कोयला खदान के लाइसेंस बांटने में किसके हाथ काले
Thursday, August 23, 2012, 17:57
टैग्स:: कोयला खदान, लाइसेंस बांटने, हाथ, काले, सरकार, निजी उद्योग, सरकारी तंत्र, पुण्य प्रसून बाजपेयी
"बापू कुटिया से लेकर टाइगर प्रोजेक्ट तक की जमीन तले कोयला खादान"
इंदिरा गांधी ने 1973 में कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया तो मनमोहन सिंह ने 1995 में ही बतौर वित्त मंत्री कोल इंडिया लिमिटेड से कहा कि सरकार के पास देने के लिए धन नहीं है। और उसके बाद कोल इंडिया में दोबारा ठेके पर काम होने लगा। और पावर-स्टील उघोग के लिये कोयला खादान एक बार फिर निजी हाथों में जाने लगा।
असल में कैग की रिपोर्ट इन्ही निजी हाथों में खदान देने के लिये अगर बोली ना लगाये जाने पर अंगुली उठाकर 1.86 लाख करोड़ के राजस्व के चूने की बात कर रही है। तो इससे इतर एक दूसरा सवाल इस घेरे में छिप भी रहा है और वह है खादान का लाइसेंस पाने की होड़ में ही कमाई खोजना। और पर्यावरण को ताक पर रखकर खदानों को बांटना। क्योंकि टाइगर रिजर्व के क्षेत्र में भी कोयला खनन होगा और झारखंड से लेकर बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में आदिवासियों की जमीन पर कोयला खनन की इजाजत देकर आदिवासियों की कई प्रजातियो के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगेगा।
इतना ही नहीं, महाराष्ट्र के वर्धा में जिस बापू कुटिया के लेकर देश संवेदनशील रहता है, उस वर्धा में साठ वर्ग की जमीन के नीचे खदान खोद दी जायेगी। असल में विकास की जिन नीतियों को सरकार लगातार हरी झंडी दे रही है उसमें पावर प्लांट से लेकर स्टील उघोग के लिये कोयले की जरुरत है। और कोयले से करोड़ों का वारा-न्यारा कर मुनाफा बनाने में चालिस से ज्यादा कंपनिया सिर्फ इसीलिये बन गयी जिससे उन्हें कोयला खादान का लाइसेंस मिल जाए।
और 2005-09 के दौरान कोयला खादानों के लाइसेंस का बंदरबांट जिस तर्ज पर जिन कंपनियों को हुआ है, अगर उसकी फेरहिस्त देखे और लाइसेंस लेने-देने के तौर तरीके देखे तो पहला सवाल यही उठेगा कि लाइसेंस ले कर लाइसेंस बेचना भी धंघा हो गया। क्योंकि न्यूनतम पांच करोड़ के खेल में जब किसी भी कंपनी को एक ब्रेकेट खादान मिलता रहा है तो 2005-09 के दौरान देश भर में डेढ़ हजार से ज्यादा कोयला खदान के ब्रेकेट का लाइसेंस दिया गया है तो इन सभी को जोड़ने पर कितने लाख करोड़ के राजस्व का चूना लगा होगा इसकी कल्पना भर ही की जा सकती है।
असल में पहले कोयला मंत्रालय खादानो को बांटता था और लाइसेंस लेने के बाद कंपनियो को पर्यावरण मंत्रालय से एनओसी लेना पड़ाता था। लेकिन अब जिसे भी कोयले खादान का लाईसेंस मिलेगा, उसे किसी मंत्रालय के पास जाने की जरुरत नहीं रहेगी। क्योंकि मंत्रियो के समूह में पर्यावरण मंत्रालय का एक नुमाइंदा भी रहेगा। लेकिन यह हर कोई जानता है कि मंत्रियों के फैसले नियम-कायदों से इतर बहुमत पर होते हैं। यानी पर्यावरण मंत्रालय ने अगर यह चाहा कि वर्धा में गांधी कुटिया के इर्द-गिर्द कोयला खादान ना हो या फिर किसी टाइगर रिजर्व में कोयला खादान ना हो तो भी उसे हरी झंडी मिल सकती है क्योकि मंत्रियों के समूह में वित्त ,वाणिज्य और कृषि मंत्री की इस पर सहमति हो कि कोयला खदानों के जरीये ही उघोग के क्षेत्र में विकास हो सकता है।
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीते 2004 से 2009 तक में 342 खदानों के लाइसेंस बांटे गये। जिसमें 101 लाइसेंसधारकों ने कोयले का उपयोग पावर प्लांट लगाने के लिये लिया। लेकिन इन पांच सालों में इन्हीं कोयला खादानो के जरीये कोई पावर प्लांट नया नही आ पाया। और इन खदानों से जितना कोयला निकाला जाना था अगर उसे जोड़ दिया जाये तो देश में कही भी बिजली की कमी होनी नहीं चाहिए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यानी एक सवाल खड़ा हो सकता है कि क्या कोयला खदान के लाइसेंस उन कंपनियों को दे दिए गए, जिन्होंने लाइसेंस इसीलिए लिए कि वक्त आने पर खादान बेचकर वह ज्यादा कमा लें। तो यकिनन लाइसेंस जिन्हें दिया गया उनकी सूची देखने पर साफ होता है कि खदान का लाइसेंस लेने वालों में म्यूजिक कंपनी से लेकर गुटका, गंजी और अखबार निकालने से लेकर मिनरल वाटर का धंधा करने वाली कंपनी भी है।
इतना ही नही, दो दर्जन से ज्यादा ऐसी कंपनियां हैं, जिन्हे ना तो पावर सेक्टर का कोई अनुभव है और ना ही कभी खादान से कोयला निकालवाने का कोई अनुभव। कुछ लाइसेंस धारकों ने तो कोयले के दम पर पावर प्लांट का भी लाइसेंस ले लिया और अब वह उन्हें भी बेच रहे हैं। मसलन सिंगरौली के करीब तीन पावर प्लांट और छह खदाने बिकने को तैयार हैं। एस्सार इन्हें खरीदना चाहता है और जो बेचना चाहते है वह लगायी जा रही कीमत से ज्यादा मुनाफा चाहते हैं। वही बंगाल, महाराष्ट्र,छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, गोवा से लेकर उडिसा तक कुल 9 राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने कामिशियल यूज के लिये कोयला खादानो का लाइसेंस लिया है। और हर राज्य खदानों को या फिर कोयले को उन कंपनियों या कारपोरेट घरानो को बेच रहा है, जिन्हें कोयले की जरुरत है।
इस पूरी फेरहिस्त में डोमको स्मोक लैस फ्यूल लि., श्री बैघनाथ आर्युवेद भवन लि., जय बालाजी इडस्ट्री लिमेटेड, अक्षय इन्वेस्टमेंट लि., महावीर फेरो, प्रकाश इडस्ट्री, पवनजय स्टील, श्याम ओआरआई लि. समेत 42 कंपनिया ऐसी हैं, जिन्होंने कोयला खदान का लाइसेंस लिया है, लेकिन उन्होंने कभी खादानो की तरफ झांका भी नहीं। और इनके पास कोई अनुभव ना तो खदानो को चलाने का है और ना ही खदानो के नाम पर पावर प्लांट लगाने का। यानी लाइसेंस लेकर अनुभवी कंपनी को लाइसेंस बेचने का यह धंधा भी आर्थिक सुधार का हिस्सा है। ऐसे में मंत्रियों के समूह के जरीये फैसला लेने पर सरकार ने हरी झंडी क्यो दिखायी यह समझना भी कम त्रासदीदायक नहीं है।
जयराम रमेश ने 2010 में सिर्फ एक ही कंपनी सखीगोपाल इंटीग्रेटेड पावर कंपनी लि., को ही लाइसेंस दिये जाने पर सहमति जताई। लेकिन उनके पर्यावरण मंत्री बनने से पहले औसतन हर साल 35 से 50 लाइसेंस 2005-09 के दौरान बांटे गए। असल में जयराम रमेश के बतौर पर्यावरण मंत्री की आपत्तियों को भी समझना होगा कि उन्होंने अडानी ग्रूप का लाइसेंस इसलिए रद्द किया क्योकि वह ताडोबा के टाइगर रिजर्व के घेरे में आ रहा था। लेकिन अब हालात उल्टे है क्योकि इस वक्त कोयला मंत्रालय के पास 148 जगहों के खदान बेचने के लिए पड़े हैं। इसमें मध्यप्रदेश के पेंच कन्हान का वह इलाका भी है जहा टाइगर रिजर्व है। पेंच कन्हान के मंडला, रावणवारा,सियाल घोघोरी और ब्रह्मपुरी का करीब 42 वर्ग किलोमीटर में कोयला खदान निर्धारित किया गया है। इस पर कौन रोक लगाएगा यह दूर की गोटी है। लेकिन कोयला खदानो को जरिये मुनाफा बनाने का खेल वर्धा को कैसे बर्बाद करेगा, इसकी भी पूरी तैयारी सरकार ने कर रखी है।
महाराष्ट्र में अब कहीं कोयला खादान बेचने की जगह बची है तो वह वर्धा है। इससे पहले वर्धा में बापू कुटिया के दस किलोमीटर के भीतर पावर प्लांट लगाने की हरी झंडी राज्य सरकार ने दी। तो अब बापू कुटिया और विनोबा भावे केन्द्र की जमीन के नीचे की कोयला खादान का लाइसेंस बेचने की तैयारी हो चुकी है। वर्धा के 14 क्षेत्रों में कोयला खादान खोजी गई है।
किलौनी, मनौरा,बांरज, चिनौरा,माजरा, बेलगांवकेसर डोगरगांव,भांडक पूर्वी,दक्षिण वरोरा,जारी जमानी, लोहारा, मार्की मंगली से लेकर आनंदवन तक का कुल छह हजार वर्ग किलोमिटर से ज्यादा का क्षेत्र कोयला खादान के घेरे में आ जाएगा। यानी वर्धा की यह सभी खादानो में जिस दिन काम शुरू हो गया उस दिन से वर्धा की पहचान नये झरिया के तौर पर हो जाएगी। झरिया यानी झारखंड में धनबाद के करीब का वह इलाका जहा सिर्फ कोयला ही जमीन के नीचे धधकता रहता है। और यह शहर कभी भी ध्वस्त हो सकता है इसकी आशंका भी लगातार है।
खास बात यह है कि कोयला मंत्रालय ने वर्धा की उन खादानो को लेकर पूरा खाका भी दस्तावेजों मंष खींच लिया है। मसलन वर्धा की जमीन के नीचे कुल 4781 मिट्रिक टन कोयला निकाला जा सकता है। जिसमें 1931 मिट्रिक टन कोयला सिर्फ आनंदवन के इलाके में है। इसी तरह आदिवासियों के नाम पर उडीसा में खादान की इजाजत सरकार नहीं देती है लेकिन कोयला खदानों की नयी सूची में झरखंड के संथालपरगना इलाके में 23 ब्लाक कोयला खादान के चुने गये हैं। जिसमें तीन खादान तो उस क्षेत्र में है जहा आदिवासियो की लुप्त होती प्रजाति पहाड़िया रहती है। राजमहल क्षेत्र के पचवाडा,और करनपुरा के पाकरी व चीरु में नब्बे फीसदी आदिवासी हैं। लेकिन सरकार अब यहा भी कोयला खादान की इजाजत देने को तैयार है।
वहीं, बंगाल में कास्ता क्षेत्र में बोरेजोरो और गंगारामाचक दो ऐसे इलाके हैं जंहा 75 फिसदी से ज्यादा आदिवासी हैं। वहां पर भी कोयला खादाना का लाइसेंस अगले चंद दिनो में किसी ना किसी कंपनी को दे दिया जाएगा। कैग रिपोर्ट आने के बाद किसी घोटाले का कोई आरोप कोयला मंत्रालय पर ना लगे इसके लिए 148 कोयला खदानो के लिए अब बोली लगाने वाला सिस्टम लागू किया जा रहा है। लेकिन जिन इलाको में कोयला खोजा गया है इस बार वहीं इलाके कटघरे में हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.