इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में जो फैसला सुनाया है, उसमें तीनों न्यायाधीशों-न्यायमूर्ति एसयू खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और न्यायमूर्ति डीवी शर्मा की इस बारे में अलग-अलग राय है कि बाबरी मस्जिद बनाने के लिए किसी हिन्दू मंदिर को तोड़ा गया था या नहीं।
न्यायमूर्ति श्री अग्रवाल का कहना है कि मस्जिद बनाने से पहले वहाँ स्थित एक
यह भी सही है कि कई देशों में एक समुदाय ने दूसरे समुदाय के धार्मिक स्थानों पर अपने धार्मिक केंद्रों का निर्माण किया है
गैर-इस्लामी धार्मिक ढाँचे अर्थात मंदिर को तोड़ा गया था, जबकि न्यायमूर्ति
श्री खान का कहना है कि मस्जिद एक हिन्दू मंदिर के भग्नावशेषों पर बनाई गई
थी। यह जगह काफी समय से इसी हालत में पड़ी हुई थी और मस्जिद के निर्माण में
भग्नावशेष मंदिर की सामग्री का इस्तेमाल हुआ था।तीसरे न्यायाधीश, न्यायमूर्ति डीवी शर्मा का स्पष्ट मत है कि यह मस्जिद जिस पुराने ढाँचे को ढहा कर बनाई गई, उसे भारतीय पुरातत्व संरक्षण (एएसआई) एक विराट हिन्दू धार्मिक ढाँचा साबित कर चुका है। अयोध्या फैसले के इस बिंदु पर तीनों न्यायाधीशों के अलग-अलग निष्कर्ष पढ़कर मेरा मन हुआ कि मैं बाबरनामा में यह ढूँढने की कोशिश करूँ कि क्या बाबर के विचार मोहम्मद गजनवी और मोहम्मद गौरी की तरह मंदिरों को लूटने और उन्हें नष्ट करने वाले थे।
बाबर के खुद लिखे हुए संस्मरणों का हिन्दी अनुवाद बाबरनामा के नाम से साहित्य अकादमी ने 1974 में प्रकाशित किया था। अनुवादक युगजीत नवलपुरी हैं। ये संस्मरण अपनी कहानी स्वयं कहते हैं और अँगरेजी संस्मरण की भूमिका में एफजी टैलबोट ने लिखा है कि विद्वानों ने इन संस्मरणों को संत अगस्टीन और रूसो की स्वीकारोक्तियों के समकक्ष स्थान दिया है।
इस किताब में बाबर हिन्दुओं को काफिर तो जरूर लिखते हैं, लेकिन कहीं भी ऐसे वर्णन नहीं मिलते हैं, जिससे यह साबित हो कि मंदिरों को तोड़कर मस्जिदों का निर्माण करना उनका खास शगल रहा हो। बाबर की आत्मकथा का तुर्की भाषा से अँगरेजी में अनुवाद एएस बेवरिज ने किया है, जिसमें कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण उनके फौजी जनरल मीर बाकी ने उनके कहने पर कराया था। बाबर लड़ाई लड़ते हुए अवध भी गया।
इस किताब में सरयू नदी का जिक्र आया है पर किताब में कहीं भी न तो अयोध्या का जिक्र है और न भगवान राम का। अलबत्ता बाबर ने हिन्दुओं को बुतपरस्त के रूप में जरूर दर्शाया है। बाबरनामा पृष्ठ 480 पर बाबर ने लिखा है-'सोमवार को अवध की ओर कूच हुआ। दस कोस चल कर सरू (सरयू) किनारे फतेहपुर (यह स्थान आजमगढ़ जिले का नाथपुर होना चाहिए) के गाँव कालरा में उतर गया। यहाँ कई दिन बड़े चैन से बीते। बाग हैं, नहरें हैं, बड़ी अच्छी-अच्छी काट के मकान हैं, पेड़ हैं, सबसे बढ़कर अमराइयाँ हैं, रंगबिरंगी चिड़ियाँ हैं-जी बहुत लगा।'
'फिर गाजीपुर की ओर कूच का हुकुम हुआ...जो लोग पहले ही चल निकले थे, वे राह भटक गए। फतेहपुर (नाथपुर) की बड़ी झील, ताल रतोई नाथपुर जा पहुँचे ।' आगे लिखा है कि रात झील पर बिताने के बाद पौ फटते ही हम चले। आधा रास्ता चलकर मैं आसाइश में बैठा और उसे उजानी खिंचवाया।
'कुछ और ऊपर खलीफा शाह मोहम्मद दीवाना के बेटे को लाया। वह बाकी (मीर बाकी) के पास से लखनूर (लखनऊ) का पक्का हाल लाया था। उन्होंने (विद्राही शेख बायजीद और बीबन) सनीचर तेरहवीं (21मई) को हमला किया पर लड़ाई से वे कुछ कर न सके।'
पृष्ठ 481 पर बाबर ने लिखा है, 'आज हम दस कोस चले। सगरी परगने में सरू (सरयू) के किनारे जलेसर (चकसर, जिला आजमगढ़) नाम के गाँव में उतरे।' आगे लिखते हैं- 'जुमेरात को सबेरे वहाँ से चले। ग्यारह कोस चलकर परसरू (मूल सरयू) पार की और किनारे पर ही उतरे। रात को मैं परसरू में नहाने गया। लोग पानी पर मशालें दिखा रहे थे। मछलियाँ मशालों के पास उतर आती थीं।
इस ढंग से बहुत मछली पकड़ी गईं। मैंने भी पकड़ी। जुमा (शुक्रवार) को उसी नदी से फूटी एक बहुत सी पतली धार के किनारे उतरे। लशकर के आने-जाने से धार गंदली होने का अंदेशा था। इसलिए मैंने उसे कुछ ऊपर ही बंधवा कर नहाने के लिए एक दह-दर-दह बनवा दिया। रात को वहीं रहे। सबेरे चले और टौंस (फैजाबाद के ऊपर घाघरा से निकली नदी) पार करके उसके किनारे उतरे।' इसी इलाके में मंगल के रोज बाबर ने ईद मनाने की बात भी की है।
बाबर ने हिन्दुस्तान का लंबा-चौड़ा वर्णन किया है। पृष्ठ 352 पर उसने लिखा है-'मेरी
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बाबर ने लिखा है- 'हिन्दुस्तान कमाल का मुल्क है। हमें तो बात-बात पर अचंभा होता है। दूसरी ही दुनिया है। जंगल, पहाड़, नदी-नाले, रेगिस्तान, शहर, खेत, जानवर, पेड़-पौधे, लोग, बोलियाँ, बरसातें, हवाएँ, सब और ही और हैं, कुछ बातों में तो काबुल का गर्म-सैर (मौसम) यहाँ से मिलता-जुलता है। पर उन कुछ बातों को छोड़ बिल्कुल निराला है। सिंध पार करते ही मिट्टी, पानी, पेड़, चट्टान, लोग, उलूस, उनकी रायें और बातें, उनकी सोच-समझ, उनके रंग-ढंग और रस्म-रिवाज सब और ही ढंग के मिलने लगते हैं।'
हिन्दुस्तान के पहाड़ों, नदियों, शहरों, देहातों, जंगली जानवरों, चिड़ियों, घड़ियालों, मछलियों के साथ-साथ फलों, फूलों का उन्होंने लंबा वर्णन किया है। यह भी बताया है कि यहाँ समय किस तरह से नापा जाता है और हिन्दुस्तानी नाप-तौल कैसे करते हैं। एक जगह उन्होंने लिखा है कि भारत में सौ पदुम का एक सांग (शंख) का होना यह बताता है कि हिन्दुस्तानी बहुत मालदार हैं।
पृष्ठ 369 पर बाबर लिखते हैं, 'अक्सर हिन्दुस्तानी बुत पूजते हैं, वे हिन्दू कहलाते हैं। तनासुख (ब्रह्मांश आत्मा) के आवागमन यानी पुनर्जन्म का सिद्धांत मानते हैं। सब कारीगर, मजूर और ओहदेदार हिन्दू हैं। हमारे मुल्कों में घुमंतू लोगों के हर कबीले का अलग नाम है। पर यहाँ तो बसे हुए लोगों में कितने ही अलग-अलग नाम हैं (जात-पात के नाम) और हर हुनर का आदमी अपना ही धंधा करता है।'
पृष्ठ 370 पर बाबर ने लिखा है-'जफरनामा में मुल्ला शरक ने कहा है कि तैमूर बेग ने संगीन मस्जिद बनवाई तो आजरबायजान (अजरबैजान, फारस (ईरान), हिन्दुस्तान और दूसरे मुल्कों के 200 संगतराशों से काम लिया। (यह तादाद उन्हें बहुत बड़ी लगी) पर आगरा की मेरी इमारतों पर रोजाना आगरा के ही 680 संगतराश काम करते थे। आगरा, सीकरी, बियाना, धौलपुर, ग्वालियर और कोइल के मेरे मकानों में रोजाना 1491 संगतराश लगे थे।'
बाबर ने लिखा है कि हिन्दुस्तान और उसके लोगों की जो बातें अब तक पक्के तौर पर मालूम हुईं, लिख दीं। आगे लिखने की जो भी देखूँ-सुनूँगा, लिख दूँगा।
जाहिर है कि बाबर ने भारत के मंदिरों, देवताओं, पवित्र धार्मिक स्थानों का वर्णन नहीं किया है। यह बात भी अपने-आप में विचित्र लगती है कि रामचरित मानस जैसा कालजयी ग्रंथ लिखने वाले गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहीं भी बाबरी मस्जिद का उल्लेख नहीं किया। बाबरी मस्जिद 1528 ई.में बनाई गई। अकबर 1565 ई. में गद्दी पर बैठा था और रहीम खानखाना अकबर के दरबार में थे।
वही समय मीरा बाई का भी है, जिनका तुलसीदास के साथ पत्र-व्यवहार हुआ था।
आज
का भारत युवा, जागरूक और प्रगतिकामी भारत है। हमें यह सोचना चाहिए कि
आस्था के नाम पर इतिहास को बदला नहीं जा सकता। इसे पीछे छोड़कर हमें आगे
देखना चाहिए। यही आधुनिक भारत का तकाजा है
तो सवाल यह उठता है कि उस समय के किसी भी भक्त कवि ने बाबरी मस्जिद का
जिक्र क्यों नहीं किया। उनसे पहले कबीरदास धार्मिक जड़ता और कूप-मंडूकता की
निंदा कर चुके थे। उनकी कविताओं में मंदिर-मस्जिद, मुल्ला-मौलवी जैसे तमाम
शब्दों का प्रयोग हुआ है या तो भक्त कवि बेहद आत्मकेंद्रित थे या फिर राम
मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाने का काम बहुत पहले नहीं हुआ होगा। बहरहाल। यह भी सही है कि कई देशों में एक समुदाय ने दूसरे समुदाय के धार्मिक स्थानों पर अपने धार्मिक केंद्रों का निर्माण किया है। दिल्ली में कुतुबमीनार को ही देखें तो उसके बाहर यह लिखा हुआ मिलेगा कि कैसे जैन और बौद्ध मंदिरों को तोड़ कर लाई गई सामग्री से यहाँ निर्माण हुआ। मथुरा, काशी और अयोध्या हिन्दुओं के ही नहीं, जैनों और बौद्धों के भी महत्वपूर्ण नगर माने जाते हैं।
इतिहास के दौर में मंदिर टूटे और बने और जिस धर्म का असर रहा उसने भग्नावशेषों पर अपने धार्मिक स्थल बनाए। तो यह संभव है कि बाकायदा हिन्दू मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई गई होगी, लेकिन क्या एक धर्म-निरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत में आस्था के नाम पर वही घटनाएँ दोहराई जानी चाहिए, जो मध्यकाल में हुईं? और किस-किस को आस्था के नाम पर तोड़कर आप अपने मंदिर वहाँ बनाएँगे। मामला कहाँ जाकर रुकेगा?
केंद्र सरकार ने अयोध्या को छोड़कर सभी धार्मिक स्थलों को 1947 के पहले की स्थिति में रखने का कानून पास किया है। मगर आस्था के नाम पर एक बार यह सिलसिला शुरू हो गया तो पता नहीं कहाँ जाकर रुकेगा। आज का भारत युवा, जागरूक और प्रगतिकामी भारत है। हमें यह सोचना चाहिए कि आस्था के नाम पर इतिहास को बदला नहीं जा सकता। इसे पीछे छोड़कर हमें आगे देखना चाहिए। यही आधुनिक भारत का तकाजा है।
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