जहां चाय ताज़गी नहीं मौत लाती है..
शनिवार, 12 जनवरी, 2013 को 16:27 IST तक के समाचार
उम्र 72 साल, नाम सुखनी मुंडा. सुखनी को अब यह भी याद नहीं है कि उसने आखिरी बार भरपेट खाना कब खाया था.
उत्तर-बंगाल में अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले चाय उद्योग की हरियाली के साथ ही सुखनी के जीवन की हरियाली भी सूख गई है.घर के पाँच सदस्यों को खोने वाली सुखनी की आंखों से आंसू भी सूख चुके हैं. चाय की पत्तियों की तरह ही. इतना ही नहीं, वह खुद भी बीमार है.
सुखनी बताती है, ''वर्ष 2006 में बागान के बंद होने के साल भर बाद ही तमाम मजदूर आर्थिक तंगी से जूझने लगे थे. पहले रोटी के लाले पड़ने लगे और बाद में भुखमरी की वजह से जान के.''
इस क्लिक करें चाय बागान में रहने वाले लगभग 5,500 लोग इस समय दाने-दाने को मोहताज हैं. चाय बागान की मजदूर कॉलोनी में ऐसा कोई भी घर नहीं बचा है जहां भूख ने इन छह वर्षों में किसी की जान नहीं ली हो.
असंतोष
कथित मजदूर असंतोष की वजह से प्रबंधन ने जब इस बागान को लावारिस छोड़ दिया था, तब से अब तक लगभग 122 मजदूर या उनके परिजन मौत के मुंह में समा चुके हैं.चाय बागानों के लिए मशहूर उत्तर-बंगाल में छोटे-बड़े कोई 800 बागान हैं.
कुछ बागानों को छोड़ दें तो ज्यादातर बदहाली के शिकार हैं. इनमें से भी बंद बागानों के मजदूरों की हालत तो बेहद खराब है.
जो बागान खुले हैं, उनमें से भी ज्यादातर की हालत ठीक नहीं है. चाय की हरी पत्तियों से चाय बनाने वाली इन मशीनों के शोर में मजदूरों का दुख-दर्द भी दब गया है.
असम में इसी सप्ताह एक चाय बागान मालिक और उसकी पत्नी को जलाकर मार देने की घटना बागानों की अंदरुनी हालत बयाँ करती है.
मजदूरों में लगातार बढ़ते असंतोष की वजह से ऐसी घटना किसी भी बागान में कभी भी हो सकती है.
ढेकलापाड़ा के पास साल भर से बंद पड़े दलमोड़ चाय बागान में भी अब तक 22 लोग भुखमरी के शिकार हो चुके हैं.
बीमारी या भुखमरी?
"राशन के नाम पर हमें हर महीने दो किलो चावल, एक किलो गेहूं, 200 ग्राम चीनी और 200 मिलीलीटर मिट्टी का तेल मिलता है. चीनी और तेल अक्सर नदारद रहता है और चावल खाने लायक नहीं होता."
बलराम ओरांव
यह अलग बात है कि जिला प्रशासन और सरकार इन मौतों की वजह बीमारी बताता रहा है, भुखमरी नहीं.
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तीन साल पहले विपक्ष में रहते इस इलाके के बंद चाय बागानों का दौरा किया था.
तब उन्होंने कहा था कि अगर उनकी सरकार सत्ता में होती तो इन बागानों को खोलने में पांच मिनट से ज्यादा समय नहीं लगता.
लेकिन अब उन्हें सत्ता में आए डेढ़ साल से ज्यादा हो गए हैं. बावजूद इसके न तो इन बागानों की हरियाली लौटाने की कोई ठोस पहल हुई है और न ही मजदूरों को भुखमरी से बचाने की.
बीते साल दिसंबर के आखिरी सप्ताह में ममता एक बार फिर इलाके के तीन दिन के दौरे पर आईं थीं. तब इन बागान मजदूरों में उम्मीद की एक नई किरण पैदा हुई थी.
लेकिन किसी बंद बागान में जाने की बजाए वे चाय बागान को मकान बनाने के लिए पट्टे पर सरकारी जमीन देने का ऐलान कर ही लौट गईं. उन्होंने बंद बागानों का कई जिक्र तक नहीं किया.
जान और घर का संबंध
सरकार ने बंद चाय बागानों के मजदूरों को हर महीने 1,500 और विधवाओं को एकमुश्त 10,000 रूपए की सहायता देने का ऐलान किया था.
लेकिन लालफीताशाही की वजह से वह रकम भी कभी समय पर नहीं मिलती. सुखनी बताती हैं कि उसे आज तक कोई पैसा नहीं मिला है.
इसी बागान के बलराम ओरांव बताते हैं, ''राशन के नाम पर हमें हर महीने दो किलो चावल, एक किलो गेहूं, 200 ग्राम चीनी और 200 मिलीलीटर मिट्टी का तेल मिलता है. चीनी और तेल अक्सर नदारद रहता है और चावल खाने लायक नहीं होता.''
बलराम के बेटे और बहू भी भुखमरी के शिकार हो चुके हैं. अब वह अपनी पत्नी और पोते-पोतियों के साथ टूटी-फूटी झोपड़ी में दिन काट रहा है.
उत्तर-बंगाल विकास मंत्री गौतम देव कहते हैं, ''हाईकोर्ट में एक मामला होने की वजह से ढेकलापाड़ा बागान को खोलना संभव नहीं हो रहा है.''
बागान के पुराने मालिकों ने इसे चलाने से इंकार कर दिया है और कोई नया मालिक इसे हाथ में लेने को तैयार नहीं है. यानी सुखनी और उसके जैसे सैकड़ों लोगों के जीवन में फिलहाल हरियाली लौटने के कोई आसार नहीं हैं.
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