8.9.12

सीएजी, संसद और सरकार



आज़ादी के बाद से, सिवाय 1975 में लगाए गए आपातकाल के, भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाएं और संविधान कभी भी इतनी तनाव भरी स्थिति में नहीं रही हैं. श्रीमती इंदिरा गांधी ने संविधान के प्रावधान का इस्तेमाल वह सब काम करने के लिए किया, जो सा़फ तौर पर अनुचित था और अस्वीकार्य था. फिर भी वह इतनी सशक्त थीं कि आगे उन्होंने आने वाले सभी हालात का सामना किया. चुनाव की घोषणा की और फिर उन्हें हार का सामना करना पड़ा. वर्तमान सरकार इतनी निडर नहीं है कि यह ऐसा कोई क़दम उठा सके. फिर, यह सरकार हर एक संवैधानिक संस्था का मान गिराने की कोशिश कर रही है और वह भी शर्मनाक तरीक़े से. ताज़ा मिसाल देखिए, कांग्रेस पार्टी सीएजी रिपोर्ट पर संसद में बहस चाहती है. इसे हास्यास्पद नहीं तो और क्या माना जाए, क्योंकि सीएजी अंकेक्षण का काम करता है, वह मंत्री को ड्राफ्ट रिपोर्ट भेजता है, मंत्रालय उस पर अपना जवाब भेजता है, जिसके बाद सीएजी फाइंडिंग देता है. सीएजी की रिपोर्ट फाइनल होती है. यह कंप्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल की फाइंडिंग होती है. यह बहस का विषय नहीं होती. कल को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर संसद के भीतर बहस की जाएगी. संसद इस काम के लिए नहीं बनी है. यह सब करना संसद का काम नहीं है.
मैं आश्चर्यचकित हूं कि कांग्रेस के लोग इस पर संसद में चर्चा कराने की बात कर रहे हैं और भाजपा भी यह जवाब नहीं दे रही है कि सीएजी की रिपोर्ट बहस का विषय नहीं है. संसदीय प्रक्रिया के मुताबिक़, सीएजी की रिपोर्ट को पब्लिक अकाउंट्‌स कमेटी, कमेटी ऑन पब्लिक अंडरटेकिंग और इस्टीमेट कमेटी को भेजा जाता है. ऐसा क्यों किया जाता है? क्योंकि, वहां सभी दलों के सदस्य होते हैं, वे इस पर चर्चा करते हैं और उचित कार्रवाई के लिए सुझाव देते हैं, न कि रिपोर्ट को चुनौती देने का काम करते हैं. यहां तक कि लोक लेखा समिति भी सीएजी की रिपोर्ट को चुनौती नहीं दे सकती. सीएजी ने अपनी फाइंडिंग्स दी है, जो स्वतंत्र होती है, जिसे संवैधानिक प्राधिकार हासिल है और जिसे खारिज नहीं किया जा सकता.
मैं आश्चर्यचकित हूं कि कांग्रेस के लोग इस पर संसद में चर्चा कराने की बात कर रहे हैं और भाजपा भी यह जवाब नहीं दे रही है कि सीएजी की रिपोर्ट बहस का विषय नहीं है. संसदीय प्रक्रिया के मुताबिक़, सीएजी की रिपोर्ट को पब्लिक अकाउंट्‌स कमेटी, कमेटी ऑन पब्लिक अंडरटेकिंग और इस्टीमेट कमेटी को भेजा जाता है. ऐसा क्यों किया जाता है? क्योंकि, वहां सभी दलों के सदस्य होते हैं, वे इस पर चर्चा करते हैं और उचित कार्रवाई के लिए सुझाव देते हैं, न कि रिपोर्ट को चुनौती देने का काम करते हैं. यहां तक कि लोक लेखा समिति भी सीएजी की रिपोर्ट को चुनौती नहीं दे सकती. सीएजी ने अपनी फाइंडिंग्स दी है, जो स्वतंत्र होती है, जिसे संवैधानिक प्राधिकार हासिल है और जिसे खारिज नहीं किया जा सकता, सिवाय संसद के दो तिहाई बहुमत के. ऐसा अधिकार मिला है सीएजी को, जिसे बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर एवं नेहरू जैसे लोगों ने दिया था और यह सुनिश्चित किया था कि सीएजी को कोई छू न सके, उसकी गरिमा और महत्ता को कोई नुक़सान न पहुंचा सके. लेकिन कांग्रेस बार-बार यह बोलकर कि सीएजी की रिपोर्ट पर चर्चा हो, इस संस्था और इस रिपोर्ट की महत्ता को कम कर देना चाहती है. यह एक निंदनीय कृत्य है.
एक और अहम तथ्य, जिसकी चर्चा नहीं हो रही है कि भाजपा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इस्ती़फा मांग रही है, क्योंकि उनके कोयला मंत्री रहते हुए कोल ब्लॉक आवंटन में धांधली हुई थी, लेकिन वह यह नहीं कह रही है कि मनमोहन सिंह इस सबके लिए ज़िम्मेदार हैं. लाल बहादुर शास्त्री ने एक रेल दुर्घटना के बाद इसलिए इस्ती़फा नहीं दिया था, क्योंकि वह दुर्घटना उनकी वजह से हुई थी. उन्होंने इस्ती़फा इसलिए दिया था, क्योंकि उन्होंने सोचा कि यह दुर्घटना उनके मंत्री रहते हुए हुई और इसलिए उनका मंत्री पद पर बने रहना उचित नहीं होगा. मनमोहन सिंह का जो रिकॉर्ड रहा है, उसे देखते हुए मेरे जैसा आदमी उनसे यही अपेक्षा करता है कि उन्हें तत्काल अपना इस्ती़फा देने की पेशकश करनी चाहिए थी. उन्हें कहना चाहिए था कि चूंकि सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक़ मेरे मंत्री रहते हुए यह सब हुआ है, इसलिए मैं इस्ती़फा देता हूं. हो सकता था कि उनसे इस्ती़फा न देने के लिए कहा जाता, लेकिन उन्हें इस्ती़फे की पेशकश करनी चाहिए थी.
सवाल है कि इस रिपोर्ट के आने के बाद कांग्रेस ने किसी और व्यक्ति को प्रधानमंत्री क्यों नहीं नियुक्त किया? विपक्ष चुनाव की मांग नहीं कर रहा है, वह स़िर्फ मनमोहन सिंह का इस्ती़फा मांग रहा है और सीएजी ने इस मुद्दे पर जो टिप्पणी की है, वह उनके इस्ती़फे के लिए का़फी है. मनमोहन सिंह जी को नैतिकता के आधार पर तत्काल इस्ती़फा दे देना चाहिए था. सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी किसी को भी प्रधानमंत्री बनाने के लिए आज़ाद हैं. सोनिया गांधी खुद चाहें तो राहुल गांधी को या अपने किसी अन्य वरिष्ठ कैबिनेट सहयोगी को प्रधानमंत्री बना सकती हैं, लेकिन वर्तमान स्थिति अस्वीकार्य है. दुर्भाग्य से भाजपा मुख्य विपक्षी दल की तरह व्यवहार करती भी नहीं दिख रही है. कम से कम पहले इस पार्टी में अटल जी, आडवाणी जी जैसे स्तर के लोग थे. अब तो ऐसे लोग हैं, जो यह भी नहीं जानते कि सरकार या विपक्ष का क्या रोल होता है. बहरहाल, यही व़क्त है, जब सोनिया गांधी को हस्तक्षेप करना चाहिए. पिछले कुछ दिनों में हमने उन्हें अग्रसक्रिय होते हुए देखा है. अब उन्हें आगे आकर स्थिति को अपने हाथ में लेना चाहिए और इससे बाहर निकलने के लिए एक सही, संवैधानिक और लोकतांत्रिक समाधान निकालना चाहिए.
लाल बहादुर शास्त्री ने एक रेल दुर्घटना के बाद इसलिए इस्ती़फा नहीं दिया था, क्योंकि वह दुर्घटना उनकी वजह से हुई थी. उन्होंने इस्ती़फा इसलिए दिया था, क्योंकि उन्होंने सोचा कि यह दुर्घटना उनके मंत्री रहते हुए हुई और इसलिए उनका मंत्री पद पर बने रहना उचित नहीं होगा. मनमोहन सिंह का जो रिकॉर्ड रहा है, उसे देखते हुए मेरे जैसा आदमी उनसे यही अपेक्षा करता है कि उन्हें तत्काल अपना इस्ती़फा देने की पेशकश करनी चाहिए थी. उन्हें कहना चाहिए था कि चूंकि सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक़ मेरे मंत्री रहते हुए यह सब हुआ है, इसलिए मैं इस्ती़फा देता हूं. हो सकता था कि उनसे इस्ती़फा न देने के लिए कहा जाता, लेकिन उन्हें इस्ती़फे की पेशकश करनी चाहिए थी.
भाजपा की स्थिति भी इस व़क्त कुछ कम खराब नहीं है. एक व़क्त था, जब इस पार्टी में अटल जी और आडवाणी जी जैसे क़द्दावर नेता थे, जो किसी मुद्दे पर स्टैंड ले सकते थे, जिनके पास किसी मुद्दे पर एक व्यापक सोच हुआ करती थी. इन लोगों ने आपातकाल के समय एक स्टैंड लिया, जेल गए. अब न अटल जी हैं और आरएसएस ने आडवाणी जी को साइड लाइन कर दिया है. अब गडकरी जैसे नेता हैं, जिनके पास न राष्ट्रीय राजनीति की समझ है और न एक व्यापक विचार है, ताकि कोई मज़बूत स्टैंड लिया जा सके. हालत यह है कि आरएसएस मज़बूत होता जा रहा है और भाजपा के मुख्यमंत्री अब आरएसएस को सीधे रिपोर्ट करने लगे हैं. भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के कमज़ोर होने में आरएसएस का हित छुपा हुआ है, ताकि इससे आरएसएस अपना काम इन मुख्यमंत्रियों के ज़रिए करा सके. बहरहाल, भाजपा अगर एक मुख्य और मज़बूत विपक्षी पार्टी की हैसियत पाना चाहती है या 2014 में सत्ता में आने का सपना देखती है तो उसे बिना किसी विवाद के आडवाणी जी को असीमित अधिकार देकर इस सरकार से निबटने का ज़िम्मा दे देना चाहिए और साथ में यशवंत सिन्हा एवं जसवंत सिंह जैसे लोगों को उनकी मदद के लिए आगे कर देना चाहिए.
अभी भाजपा कनिष्ठ नेताओं को अहम पदों की ज़िम्मेदारी देकर यही संदेश दे रही है कि ये लोग कोई स्टैंड नहीं ले पा रहे हैं. अभी सुनने में आया कि ये लोग सामूहिक इस्ती़फा देने वाले हैं, जैसा कि वी पी सिंह ने निर्णय लिया था. उससे राजीव गांधी पर दबाव पड़ा और राजीव गांधी को श्रेय देना चाहिए कि उन्होंने संसद को भंग करके चुनाव कराया, जिसमें उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था. जैसे ही यह बात सामने आई कि भाजपा के 114 सांसद उपचुनाव में जाएंगे (सामूहिक इस्ती़फा देकर) तो कांग्रेस की ओर से एक अजीबोग़रीब तर्क सुनने को मिला. कांग्रेस का यह कहना कि अगर वह सभी सीटें हार भी जाती है तो भाजपा गेनर नहीं होगी और अगर वह कुछ सीटें जीत गई तो यह उसकी जीत होगी. यह बनियागिरी नहीं तो और क्या है? क्या यह बात एक राजनीतिक दल कर सकता है? कांग्रेस एक कॉरपोरेट बॉडी की तरह व्यवहार कर रही है, जो हर एक चीज़ में लाभ-हानि तलाशती है. उसे जनता की ताक़त का एहसास नहीं है. उसे इंदिरा गांधी से सबक़ सीखना चाहिए, जिन्हें आपातकाल के बाद सत्ता से हाथ धोना पड़ा था. जब जनता क्रोधित होती है तो ऐसे कैलकुलेशन काम नहीं आते हैं.
भाजपा अगर एक मुख्य और मज़बूत विपक्षी पार्टी की हैसियत पाना चाहती है या 2014 में सत्ता में आने का सपना देखती है तो उसे बिना किसी विवाद के आडवाणी जी को असीमित अधिकार देकर इस सरकार से निबटने का ज़िम्मा दे देना चाहिए और साथ में यशवंत सिन्हा एवं जसवंत सिंह जैसे लोगों को उनकी मदद के लिए आगे कर देना चाहिए. अभी भाजपा कनिष्ठ नेताओं को अहम पदों की ज़िम्मेदारी देकर यही संदेश दे रही है कि ये लोग कोई स्टैंड नहीं ले पा रहे हैं.
आडवाणी जी ने कहा कि अगले चुनाव में कांग्रेस या भाजपा को सत्ता में आने का मौक़ा शायद न मिले. उन्हें इस बात का एहसास है कि छोटी पार्टियों की सरकार बनने की दशा में भाजपा का रोल बहुत सीमित हो जाएगा. यह वास्तविकता है. लेकिन भाजपा ने क्या प्रतिक्रिया दी? नहीं, नहीं, यह निर्णय हो चुका है कि छोटी पार्टियों से बनने वाले प्रधानमंत्री सफल नहीं होते हैं. सफलता क्या है? मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के तौर पर आठ साल हो चुके हैं, क्या वह सफल हैं? ग्यारह महीने के लिए प्रधानमंत्री रहते हुए वी पी सिंह ने बैकवर्ड पॉलिटिक्स की दशा और दिशा हमेशा के लिए बदल दी थी. चंद्रशेखर जी स़िर्फ छह महीने प्रधानमंत्री रहे. उन्होंने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए, जिससे देश की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने का काम किया गया. सवाल यह नहीं है कि कोई कितने व़क्त के लिए प्रधानमंत्री बनता है, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि वह व्यक्ति उतने व़क्त में क्या काम करता है, क्या निर्णय लेता है. यह सरकार कुछ नहीं कर रही है, सिवाय पैसा इकट्ठा करने के. विपक्ष भी कुछ नहीं कर रहा है. दुर्भाग्य यह है कि बहुत सारे मुद्दों पर भाजपा के भी वही विचार हैं, जो कांग्रेस के हैं. भाजपा को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए. अगर वह एक मुख्य विपक्षी दल बनना चाहती है, अगर वह सत्ता में आना चाहती है तो उसे अपनी पुरानी शैली बदलनी होगी, पुरानी पूंजी बदलनी होगी और चेहरे बदलने होंगे.

अब सरकार को नोटिस दीजिए

हमारी सरकार महान है और राज्यसभा उससे भी महान है. सीएजी का गठन संवैधानिक व्यवस्था के तहत हुआ है और सीएजी की शपथ उसी तरह होती है, जैसे राष्ट्रपति की होती है या सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की होती है. सीएजी को स़िर्फ महाभियोग के जरिए हटाया जा सकता है. मौजूदा सरकार ने सीएजी की सारी महत्वपूर्ण सिफारिशों को न केवल अमान्य कर दिया है, बल्कि उन्हें गलत भी ठहराया है. कांग्रेस के प्रवक्ता कहते हैं कि सीएजी को शून्य बढ़ाने का शौक है. कॉमनवेल्थ गेम्स, टू जी स्पेक्ट्रम और अब कोयले को लेकर आई सीएजी की रिपोर्ट सरकार ने नकार दी है. वित्त मंत्री चिदंबरम ने सा़फ-सा़फ कहा है कि कोयले पर सीएजी की रिपोर्ट सही नहीं है. तो फिर सही क्या है? सरकार को चाहिए कि वह सीएजी के ऊपर महाभियोग लगाए और उन्हें हटाए. अगर सरकार सीएजी पर महाभियोग नहीं लगाती है तो देश मानेगा कि सरकार इस संवैधानिक संस्था को नष्ट करना चाहती है. वैसे देश के लोगों का मानना है कि सीएजी की रिपोर्ट सही है.
राज्यसभा की महानता का बखान करना तो और शर्मनाक है. हमने जब रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट छापी थी तो राज्यसभा ने हमें विशेषाधिकार हनन का नोटिस भेजा था. हमने उसका संविधान सम्मत जवाब भेजा. अब सरकार ने तेईस अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय में यह कहा कि उसने राज्यसभा में गलत बयान दिया था. सुप्रीम कोर्ट में उसने सही पोजीशन बताई. इसका मतलब इस सरकार की नज़र में राज्यसभा की कोई हैसियत नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में जवाब देने की प्रक्रिया कई हफ्ते पहले शुरू हो जाती है. और जब सरकार को पता चला कि उसने राज्यसभा में गलत बयानी की है तो उसे सबसे पहले राज्यसभा में आकर सदन को सूचित करना चाहिए था कि उसने जानबूझ कर गलत बयानी की है. सरकार ने तो यह नहीं किया, लेकिन बिना रीढ़ के निर्वीर्य राज्यसभा के सदस्यों ने भी अपने सदन के सम्मान की रक्षा के लिए सरकार से नहीं पूछा कि उसने जानबूझ कर गलत बयानी क्यों की. अगर सुप्रीम कोर्ट में जवाब न देना होता तो सरकार के इस झूठ का पता देश को लगता ही नहीं. क्या राज्यसभा के महान सांसद और राज्यसभा के महान सभापति इस सरकार को गलत बयानी के लिए नोटिस देने की वैसी ही हिम्मत कर पाएंगे, जैसी उन्होंने चौथी दुनिया के मामले में की थी?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.