13.7.13

दारिद्रय क्यों और कैसे?

अट्ठारहवीं सदी में भारत के गांवों एवं कृषि का स्वरूप क्या था, इस विषय में काफी शोध हुआ है. इससे पता चलता है कि भारत के गांवों में खेती और उद्योग दोनों चलते थे. कोई भूमिहीन मज़दूर नहीं था. छोटे किसान बड़े लोगों के यहां उनकी खेती में काम करने जाते थे, लेकिन उनके अपने पास ख़ुद की थोड़ी-सी खेती होती थी. साथ-साथ हर किसान फुरसत के समय कताई या किसी ग्रामोद्योग में हिस्सा लेता था. राजस्व के अलावा कोई खास सरकारी कर नहीं था. राजस्व की दर भारी नहीं थी और वह अनाज या जिंस में देना पड़ता था. इसलिए राजस्व देने के लिए खेती का अनाज या खेती में उत्पादित अन्य माल मंडी में बेचने के लिए बाध्यता नहीं थी. शिक्षा, चिकित्सा, तालाब, अन्य सार्वजनिक काम, धर्मस्थानों की व्यवस्था आदि के लिए ज़मीन का खासा बड़ा हिस्सा ईनामी ज़मीन के रूप में गांव-गांव में रहता था और उस पर राजस्व नहीं लिया जाता था. ऐसी ज़मीन की आमदनी से गांवों के ऊपर बताए हुए सार्वजनिक काम चलते थे. गांव के झगड़े गांव में पंच बैठकर निपटा लेते थे.
अट्ठारहवीं सदी के मध्य में इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति ने जोर पकड़ना शुरू किया. इस नई औद्योगिक उत्पादन-प्रणाली की विशेषता यह थी कि गांवों की बजाय नगरों में कच्चा माल इकट्ठा कर, बड़े-बड़े भाप से चलने वाले यंत्रों की सहायता से कारखानों में पक्का माल बनाया जाने लगा, ताकि कारखानों में काम करने वाले इन नए मज़दूरों के लिए अनाज सस्ता मिले और कारखाने के लिए आवश्यक कच्चा माल कम-से-कम क़ीमत में मिले, यह आवश्यकता इस औद्योगिक क्रांति के कारण नगरों में पैदा हुई.
साथ-साथ यह भी ख्याल में आया कि देश भर या दुनिया भर से बड़ी मात्रा में कच्चा माल इकट्ठा करने, कारखाने के लिए लगने वाली ज़मीन ख़रीद कर वहां बड़े यंत्र बैठाने, सैकड़ों मज़दूरों को इकट्ठा कर उन्हें वेतन देने, कोयले से बनी भाप पर चलने वाले इंजन बैठाने एवं उद्योग से निर्मित पक्का माल देश और दुनिया में बेचने में बहुत ख़र्च और काफी समय लगता है. कभी-कभी फैक्ट्री की स्थापना से पक्का माल बेचने तक कुछ महीने नहीं, बल्कि कुछ वर्ष निकल जाते हैं. कच्चे माल का विक्रेता या मज़दूर या व्यवस्थापक बिना वेतन या क़ीमत के इतने दिन ठहर नहीं सकते. अत: उन्हें फौरन भुगतान करना होता है. इसलिए ऐसे कारखानों में बहुत बड़ी पूंजी लगती है.
उदाहरण के लिए, वर्धा में एक सूती मिल लगाई गई है, जिसमें ढाई करोड़ रुपये की पूंजी लगी है. इस मिल में क़रीब दो-ढाई सौ लोगों को काम मिलेगा, यानी इस औद्योगिक पद्धति में एक व्यक्ति को काम देने के लिए एक लाख रुपया पूंजी चाहिए. हम दूसरा उदाहरण लें. महाराष्ट्र में सांगली जिले में चीनी का कारखाना आज स्थापित किया जाए, तो 8-9 करोड़ रुपये लगेंगे, ऐसा मुझे वहां के कारखाना-प्रमुखों ने बताया. पूछने पर पता चला कि उस कारखाने में क़रीब साढ़े आठ सौ मज़दूर, व्यवस्थापक, किरानी एवं कर्मचारी काम करते हैं, यानी एक व्यक्ति को काम पर लगाने के लिए ऐसे कारखाने में उतनी ही पूंजी, यानी एक लाख रुपया चाहिए. हम यदि फौलाद या भारी उद्योग का कारखाना स्थापित करें, तो प्रति व्यक्ति 10-12 लाख रुपया पूंजी लगेगी. लेकिन हम 18वीं सदी में चलने वाले परंपरागत चरखे की आज की क़ीमत पकड़ें, तो एक किसान-चरखे के लिए क़रीब 30 रुपया लगता है. सुधरे हुए दो तकुवे के अंबर चरखे के लिए तीन सौ और छह तकुवे के अंबर चरखे के लिए क़रीब एक हज़ार रुपया लगता है. एक करघे के लिए दो-ढाई हज़ार रुपया लगता है. यानी एक व्यक्ति को पूरा काम देने के लिए तीस रुपये से ढाई हज़ार रुपये तक की पूंजी पुराने उद्योगों में आवश्यक है. आधुनिक उद्योग में यही आंकड़ा एक लाख रुपया यानी पुराने उद्योग की तुलना में तीस से तीन सौ गुना हो जाता है.
इतनी भारी-भरकम पूंजी का संचय कहां से किया जाए, यह पिछले दो-तीन सौ सालों में अर्थशास्त्रियों और शासन के सामने जटिल प्रश्न रहा है. इसका एक उत्तर यह ढूंढा गया कि अनाज और कच्चा माल सस्ता उपलब्ध हो. वैसे ही मज़दूर भी सस्ते मिलें. इसलिए यह ज़रूरी था कि ग्रामीणों को ज़मीन से हटाया जाए, उनके गांवों के उद्योग-धंधे तोड़े जाएं और शहर में काम की तलाश में आने की अनिवार्यता ऐसे ग्रामीणों के लिए पैदा की जाए. अनाज, कच्चा माल और मज़दूर कितने भी सस्ते मिलें, तो भी काफी बड़ी पूंजी आधुनिक कारखाने के लिए आवश्यक रहेगी. इतनी बड़ी पूंजी कहां से आए? इसलिए दुनिया के दूसरे देशों से अनाज एवं कच्चा माल सस्ता उपलब्ध कराकर और उन्हें पक्का माल महंगा बेचकर जो नफा मिलेगा, उसमें से पूंजी बनाने की रीति इंग्लैंड ने खोजी. इसी समय इंग्लैंड के पास भारत एवं अन्य देशों का साम्राज्य आया. इंग्लैंड एवं यूरोप के अन्य देशों के लोग एशिया और अफ्रीका के अन्य देशों में जाकर बसने लगे और उपनिवेशों की स्थापना होने लगी. अत: इन गुलाम देशों एवं उपनिवेशों से अनाज एवं कच्चा माल सस्ता ख़रीदा जाए, इनके ग्रामीण पुराने उद्योग समाप्त किए जाएं और अपने देश के कारखानों का आधुनिक यंत्रों से बना हुआ पक्का माल इन्हें महंगा बेचा जाए, यह पद्धति निर्मित हुई. किसानों के शोषण के बीज पूंजी-निर्माण की इस अनिवार्यता में छिपे हुए हैं. इस मुनाफे में से एक कारखाने के बाद दूसरा कारखाना खुलने लगा, इसमें लगने वाली पूंजी ऐसे शोषण से पैदा होने लगी और किसानों की खेती के माल के दाम गिराए जाने लगे.
अंग्रेजों ने 18वीं सदी के अंत में राजस्व की दर भारत में कई गुना बढ़ा डाली. उन्होंने अनेक प्रकार के अप्रत्यक्ष कर लगाए. ग्रामीण उद्योग-धंधों को बड़ी क्रूरता से नष्ट किया गया. गांव के न्याय दान के अधिकार समाप्त कर ज़िला एवं तालुका मेंकोर्ट-कचहरियां स्थापित कर महंगी न्याय पद्धति जनता पर थोपी गई. हिंदू या मुस्लिम न्याय पद्धति के अनुसार, जो किसान साहूकार से लिया हुआ कर्ज समय पर लौटा नहीं सकता था, उसकी ज़मीन साहूकार रख लेता था. और 5-7 साल के कृषि के मुनाफे में से कर्ज की अदायगी कर कर्जदार को साहूकार वह खेत वापस लौटा देता था. हिंदू एवं मुस्लिम क़ानून के अनुसार, मूल धन से अधिक ब्याज नहीं लिया जा सकता था. अंग्रेजी न्याय ने यह सब बदल दिया और किसानों की ज़मीनें साहूकारों के पास कायमी तौर पर क़ानूनन जाने लगीं. राजस्व बढ़ जाने और उसकी मुद्रा में अदायगी करने की नवीन आवश्यकता पैदा हो जाने से किसान के लिए अपना माल मंडी में बेचना अनिवार्य हो गया. अनाज की फसलों के स्थान पर कारखाने के लिए लगने वाली लंबे रेशे की कपास, चीनी बनाने के लिए आवश्यक जाति का गन्ना, जूट आदि व्यापारिक फसलें पैदा करना किसान के लिए अनिवार्य होने लगा. इस प्रकार कारखाने के लिए आवश्यक माल गांवों में पैदा हो, गांव में पैदा होने वाला माल सस्ता खरीदा जाए और गांवों में भेजा जाने वाला पक्का माल महंगा बेचा जाए, ऐसी नीति शुरू हुई.

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