गंगा में मिलता है. माना जाता है कि इसलिए वहाँ पानी अधिक होने से प्रदूषण का असर कुछ कम हो जाता है वरना यह आकंड़ा और ज्यादा हो सकता था.
प्रदूषण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी डॉक्टर मोहम्मद सिकंदर का कहना है कि मकर संक्रांति के दिन बड़ी संख्या में लोगों के सामूहिक स्नान के कारण संगम पर प्रदूषण का स्तर बढ़ा.
वे कहते हैं कि नदी में बायोकेमिकल आक्सीजन डिमांड बढ़ने का मतलब है पानी में गंदगी बढ़ गई है.
इन दिनों कुम्भ मेले में करीब 4-5 लाख लोग स्थाई रूप से गंगा तट पर रह रहे हैं.
लेकिन ऐसा नहीं है कि केवल कुम्भ में बड़ी संख्या में लोगों के स्नान अथवा वहाँ रहने से गंगा में प्रदूषण बढ़ता हो.
गंगा की ऊपरी धारा में पहले से ही शहरी मलजल और कल-कारखानों का दूषित कचरा गिरता है.
महिमा गंगा जल की

वैज्ञानिकों ने परीक्षण पुष्टि की थी कि गंगा जल में स्वयं शुद्धि की अद्भुत क्षमता है
साधु-संत और अनेक जन संगठन इस प्रदूषण के खिलाफ लगातार आवाज उठाते रहे हैं. कई लोगों ने अदालत में जनहित याचिका भी दाखिल की.
अदालत के आदेश से इन दिनों कुम्भ के लिए नरौरा बैराज से गंगा में 2,500 क्यूसेक ज्यादा पानी छोड़ा जा रहा है.
फिर भी ऊपर से गंगा और उसकी सहायक नदियों में इतना प्रदूषण आ रहा है कि अतिरिक्त पानी छोड़ने के बावजूद इलाहाबाद में गंगा का पानी साफ़ नहीं है.
इससे पहले कई वैज्ञानिकों ने परीक्षण करके इस जन विश्वास की पुष्टि की थी कि गंगा जल में स्वयं शुद्धि की अद्भुत क्षमता है.
इसीलिए सालों-साल रखने पर भी गंगा जल सड़ता नही. वैज्ञानिकों ने यह भी सिद्ध किया था कि बीमारी फैलाने वाले जीवाणु गंगा में ज्यादा देर तक जीवित नही रह पाते.
लेकिन अब कन्नौज से नीचे गंगा में प्रदूषण की मात्रा इतना अधिक बढ़ गई है कि शायद गंगा जल में स्वयं शुद्धि की क्षमता कम हो रही हो. शायद इसीलिए लोगों के स्नान मात्र से संगम पर प्रदूषण का स्तर बढ़ गया.
लेकिन इससे गंगा जी के प्रति लोगों की धार्मिक आस्था में कमी नहीं आई. लोग अब भी घर पर पूजा एवं अन्य धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यों के लिए बोतल में भरकर गंगा जल ले जा रहे हैं.