6.12.12

Thursday, January 22, 2009

पुस्तक एडविना और नेहरू के बहाने गाँधी विमर्श



बहुत दिनो से ये पोस्ट लिखनी थी, लेकिन आज लिख ही गई इस लिये क्योंकि डॉ० अनुराग की पोस्ट पढ़ने के बाद इस किताब का बहुत कुछ अलिखित समझ में आया.....! चार दिन के वैचारिक उथलपुथल के बाद आज ये पोस्ट लिखने को मजबूर हूँ। अनुराग जी की पोस्ट पर कमेंट नही दिया, कारण कविता जी की तरह मैं भी भीरु प्रवृत्ति की हूँ, विवादो से बचना चाहती हूँ, अधिकतर बच के ही निकल जाना चाहती हूँ। जिंदगी में भी। लेकिन कोई चीज आप में चार दिन से बार बार कौंध जाती है और आप उससे फिर से बच निकलने की कोशिश करते हैं, तो ये अवॉइड करना नही शायद पलायनवादिता है।



१९९६ में राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कैथरीन क्लैमा द्वारा लिखी गई इस पुस्तक का अनुवाद निर्मला जैन द्वारा किया गया है। ४४२ पन्नो की इस किताब में एडविना और नेहरू के किस्से तो लगभग २०० पन्नो के बाद आये हैं...! शुरुआत में तो उस समय के भारत के विषय में ही जानकारी मिली। उस समय का सामाजिक परिवेश। उस समय के लोगो की वैचारिक स्थिति। कुछ दिनो के लिये उस दौर को जीने लगी थी मै। बहुत सी बाते नयी थी मेरे लिये। जैसे कि भारत कोकिला सरोजिनी नायडू का जिन्ना के प्रति soft corner रखना। सरोजिनी नायडू की पुत्री पद्मजा नायडू का जवाहर लाल नेहरु के साथ प्रणय। कट्टर पंथी जिन्ना की पत्नी का पारसी होना तथा पुत्री के पारसी हमसफर को चुनने पर जिन्ना का उसको त्याग देना। नेहरू और पटेल का इस हद तक एक दूसरे का विरोधी होना। और वहीं थोड़ा सा हिंट हुआ था मनु और गाँधी के बारे मे, जिसे पढ़ने के बाद मेरे मन में आया कि कैसे इस तरह की सोच विकसित कर लेते हैं, एक मर्यादित और महान पुरुष के लिये उसकी ही पोती के विषय में सोचना वाक़ई मेरे लिये असंभव था।


पुस्तक शुरू होती है १४ फरवरी १९२२ से, दृश्य कारागार का होता है और इसी दृश्य से मोतीलाल नेहरू के माध्यम से संगठन के आपसी वैमनस्य का पता चलता है मोतीलाल नेहरू के इस वाक्य से


"हमारा महात्मा पागल हो गया है, उसने हमारा वह आंदोलन तो रद्द कर ही दिया, तिस पर वो तुम्हे बहाने भेजता है।"


नेहरू इस वाक्य से द्रवित होते है, मुख से कुछ न कह कर मन में बहुत कुछ सोचते है,जिसमें उनका राजसी ठाठ छोड़ कर, गृहस्थ जीवन समाप्त कर के इस आंदोलन में कूदने के बाद क्या खोया क्या पाया का मंथन चलता है।



इसके बाद नेहरू और एडविना की पहली मुलाकात होती है जबकि एडविना की उम्र ३९ वर्ष एवं नेहरू की ५३ वर्ष है, ये मुलाकात होती है १९४२ में सिगापुर के कान्फ्रेंस में जहाँ एडविना भीड़ में फँस जाती है, और नेहरू के द्वारा बचाई जाती हैं। एक आम मुलाकात love at first sight बिलकुल नही। शनैः शनैः अनुभवों के साथ बढ़ने वाला परिपक्व प्रेम। जो कि कैथरीन क्लैमा द्वारा तो प्लैटोनिक ही दर्शाया गया है। अन्य लेखकों का भी यही विचार है। दोनो के बीच समझ १९४७ के बाद से पनपती है। जब माउंटबेटेन भारत आते हैं।


लॉर्ड माउंटबेटेन अपने कर्तव्यों मे फँसे इस प्रकार के व्यक्ति दिखाये गये है, जो कि अपने कार्यों के चलते अपनी पत्नी को ले कर बिलकुल भी possesive नही है। जो कि शायद एडविना को एक स्त्री के रूप में भटकाता रहता है। जो attention उन्हे पति से नही मिलता, वो अन्य स्थानो पर पाने से वो उधर खिंचती है। इस तरह नेहरू के पहले एडविना के पास पुरुष मित्रों की एक लंबी सूची है और नेहरू भी कुछ इसी रूप में विख्यात हैं। पद्मजा नायडू और उनकी मित्रता का ज़िक्र इस सिलसिले में कई बार आया है।




पता नही एक भारतीय होने के कारण पूर्वाग्रह या क्या ? मुझे पुस्तक में नेहरू और डिकी (लॉर्ड माउंटबेटेन) एडविना से अधिक आकर्षक लगे। ऐसा लगा कि वो नेहरू का व्यक्तित्व था जिस के कारण एडविना फिर कहीँ न जुड़ सकीं और डिकी का एक पति के रूप में सहयोग थाजो ये संबंध पल्लवित हो सके। अपनी बड़ी पुत्री को पत्र लिखते समय डिकी ने उसे लिखा भी है कि एडविना का स्वाभाव आश्चर्यजनक तरीके से बहुत मृदुल हो गया है, नेहरू से मिल कर और वे पारिवारिक माहौल को सुखद बनाने के लिये इस रिश्ते को अधिक से अधिक सहयोग दे रहे हैं। परंतु एडविना कभी कभी मुझे समझ में नही आईं। नेहरू के साथ मानसिक स्नेह रखने और डिकी के सहयोग पूर्ण रवैये के बावज़ूद वे डिकी की महिला मित्र के आने पर अपना वो व्यवहार संतुलित नही रख पातीं। पद्मजा से भी उनका व्यवहार सहज नही है। परंतु एक चीज जो मुझे लगी इस किताब के माध्यम से कि एडविना समाज सेवा के प्रति मन से समर्पित हैं। वो चाहे विश्व युद्ध हो या बँटवारे की त्रासदी एडविना ने अपने स्वास्थ्य और शरीर की चिंता न करते हुए प्रभावित लोगो की सेवा की और उतने दिन कोई भी भाव उन पर शासन नही करता शिवाय सेवा और समर्पण के।


एक सहज एवं मर्यादित प्रेम के रूप में इस कथा पर उँगली उठाने जैसा कुछ भी नही लगा मुझे। ६० वर्ष की अवस्था में एडविना की मृत्यु के ठीक पूर्व नेहरू को उनके पत्रों द्वारा याद करना और एडविना के शव के बगल में बिस्तर पर बिखरे हुए नेहरू के पत्रों का पाया जाना सचमुच मन को आर्द्र करता है।


गाँधी जी के चरित्र के विषय में भी इसमें काफी कुछ सोचने को मिलता है। सबसे पहले जब मैं इस किताब द्वारा गाँधी जी के विषय में कुछ सोचने को मजबूर होती हूँ, वो है कस्तूरबा का मृत्यु शैय्या पर पड़ा होना और डॉक्टरों के अत्यधिक निवेदन के बाद भी गाँधी जी का उन्हे इंजेक्शन ना लगाने देने की हठ और परिणाम स्वरूप कस्तूरबा की मृत्यु। गाँधी जी ने कस्तूरबा को इंजेक्शन नही लगने दिया क्यों कि ये प्राकृतिक नही था। बाद में उन्होने डाक्टरों से कहा कि उनकी ये मृत्यु उत्तम मृत्यु थी क्योंकि


"हम लोग ६२ साल साथ इकट्ठे रहे और उन्होने मेरे शरीर में दम तोड़ दिया, इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है" गाँधी जैसा विचारक क्या स्त्री की मौत को सौभाग्य और वैधव्य से जोड़ कर देख सकता है ? मुझे सोचना पड़ा ? फिर तो कौशल्या,कुंती, दुर्गा भाभी, इंदिरा गाँधी बहुत ही अभागन थीं। पति की मृत्यु के बाद इतने दिनो तक जीना........!


और अब अनुराग जी की पोस्ट के बाद सोचना पड़ रहा है कि इंजेक्शन लगाना अप्राकृतिक था तो क्या छोटी छोटी बच्चियों के साथ किया गया वो प्रयोग प्राकृतिक था। इससे पहले पढ़े गये सारे वृतांत याद आने लगे। गाँधी जी के आश्रम में किन्ही दो के बीच पनपे प्रेम को अवैध करार दे कर उन्हे आश्रम से निकाल देना। बा से उनका सहयोग पूर्ण नही बल्कि मालिकाना व्यवहार। मैला उठाने पर मना करने पर बा से सालों कोई संबंध न रखना। क्या पत्नी के प्रति उनकी दार्शनिकता में थोड़ी खोट नही दर्शाता। इसी पुस्तक में जब गाँधी मनु के साथ एडविना से मिलने आते हैं तो एडविना गौर करती है कि मनु बगीचे में हर कदम बड़ी सावधानी से, भयभीत सी रख रही है और उसमें बाल सुलभ प्रवृत्ति समाप्त हो चुकी है लेकिन एडविना गाँधी के विषय में कुछ भी बुरा नही सोचना चाहती।



अनुराग जी की पोस्ट में लिखी बातों को कोई झूठा नही कह रहा बल्कि बासी सच कह रहा है। परंतु मेरे लिये तो ताजा है। मैने अपने गिर्द जिनसे भी चर्चा की, उन सब के लिये ताजा है।



एक आम सकारात्मक भारतीय की तरह मैं भी बापू को राम कृष्ण के बाद का स्थान देती हूँ। लेकिन इसका ये मतलब नही कि दुनिया को रामराज देने वाले राम को सीता को वनवास देने के पाप से बरी कर दिया जायेगा। तुलसी दास मेरे बड़े प्रिय कवि हैं, लेकिन रामराज्य के बाद रामचरितमानस को समाप्त कर देना, यही तो बताता है कि हम अपने आराध्य की कमियाँ जानते हुए भी उनकी चर्चा नही करना चाहते।


राम मेरे पूज्य हैं, उनका आदर्श, उनकी मातृ पितृ भक्ति साधुजनो की रक्षा के लिये उनका धनुर्धारी व्यक्तित्व, शबर, निषाद, कोल, भील, वानर, रीछ जैसी पिछड़ी जातियों और आदिवासियों को गले लगा कर उन्हे मुख्य धारा में लाना मेरे लिये एक युगप्रवर्तक छवि बनाता है.... परंतु जिस सीता के खेत में मिलने के कारण उनके जाति पर लगे प्रश्नचिन्ह की अवहेलना करके अपनाया, जिसके लिये तीनो लोक से युद्ध लिया और ग्रहण के पूर्व परीक्षित भी किया उसे लोगो के कहने से वनवास देना, तब जब वो गर्भ से हो..नही ये तो गलत ही था..क्यों किया उन्होने ऐसा, स्वयं को सर्वोत्तम और न्यायप्रिय बताने के लिये ही ना।


युधिष्ठिर सत्यप्रिय और न्यायप्रिय राजा थे...निस्संदेह थे...! परंतु वस्तु की भाँति द्रोपदी को दाँव पर लगाने के लिये क्या उन्हे क्षमा किया जा सका..??


अपनी गलतियों को स्वीकार कर लेना बहुत बड़ा काम है...! बड़ी हिम्मत का काम...!! मुझमे तो नही है वो हिम्मत...!!! लेकिन सच स्वीकार कर लेने से पाप कम तो नही हो जाते ना...! कन्फेसिंग के बाद क्षमा ये आयातित संस्कृति का भाग है (कृपया कोई भी इसे धार्मिक टिप्पणी ना समझे, मेरे लिये सभी धर्म सम्माननीय हैं) परंतु भारत में जब दशरथ ने भूल से श्रवण कुमार को मारा, तो भी पुत्र शोक में जान गँवानी पड़ी, रावण ने भुल से ब्राह्मणों को मांस परोसा तो भी उसे राक्षस कुल में जन्म लेना पड़ा, राम ने धर्म हेतु बालि को छुप कर बहेलिये की भाँति मारा, परंतु अगले जन्म में बहेलिये के द्वारा ही मरना पड़ा, कृष्ण ने धर्म हेतु गांधारी के सौ पुत्रों को मारा लेकिन अपना कुल गँवाना पड़ा। पाप को स्वीकार करना हिम्मत का काम है, लेकिन इससे पीड़ित को न्याय नही मिलता।


गाँधी जी की एक आवाज पर पूरा राष्ट्र एकजुट हो जाता था। राष्ट्र को जिस मानसिक चेतना की ज़रूरत थी, उस नब्ज़ को उन्होने पकड़ा, राष्ट्र का हर व्यक्ति स्वतंत्रता हेतु आंदोलन में शामिल हुआ। जन क्रांति लाने वाले गाँधी ही थे। उनका ये रूप मेरे लिये पूज्य है। हर भारतवासी की तरह मैं स्वतंत्र हवा में साँस लेने हेतु उनकी ‌ॠणी हूँ, लेकिन अपनी आत्मा के विकास के लिये अपनी ही पोती का एक object के रूप में प्रयोग, मेरी नज़र में गाँधी को कटघरे में खड़ा करता है। १३ और १६ ये कोई उम्र होती है। फिर उम्र कोई भी हो किसी के महात्मा बनने के लिये किसी का कुचला जाना.....! ये तो बलि है...! नर बलि...! अहिंसा नही...!

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