कई
सरकारें बाल मज़दूरों की सही संख्या बताने से बचती हैं. ऐसे में वे जब
विशेष स्कूल खोलने की स़िफारिश करती हैं तो उनकी संख्या कम होती है, ताकि
उनके द्वारा चलाए जा रहे विकास कार्यों और कार्यकलापों की पोल न खुल जाए.
यह एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू है और आज ज़रूरत है कि इन सभी मसलों पर गहनता से
विचार किया जाए.
यह
माना जाता है कि भारत में 14 साल के बच्चों की आबादी पूरी अमेरिकी आबादी
से भी ज़्यादा है. भारत में कुल श्रम शक्ति का लगभग 3.6 फीसदी हिस्सा 14 साल
से कम उम्र के बच्चों का है. हमारे देश में हर दस बच्चों में से 9 काम
करते हैं. ये बच्चे लगभग 85 फीसदी पारंपरिक कृषि गतिविधियों में कार्यरत
हैं, जबकि 9 फीसदी से कम उत्पादन, सेवा और मरम्मती कार्यों में लगे हैं.
स़िर्फ 0.8 फीसदी कारखानों में काम करते हैं.
आमतौर पर बाल मज़दूरी अविकसित देशों में व्याप्त विविध समस्याओं का नतीजा
है. भारत सरकार दूसरे राज्यों के सहयोग से बाल मज़दूरी ख़त्म करने की दिशा
में तेज़ी से प्रयासरत है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार ने
राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (एनसीएलपी) जैसे महत्वपूर्ण क़दम उठाए हैं. आज
यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस परियोजना ने इस मामले में का़फी अहम कार्य
किए हैं. इस परियोजना के तहत हज़ारों बच्चों को सुरक्षित बचाया गया है. साथ
ही इस परियोजना के तहत चलाए जा रहे विशेष स्कूलों में उनका पुनर्वास भी
किया गया है. इन स्कूलों के पाठ्यक्रम भी विशिष्ट होते हैं, ताकि आगे चलकर
इन बच्चों को मुख्यधारा के विद्यालयों में प्रवेश लेने में किसी तरह की
परेशानी न हो. ये बच्चे इन विशेष विद्यालयों में न स़िर्फ बुनियादी शिक्षा
हासिल करते हैं, बल्कि उनकी रुचि के मुताबिक़ व्यवसायिक प्रशिक्षण भी दिया
जाता है. राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना के तहत इन बच्चों के लिए नियमित रूप
से खानपान और चिकित्सकीय सहायता की व्यवस्था है. साथ ही इन्हें एक सौ रुपये
मासिक वजी़फा दिया जाता है.
ग़ैर सरकारी संगठनों या स्थानीय निकायों द्वारा चलाए जा रहे ऐसे स्कूल इस
परियोजना के अंतर्गत अपना काम भलीभांति कर रहे हैं. हज़ारों बच्चे मुख्य
धारा में शामिल हो चुके हैं, लेकिन अभी भी कई बच्चे बाल मज़दूर की ज़िंदगी
जीने को मजबूर हैं. समाज की बेहतरी के लिए इस बीमारी को जड़ से उखाड़ना बहुत
ज़रूरी है. एनसीएलपी जैसी परियोजनाओं के सामने कई तरह की समस्याएं हैं. यदि
हम सभी इन समस्यायों का मूल समाधान चाहते हैं तो हमें इन पर गहनता से विचार
करने की ज़रूरत है. इस संदर्भ में सबसे पहली ज़रूरत है 14 साल से कम उम्र के
बाल मज़दूरों की पहचान करना. आख़िर वे कौन से मापदंड हैं, जिनसे हम 14 साल
तक के बाल मज़दूरों की पहचान करते हैं और जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मान्य
हों? क्या हमारा तात्पर्य यह होता है कि जब बच्चा 14 साल का हो जाए तो
उसकी देखभाल की जिम्मेदारी राज्य की हो जाती है? हम जानते हैं कि ग़रीबी में
अपना गुज़र-बसर कर रहे बच्चों कोपरवरिश की ज़रूरत है. कोई बच्चा जब 14 साल
का हो जाता है और ऐसे में सरकार अपना सहयोग बंद कर दे तो मुमकिन है कि वह
एक बार फिर बाल मज़दूरी के दलदल में फंस जाए. यदि सरकार ऐसा करती है तो यह
समस्या बनी रह सकती है और बच्चे इस दलदल भरी ज़िंदगी से कभी बाहर ही नहीं
निकल पाएंगे. कुछ लोगों का मानना है और उन्होंने यह प्रस्ताव भी रखा है कि
बाल मज़दूरों की पहचान की न्यूनतम आयु बढ़ाकर 18 साल कर देनी चाहिए. साथ ही
सभी सरकारी सहायताओं मसलन मासिक वजी़फा, चिकित्सा सुविधा और खानपान का
सहयोग तब तक जारी रखना चाहिए, जब तक कि बच्चा 18 साल का न हो जाए.
मौजूदा नियमों के मुताबिक़, जब बच्चा मुख्य धारा के स्कूलों में दाख़िला
ले लेता है तो ऐसा माना जाता है कि मासिक सहायता बंद कर देनी चाहिए. जबकि
बच्चे या उसके माता-पिता नहीं चाहते हैं कि वित्तीय सहायता बंद हो. ऐसे में
उनका अकादमिक प्रदर्शन नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है. यही वजह है कि
हर कोई सोचता है कि जब बच्चा मुख्य धारा के स्कूल में प्रवेश कर जाए तो
उसके बाद भी उसे सहायता मिलती रहनी चाहिए.
आख़िरकार अतिरिक्त पैसे के लिए ही तो माता-पिता अपने बच्चों से मज़दूरी
करवाते हैं. इसीलिए किसी भी तरह आर्थिक सहायता जारी रहनी चाहिए. यह तब तक
मिलनी चाहिए, जब तक कि वह बच्चा पूर्ण रूप से मुख्य धारा में शामिल होने के
क़ाबिल न हो जाए. हालांकि पुनर्वास पैकेज की पूरी व्यवस्था की गई है, फिर
भी बच्चे के माता-पिता सरकारी सुविधाओं के हक़दार नहीं माने गए हैं. ऐसे में
हर किसी को यह लगता है कि इस संदर्भ में एक सामान्य नियम होना चाहिए, ताकि
ऐसे लोगों के लिए एक विशेष वर्ग निर्धारित हो सके. जैसे एससी, एसटी,
ओबीसी, सैनिकों की विधवाओं, पूर्व सैनिक और अपाहिज लोगों के लिए एक अलग
वर्ग निर्धारित किया जा चुका है.
बाल श्रमिकों की पहचान के संबंध में एक दूसरी समस्या सामने आई है, वह है
उम्र का निर्धारण. इस परियोजना ने चाहे जो कुछ भी किया है, लेकिन कम से कम
यह बाल मज़दूरी के संदर्भ में पर्याप्त जागरूकता लाई है. अब यह हर कोई
जानने लगा है कि 14 साल के बच्चे से काम कराना एक अपराध है. इसीलिए आज जब
कोई बाल मज़दूरी की रोकथाम को लागू करना चाहता है तो एक बच्चा ख़ुद अपनी
समस्याओं को हमें बताता है. उसके मुताबिक़, काम करने की न्यूनतम आयु 14 साल
से कम नहीं होनी चाहिए. लेकिन इसकी जांच-पड़ताल का कोई उपाय नहीं है. ऐसे
में हर कोई ऐसे बच्चों के पुनर्वास के लिए ख़ुद को असहाय महसूस करता है. ये
बच्चे न तो स्कूल जाते हैं और न ही इनके जन्म का कोई प्रमाणिक रिकॉर्ड होता
है. इसीलिए ये कहीं से भी अपने जन्म प्रमाणपत्र का इंतज़ाम कर लेते हैं और
लोगों को उसे मानने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं होता. लोगों को यह भी लगता
है कि माता-पिता द्वारा बच्चों को काम करने की छूट देने या उनके कारखानों
में काम करने पर प्रतिबंध लगना चाहिए, क्योंकि माता-पिता द्वारा काम पर
लगाए जाने वाले ऐसे बच्चों की तादाद भी का़फी अधिक है. इन बच्चों को छोटी
उम्र में ही काम पर लगा दिया जाता है और ऐसे लोगों की वजह से ही इन बच्चों
पर नकारात्मक असर पड़ता है.
एक बार फिर कहना होगा कि इन विशिष्ट स्कूलों में दिए जाने वाले
व्यवसायिक प्रशिक्षणों में भी कुछ ख़ामियां हैं. हालांकि मौजूदा नियमों के
मुताबिक़ व्यवसायिक प्रशिक्षण का प्रावधान तो है, लेकिन इसके लिए धन का अलग
से आवंटन नहीं होता है, जिससे इस तरह के कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक चलाने
में कई मुश्किलें आती हैं. बाल मज़दूरी ख़त्म करने और व्यवसायिक प्रशिक्षण का
लक्ष्य हासिल करने के लिए सबसे पहले हमें उपर्युक्त पहलुओं को समझना बेहद
ज़रूरी है. व्यवसायिक प्रशिक्षण के दौरान जिन उत्पादों का निर्माण होता है,
उनका विपणन यदि ठीक ढंग से हो तो उसकी लागत पर आने वाले ख़र्च को हासिल किया
जा सकता है. लेकिन यह सब परियोजना विशेष, उसके विस्तार और उत्पाद की
गुणवत्ता पर निर्भर करता है. साथ ही यह परियोजना का कार्यान्वयन करने वाले
व्यक्तिपर भी निर्भर करता है कि वह इन सबका प्रचार-प्रसार ठीक ढंग से कर पा
रहा है या नहीं.
यह देखने में आया है कि बाल मज़दूरी रोकने संबंधी नियम बन चुके हैं,
लेकिन अभी भी इसे ज़मीनी स्तर पर लागू नहीं किया गया है. बाल मज़दूरी को
बढ़ावा देने वाले ख़ुद समाज के ग़रीब तबके से आते हैं, इसलिए ऐसे लोगों को
हिरासत में लेने या दंडित करने के प्रति भी हमारी कोई रुचि नहीं दिखती.
जहां लोग बाल मज़दूरी से परिचित होते हैं, वे इस अपराध से बच निकलने में सफल
हो जाते हैं. अत: हमें यहां सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि बाल श्रम
अधिनियम (निषेध एवं विनियमन) को सही मायनों में लागू किया जा रहा है या
नहीं.
यह भी देखा जा रहा है कि जिन बाल मज़दूरों को मुक्त कराया जाता है, उनका
पुनर्वास जल्द नहीं हो पाता, नतीजतन वे फिर इस दलदल में फंस जाते हैं. ऐसे
में हमें इसके ख़िला़फ कड़े क़दम उठाने की आवश्यकता है. साथ ही 20 हजार रुपये
की राशि एक बाल मज़दूर के पुनर्वास के लिए बेहद ही मामूली राशि है, जिसे
बढ़ाए जाने की भी ज़रूरत है. ज़मीनी स्तर पर पुनर्वास को सही ढंग से लागू करने
के लिए वित्तीय सहायता के साथ-साथ एक बेहतर पुनर्वास ख़ाका भी बनाया जाना
चाहिए.
कई सरकारें बाल मज़दूरों की सही संख्या बताने से बचती हैं. ऐसे में वे जब
विशेष स्कूल खोलने की स़िफारिश करती हैं तो उनकी संख्या कम होती है, ताकि
उनके द्वारा चलाए जा रहे विकास कार्यों और कार्यकलापों की पोल न खुल जाए.
यह एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू है और आज ज़रूरत है कि इन सभी मसलों पर गहनता से
विचार किया जाए. यदि सरकार सही तस्वीर छुपाने के लिए कम संख्या में ऐसे
स्कूलों की स़िफारिश करती है तो यह नियमों को लागू करने एवं बाल श्रमिकों
को समाज की मुख्य धारा में जोड़ने की दिशा में एक गंभीर समस्या और बाधा है.
जब तक पर्याप्त संख्या में संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जाएंगे, ऐसी समस्याओं
से निपटना मुश्किल ही होगा.
यहां बाल श्रम से निपटने की दिशा में न स़िर्फ नए सिरे से सोचने की
आवश्यकता है, बल्कि इसके लिए कार्यरत विभिन्न परियोजनाओं को वित्तीय सहायता
आवंटित करने की भी ज़रूरत है. कुछ मामलों में बाल श्रमिकों की पहचान की
ज़रूरत तो नहीं है, लेकिन इन परियोजनाओं में कुछ बुनियादी संशोधन की
आवश्यकता ज़रूर है. इस देश से बाल मज़दूरी मिटाने के लिए अधिक समन्वित और
सहयोगात्मक रवैया अपनाने की सख्त आवश्यकता है.
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