जाति न पूछो भ्रष्टाचार की
आशीष नंदी इन वर्गो के विरोधी नहीं रहे हैं इसलिए उनकी बात पर विचार करते समय इस संदर्भ को याद रखना जरूरी है। उन्होंने अपने स्पष्टीकरण में कहा है कि उनका इरादा किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं था। अगर अनजाने में उनके बयान से ऐसा हुआ है तो उन्हें इसका खेद है। भावनाओं को आहत तो उन्होंने किया है। उनके वक्तव्य से एक मोटी बात निकल कर आई है कि पिछड़े, दलित और आदिवासी भ्रष्ट हैं और सवर्ण जातियों के लोग ईमानदार। अपनी सफाई में उन्होंने कहा कि उनके कहने का अर्थ यह था कि समाज का ऊपरी तबका अपने भ्रष्टाचार को छिपाना जानता है इसलिए पकड़ा नहीं जाता। वास्तविक स्थिति का यह अति सरलीकरण है। उनकी बात में देश के युवाओं को सच्चाई नजर आ सकती है क्योंकि इस वर्ग ने सवर्ण जातियों के राजपाट को एक हद तक जाते हुए और पिछड़ों, दलितों व आदिवासियों के राजनीतिक सशक्तीकरण का दौर देखा है। इस आयु वर्ग के लोगों ने मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, मायावती और मधु कोड़ा को सत्ता में आते और भ्रष्टाचार के आरोप लगते देखा है। सत्ता भ्रष्टाचार सिखाती है, जाति नहीं। भ्रष्टाचार से कमाए पैसे छिपाने के गुर जाति विशेष में पैदा होने से नहीं आते। यह कला लगातार लंबे समय तक सत्ता में रहने से आती है। इस वर्ग के लोगों का भ्रष्टाचार केवल इसलिए उजागर नहीं हो जाता, क्योंकि वे वंचित जातियों के हैं। इस वर्ग के लोगों के मन में अभी तक यह भरोसा नहीं बन पाया है कि वे लंबे समय तक सत्ता में बने रहेंगे। सबसे च्यादा अनिश्चित कार्यकाल मधु कोड़ा का था इसलिए उन्होंने सबसे कम समय में सबसे च्यादा पैसा कमाया। भ्रष्टाचार के इस खेल से सवर्ण बाहर हो गए हों ऐसा भी नहीं है। जिन नेताओं का नाम आशीष नंदी ने लिया है उन सबके वित्तीय प्रबंधकों के नाम पर गौर करें तो सब सवर्ण जातियों के हैं। मधु कोड़ा के भी, जिसके भ्रष्टाचार की उपलब्धियों का जिक्र करते समय नंदी साहब लगभग गौरव का अनुभव कर रहे थे।
पश्चिम बंगाल का उदाहरण देकर आशीष नंदी ने भ्रष्टाचार को सीधे जाति से जोड़ने का जो प्रयास किया उसका कोई अनुभवसिद्ध आधार नहीं है। भ्रष्टाचार मनुष्य की एक स्वाभाविक वृत्ति- लालच का नतीजा है। आशीष नंदी को भ्रष्टाचार के कीचड़ में कमल दिख रहा है। उन्हें लग रहा है जो काम सामाजिक सुधार के तमाम आंदोलन, शिक्षा, सरकारी कार्यक्रम और सशक्तीकरण के उपाय नहीं कर पाए वह भ्रष्टाचार ने कर दिखाया। इसलिए भ्रष्टाचार को वह जरूरी मानते हैं। भ्रष्टाचार से अगर सामाजिक विषमता की समस्या खत्म होती तो दुनिया के बहुत से देशों में सामाजिक विषमता न होती। क्या भ्रष्टाचार का ऐसा महिमामंडन वंचित जातियों का भला कर पाएगा? आशीष नंदी की नजर में चार व्यवसायों- राजनीति, मनोरंजन उद्योग, अपराध और खेल में जाति-धर्म के भेद के बिना व्यक्ति की प्रतिभा को विकसित होने का अवसर मिलता है। उनकी नजर उन करोड़ों वंचितों पर नहीं है, जो भ्रष्टाचार की मार झेल रहे हैं। केंद्र और राच्य सरकारों की इन तबकों के लिए चलने वाली योजनाओं का च्यादातर पैसा उसी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है जिसे वे समतामूलक बता रहे हैं।
आशीष नंदी के बयान पर जो और जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं वे एक दूसरे संकट की ओर इशारा करती हैं। अभिव्यक्ति की आजादी सचमुच खतरे में है। राजस्थान पुलिस की कार्रवाई, राच्य के मुख्यमंत्री और अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष का बयान इसकी पुष्टि करता है। आशीष नंदी के बयान का आप विरोध कर सकते हैं, आलोचना कर सकते हैं, निंदा कर सकते हैं, लेकिन उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करना संविधान से मिले अभिव्यक्ति के अधिकार पर सीधा हमला है। नेताओं को इसमें विभाजनकारी राजनीति का एक और अवसर नजर आ रहा है। रामविलास पासवान जैसे चुके हुए नेता राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत उनकी गिरफ्तारी की मांग कर रहे हैं। केंद्र सरकार खामोश है।
विरोधी विचारों के प्रति बढ़ती असहिष्णुता जनतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। कमल हासन जैसे नास्तिक फिल्म कलाकार को भी धर्म के चश्मे से देखने की कोशिश हो रही है। सरकारें ऐसे मसलों में कोई फैसला लेने का साहस नहीं दिखातीं। उन्हें लगता है कि अदालत में फैसला हो तो बेहतर। कमल हासन देश छोड़ने के विकल्प पर भी विचार कर रहे हैं। यह सत्ता प्रतिष्ठान और एक उदारवादी समाज के रूप में हमारे लिए चुनौती और शर्म दोनों की बात है। अपने विरोधी विचारों को अभिव्यक्ति का मौका देने से जनतंत्र मजबूत होता है, कमजोर नहीं। यह बात विभाजन की राजनीति की खेती करने वालों को समझ में नहीं आती। यहीं समाज और सरकार की जिम्मेदारी का सवाल आता है। उन्हें ऐसे लोगों के बचाव में आना चाहिए। पर सरकार तो खिलाफ खड़ी है।
निराशा के इस माहौल में आशा की किरण की तरह आया है दलित चिंतक कांचा इलैया का बयान। कांचा इलैया ने अपने समाज के राजनेताओं के ठीक विपरीत रुख अपनाया। उन्होंने कहा कि आशीष नंदी ने भावनाओं को ठेस तो पहुंचाई है पर दलित समाज का बुद्धिजीवी इतना सक्षम है कि वैचारिक हमले का जवाब विचार से दे सकता है। यह बयान दलित समाज की बौद्धिक ताकत का ही नहीं अपनी क्षमता के प्रति आत्मविश्वास का भी प्रतीक है। कांचा इलैया के समाज पर हमला हुआ है। वह पीड़ित हैं पर उनका जवाब फौरी आवेश का शिकार नहीं हुआ। वह विचार का जवाब विचार से ही देना चाहते हैं। इस पूरे विवाद का यह सकारात्मक पहलू है।
[लेखक प्रदीप सिंह, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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