- http://www.chauthiduniya.com/2011/04/biggest-scam-of-india.html
क्या
सर्वोच्च न्यायालय इस महाघोटाले को अनदेखा कर देगा? संसद से हमें बहुत
ज़्यादा आशा नहीं है, क्योंकि उसकी समझ में जब तक आएगा, तब तक उसके 5 साल
पूरे हो जाएंगे. जनता बेबस है, उसे हमेशा एक महानायक की तलाश रहती है और अब
महानायक पैदा होने बंद हो चुके हैं. अब एक ही महानायक है और वह है देश का
सुप्रीम कोर्ट, उसी के चेतने का इंतज़ार है.
अगर 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला देश के सभी घोटालों की जननी है तो आज जिस
घोटाले का चौथी दुनिया पर्दाफाश कर रहा है, वह देश में हुए अब तक के सभी
घोटालों का पितामह है. चौथी दुनिया आपको अब तक के सबसे बड़े घोटाले से
रूबरू करा रहा है. देश में कोयला आवंटन के नाम पर करीब 26 लाख करोड़ रुपये
की लूट हुई है. सबसे बड़ी बात है कि यह घोटाला प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
के कार्यकाल में ही नहीं, उन्हीं के मंत्रालय में हुआ. यह है कोयला
घोटाला. कोयले को काला सोना कहा जाता है, काला हीरा कहा जाता है, लेकिन
सरकार ने इस हीरे का बंदरबांट कर डाला और अपने प्रिय-चहेते पूंजीपतियों एवं
दलालों को मुफ्त ही दे दिया. आइए देखें, इतिहास की सबसे बड़ी लूट की पूरी
कहानी क्या है.
सबसे पहले समझने की बात यह है कि देश में कोयला उत्खनन के संबंध में
सरकारी रवैया क्या रहा है. 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा
गांधी ने दूरदर्शिता दिखाते हुए देश में कोयले का उत्खनन निजी क्षेत्र से
निकाल लिया और इस एकाधिकार को सरकार के अधीन कर दिया.
प्रधानमंत्री ने टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की ज़िम्मेदारी
मंत्री पर डाल दी. उन्हें कुछ मालूम ही नहीं था. आदर्श घोटाला और कॉमनवेल्थ
घोटाला भी दूसरों ने किया, लेकिन अब उनके ही कोयला मंत्री रहते हुए जो महा
घोटाला हुआ, उसकी ज़िम्मेदारी किस पर डाली जाएगी? इस सवाल का जवाब जनता
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ज़रूर जानना चाहेगी.
मतलब इसका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. शायद इसी कारण देश में कोयले का
उत्पादन दिनोंदिन बढ़ता गया. आज यह 70 मिलियन मीट्रिक टन से बढ़कर लगभग 493
(2009) मिलियन मीट्रिक टन हो गया है. सरकार द्वारा कोयले के उत्खनन और
विपणन का एकाधिकार कोल इंडिया लिमिटेड को दे दिया गया है. इस कारण अब कोयला
नोटिफाइड रेट पर उपलब्ध है, जिससे कोयले की कालाबाज़ारी पर बहुत हद तक
नियंत्रण पा लिया गया. लेकिन कैप्टिव ब्लॉक (कोयले का संशोधित क्षेत्र) के
नाम पर कोयले को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की सरकारी नीति से इसे बहुत
बड़ा धक्का पहुंचा और यह काम यूपीए सरकार की अगुवाई में हुआ है.
सबसे बड़ी बात है कि यह घोटाला सरकारी फाइलों में दर्ज है और सरकार के
ही आंकड़े चीख-चीखकर कह रहे हैं कि देश के साथ एक बार फिर बहुत बड़ा धोखा
हुआ है. यह बात है 2006-2007 की, जब शिबू सोरेन जेल में थे और प्रधानमंत्री
ख़ुद ही कोयला मंत्री थे. इस काल में दासी नारायण और संतोष बागडोदिया
राज्यमंत्री थे. प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कोयले के संशोधित क्षेत्रों
को निजी क्षेत्र में सबसे अधिक तेजी से बांटा गया. सबसे बड़ी बात यह है कि
ये कोयले की खानें सिर्फ 100 रुपये प्रति टन की खनिज रॉयल्टी के एवज़ में
बांट दी गईं. ऐसा तब किया गया, जब कोयले का बाज़ार मूल्य 1800 से 2000
रुपये प्रति टन के ऊपर था. जब संसद में इस बात को लेकर कुछ सांसदों ने
हंगामा किया,
स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने दूरदर्शिता दिखाते हुए देश में कोयले का
उत्खनन निजी क्षेत्र से निकाल लिया और इस एकाधिकार को सरकार के अधीन कर
दिया. मतलब इसका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. शायद इसी कारण देश में कोयले का
उत्पादन दिनोंदिन बढ़ता गया. आज यह 70 मिलियन मीट्रिक टन से बढ़कर लगभग
493 (2009) मिलियन मीट्रिक टन हो गया है. सरकार द्वारा कोयले के उत्खनन और
विपणन का एकाधिकार कोल इंडिया लिमिटेड को दे दिया गया है. इस कारण अब कोयला
नोटिफाइड रेट पर उपलब्ध है, जिससे कोयले की कालाबाज़ारी पर बहुत हद तक
नियंत्रण पा लिया गया. लेकिन कैप्टिव ब्लॉक (कोयले का संशोधित क्षेत्र) के
नाम पर कोयले को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की सरकारी नीति से इसे बहुत
बड़ा धक्का पहुंचा और यह काम यूपीए सरकार की अगुवाई में हुआ है.
तब शर्मसार होकर सरकार ने कहा कि माइंस और मिनरल (डेवलपमेंट एंड
रेगुलेशन) एक्ट 1957 में संशोधन किया जाएगा और तब तक कोई भी कोयला खदान
आवंटित नहीं की जाएगी. 2006 में यह बिल राज्यसभा में पेश किया गया और यह
माना गया कि जब तक दोनों सदन इसे मंजूरी नहीं दे देते और यह बिल पास नहीं
हो जाता, तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी. लेकिन यह विधेयक
चार साल तक लोकसभा में जानबूझ कर लंबित रखा गया और 2010 में ही यह क़ानून
में तब्दील हो पाया. इस दरम्यान संसद में किए गए वादे से सरकार मुकर गई और
कोयले के ब्लॉक बांटने का गोरखधंधा चलता रहा. असल में इस विधेयक को लंबित
रखने की राजनीति बहुत गहरी थी. इस विधेयक में साफ़-साफ़ लिखा था कि कोयले
या किसी भी खनिज की खदानों के लिए सार्वजनिक नीलामी की प्रक्रिया अपनाई
जाएगी. अगर यह विधेयक लंबित न रहता तो सरकार अपने चहेतों को मुफ्त कोयला
कैसे बांट पाती. इस समयावधि में लगभग 21.69 बिलियन टन कोयले के उत्पादन
क्षमता वाली खदानें निजी क्षेत्र के दलालों और पूंजीपतियों को मुफ्त दे दी
गईं. इस दरम्यान प्रधानमंत्री भी कोयला मंत्री रहे और सबसे आश्चर्य की बात
यह है कि उन्हीं के नीचे सबसे अधिक कोयले के ब्लॉक बांटे गए. ऐसा क्यों
हुआ? प्रधानमंत्री ने हद कर दी, जब उन्होंने कुल 63 ब्लॉक बांट दिए. इन चार
सालों में लगभग 175 ब्लॉक आनन-फानन में पूंजीपतियों और दलालों को मुफ्त
में दे दिए गए.
वैसे बाहर से देखने में इस घोटाले की असलियत सामने नहीं आती, इसलिए चौथी
दुनिया ने पता लगाने की कोशिश की कि इस घोटाले से देश को कितना घाटा हुआ
है. जो परिणाम सामने आया, वह स्तब्ध कर देने वाला है. दरअसल निजी क्षेत्र
में कैप्टिव (संशोधित) ब्लॉक देने का काम 1993 से शुरू किया गया. कहने को
ऐसा इसलिए किया गया कि कुछ कोयला खदानें खनन की दृष्टि से सरकार के लिए
आर्थिक रूप से कठिन कार्य सिद्ध होंगी. इसलिए उन्हें निजी क्षेत्र में देने
की ठान ली गई. ऐसा कहा गया कि मुना़फे की लालसा में निजी उपक्रम इन
दूरदराज़ की और कठिन खदानों को विकसित कर लेंगे तथा देश के कोयला उत्पादन
में वृद्धि हो जाएगी. 1993 से लेकर 2010 तक 208 कोयले के ब्लॉक बांटे गए,
जो कि 49.07 बिलियन टन कोयला था. इनमें से 113 ब्लॉक निजी क्षेत्र में 184
निजी कंपनियों को दिए गए, जो कि 21.69 बिलियन टन कोयला था. अगर बाज़ार
मूल्य पर इसका आकलन किया जाए तो 2500 रुपये प्रति टन के हिसाब से इस कोयले
का मूल्य 5,382,830.50 करोड़ रुपये निकलता है. अगर इसमें से 1250 रुपये
प्रति टन काट दिया जाए, यह मानकर कि 850 रुपये उत्पादन की क़ीमत है और 400
रुपये मुनाफ़ा, तो भी देश को लगभग 26 लाख करोड़ रुपये का राजस्व घाटा हुआ.
तो यह हुआ घोटालों का बाप. आज तक के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला और शायद
दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला होने का गौरव भी इसे ही मिलेगा. तहक़ीक़ात के
दौरान चौथी दुनिया को कुछ ऐसे दस्तावेज हाथ लगे, जो चौंकाने वाले खुलासे कर
रहे थे. इन दस्तावेजों से पता चलता है कि इस घोटाले की जानकारी सीएजी
(कैग) को भी है. तो सवाल यह उठता है कि अब तक इस घोटाले पर सीएजी चुप क्यों
है?
देश की खनिज संपदा, जिस पर 120 करोड़ भारतीयों का समान अधिकार है, को
इस सरकार ने मुफ्त में अनैतिक कारणों से प्रेरित होकर बांट दिया. अगर इसे
सार्वजनिक नीलामी प्रक्रिया अपना कर बांटा जाता तो भारत को इस घोटाले से
हुए 26 लाख करोड़ रुपये के राजस्व घाटे से बचाया जा सकता था और यह पैसा
देशवासियों के हितों में ख़र्च किया जा सकता था.
यह सरकार जबसे सत्ता में आई है, इस बात पर ज़ोर दे रही है कि विकास के
लिए देश को ऊर्जा माध्यमों के दृष्टिकोण से स्वावलंबी बनाना ज़रूरी है.
लेकिन अभी तक जो बात सामने आई है, वह यह है कि प्रधानमंत्री और बाक़ी कोयला
मंत्रियों ने कोयले के ब्लॉक निजी खिलाड़ियों को मुफ्त में बांट दिए. जबकि
इस सार्वजनिक संपदा की सार्वजनिक और पारदर्शी नीलामी होनी चाहिए थी.
नीलामी से अधिकाधिक राजस्व मिलता, जिसे देश में अन्य हितकारी कार्यों में
लगाया जा सकता था, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया. जब इस मामले को संसद में
उठाया गया तो सरकार ने संसद और लोगों को गुमराह करने का काम किया. सरकारी
विधेयक लाने की बात कही गई, जिसके तहत यह नीलामी की जा सकेगी, लेकिन यह
विधेयक चार साल तक लोकसभा में लंबित रखा गया, ताकि सरकार के जिन निजी
खिलाड़ियों के साथ काले संबंध हैं, उन्हें इस दरम्यान कोयले के ब्लॉक
जल्दी-जल्दी बांटकर ख़त्म कर दिए जाएं. इसमें कितनी रकम का लेन-देन हुआ
होगा, यह ज़ाहिर सी बात है.
लेकिन अनियमितताएं यहीं ख़त्म नहीं हो जातीं. एक ऐसी बात सामने आई है,
जो चौंका देने वाली है. सरकारी नियमों के अनुसार, कोयले के ब्लॉक आवंटित
करने के लिए भी कुछ नियम हैं, जिनकी साफ़ अनदेखी कर दी गई. ब्लॉक आवंटन के
लिए कुछ सरकारी शर्तें होती हैं, जिन्हें किसी भी सूरत में अनदेखा नहीं
किया जा सकता. ऐसी एक शर्त यह है कि जिन खदानों में कोयले का खनन सतह के
नीचे होना है, उनमें आवंटन के 36 माह बाद (और यदि वन क्षेत्र में ऐसी खदान
है तो यह अवधि छह महीने बढ़ा दी जाती है) खनन प्रक्रिया शुरू हो जानी
चाहिए. यदि खदान ओपन कास्ट किस्म की है तो यह अवधि 48 माह की होती है.
(जिसमें वन क्षेत्र हो तो पहले की तरह ही छह महीने की छूट मिलती है.) अगर
इस अवधि में काम शुरू नहीं होता है तो खदान मालिक का लाइसेंस रद्द कर दिया
जाता है. समझने वाली बात यह है कि इस प्रावधान को इसलिए रखा गया है, ताकि
खदान और कोयले का उत्खनन बिचौलियों के हाथ न लगे, जो सीधे-सीधे तो कोयले का
काम नहीं करते, बल्कि खदान ख़रीद कर ऐसे व्यापारियों या
उद्योगपतियों को बेच देते हैं, जिन्हें कोयले की ज़रूरत है. इस गोरखधंधे
में बिचौलिए मुंहमांगे और अनाप-शनाप दामों पर खदानें बेच सकते हैं. लेकिन
सरकार ने ऐसी कई खदानों का लाइसेंस रद्द नहीं किया, जो इस अवधि के भीतर
उत्पादन शुरू नहीं कर पाईं. ऐसा इसलिए, क्योंकि आवंटन के समय बहुत बड़ी
मात्रा में ऐसे ही बिचौलियों को खदानें आवंटित की गई थीं, ताकि वे उन्हें
आगे चलकर उद्योगपतियों को आसमान छूती क़ीमतों पर बेच सकें. अब यदि सरकार और
बिचौलियों के बीच साठगांठ नहीं थी तो ऐसा क्यों किया गया? यह काम
श्रीप्रकाश जायसवाल का है, लेकिन आज तक उन्होंने इस पर कोई कार्रवाई नहीं
की है. 2003 तक 40 ब्लॉक बांटे गए थे, जिनमें अब तक सिर्फ 24 ने उत्पादन
शुरू किया है. तो बाक़ी 16 कंपनियों के लाइसेंस ख़ारिज क्यों नहीं किए गए?
2004 में 4 ब्लॉक बांटे गए थे, जिनमें आज तक उत्पादन शुरू नहीं हो पाया.
2005 में 22 ब्लॉक आवंटित किए गए, जिनमें आज तक केवल 2 ब्लॉकों में ही
उत्पादन शुरू हो पाया है. इसी तरह 2006 में 52, 2007 में 51, 2008 में 22,
2009 में 16 और 2010 में एक ब्लॉक का आवंटन हुआ, लेकिन 18 जनवरी 2011 तक की
रिपोर्ट के अनुसार, कोई भी ब्लॉक उत्पादन शुरू होने की अवस्था में नहीं
है. पहले तो बिचौलियों को ब्लॉक मुफ्त दिए गए, जिसके लिए माइंस और मिनरल
एक्ट में संशोधन को लोकसभा में चार साल तक रोके रखा गया. फिर जब इन
बिचौलियों की खदानों में उत्पादन शुरू नहीं हुआ (क्योंकि ये उत्पादन के लिए
आवंटित ही नहीं हुई थीं), तो भी इनके लाइसेंस रद्द नहीं किए गए. सरकार और
बिचौलियों एवं फर्ज़ी कंपनियों के बीच क्या साठगांठ है, यह समझने के लिए
रॉकेट साइंस पढ़ना ज़रूरी नहीं है. अगर ऐसा न होता तो आज 208 ब्लॉकों में
से स़िर्फ 26 में उत्पादन हो रहा हो, ऐसा न होता.
इस सरकार की कथनी और करनी में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है. सरकार कहती है
कि देश को ऊर्जा क्षेत्र में स्वावलंबी बनाना आवश्यक है. देश में ऊर्जा की
कमी है, इसलिए अधिक से अधिक कोयले का उत्पादन होना चाहिए. इसी उद्देश्य से
कोयले का उत्पादन निजी क्षेत्र के लिए खोलना चाहिए, लेकिन इस सरकार ने
विकास का नारा देकर देश की सबसे क़ीमती धरोहर बिचौलियों और अपने प्रिय
उद्योगपतियों के नाम कर दी. ऐसा नहीं है कि सरकार के सामने सार्वजनिक
नीलामी का मॉडल नहीं था और ऐसा भी नहीं कि सरकार के पास और कोई रास्ता नहीं
था. महाराष्ट्र के माइनिंग डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ने भी इस प्रक्रिया के
चलते कोल इंडिया से कुछ ब्लॉक मुफ्त ले लिए. ये ब्लॉक थे अगरझरी, वरोरा,
मार्की, जामनी, अद्कुली और गारे पेलम आदि. बाद में कॉरपोरेशन ने उक्त ब्लॉक
निजी खिलाड़ियों को बेच दिए, जिससे उसे 750 करोड़ रुपये का फायदा हुआ. यह
भी एक तरीक़ा था, जिससे सरकार इन ब्लॉकों को बेच सकती थी, लेकिन ब्लॉकों को
तो मुफ्त ही बांट डाला गया. ऐसा भी नहीं है कि बिचौलियों के होने का सिर्फ
कयास लगाया जा रहा है, बल्कि महाराष्ट्र की एक कंपनी जिसका कोयले से
दूर-दूर तक लेना-देना नहीं था, ने कोयले के एक आवंटित ब्लॉक को 500 करोड़
रुपये में बेचकर अंधा मुनाफ़ा कमाया. मतलब यह कि सरकार ने कोयले और खदानों
को दलाल पथ बना दिया, जहां पर खदानें शेयर बन गईं, जिनकी ख़रीद-फरोख्त चलती
रही और जनता की धरोहर का चीरहरण होता रहा.
प्रणब मुखर्जी ने आम आदमी का बजट पेश करने की बात कही, लेकिन उनका
ब्रीफकेस खुला और निकला जनता विरोधी बजट. अगर इस जनता विरोधी बजट को भी
देखा जाए तो सामाजिक क्षेत्र को एक लाख साठ हज़ार करोड़ रुपये आवंटित हुए.
मूल ढांचे (इन्फ्रास्ट्रकचर) को दो लाख चौदह हज़ार करोड़, रक्षा मंत्रालय
को एक लाख चौसठ हज़ार करोड़ रुपये आवंटित किए गए. भारत का वित्तीय घाटा
लगभग चार लाख बारह हज़ार करोड़ रुपये का है. टैक्स से होने वाली आमद नौ लाख
बत्तीस हज़ार करोड़ रुपये है. 2011-12 के लिए कुल सरकारी ख़र्च बारह लाख
सत्तावन हज़ार सात सौ उनतीस करोड़ रुपये है. अकेले यह कोयला घोटाला 26 लाख
करोड़ का है. मतलब यह कि 2011-2012 में सरकार ने जितना ख़र्च देश के सभी
क्षेत्रों के लिए नियत किया है, उसका लगभग दो गुना पैसा अकेले मुनाफाखोरों,
दलालों और उद्योगपतियों को खैरात में दे दिया इस सरकार ने. मतलब यह कि आम
जनता की तीन साल की कमाई पर लगा टैक्स अकेले इस घोटाले ने निगल लिया. मतलब
यह कि इतने पैसों में हमारे देश की रक्षा व्यवस्था को आगामी 25 साल तक के
लिए सुसज्जित किया जा सकता था. मतलब यह कि देश के मूल ढांचे को एक साल में
ही चाक-चौबंद किया जा सकता था. सबसे बड़ी बात यह कि वैश्विक मंदी से उबरते
समय हमारे देश का सारा क़र्ज़ (आंतरिक और बाह्य) चुकाया जा सकता था. विदेशी
बैंकों में रखा काला धन आजकल देश का सिरदर्द बना हुआ है. बाहर देशों से
अपना धन लाने से पहले इस कोयला घोटाले का धन वापस जनता के पास कैसे आएगा?
कोयला घोटाले से लाभान्वित ब़डी कंपनियों के नाम
- हिंडाल्को
- जयप्रकाश असोसिएट्स
- एस्सार पावर
- भूषण पावर स्टील
- जीवीके पावर
- जिंदल पावर एंड स्टील]
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