2.6.12


प्राचीन भारत का इतिहास: एक मन्थन

दो बहुत ही मामूली सवाल-
1. ग्रामीण सभ्यता विकसित होते हुए शहरी सभ्यता बनती है, या शहरी सभ्यता विकसित होते हुए ग्रामीण सभ्यता बनती है?
2. पहले भाषा बनती है फिर उसके लिए लिपि बनती है, या पहले लिपि का आविष्कार होता है फिर उसके लिए भाषा बनती है?
मेरे विचार से, आप सभी का यह मानना होगा कि ग्रामीण सभ्यता पहले पनपती है, फिर वह विकसित होते हुए शहरी सभ्यता का रुप धारण करती है। इसी प्रकार, पहले भाषा बनती है फिर उसके लिए लिपि का आविष्कार होता है।
मगर हमारे इतिहासकार ठीक इसका उल्टा पढ़ाते हैं। प्राचीन भारत के इतिहास से सम्बन्धित कोई भी पाठ्य पुस्तक उठाकर देख लीजिये- उसमें लिखा होगा कि सिन्धु घाटी की शहरी सभ्यता पहले बनी (जिसकी अपनी लिपि भी थी) और इसके हजारों वर्षों बाद वैदिक सभ्यता का जन्म हुआ, जब संस्कृत को केवल बोला और सुना जाता था- इसकी कोई लिपि नहीं थी। (ध्यान रहे, वेदों की ऋचाओं को “श्रुति” कहा जाता है, जिसे सुना जाता था, लिखा नहीं जाता था।)
सवाल है कि हमारे इतिहासकार हमें उल्टा क्यों पढ़ाते हैं? क्योंकि यूरोपीय इतिहासकार ऐसा चाहते हैं। क्या आपने स्कूल-कॉलेज के दिनों में इतिहास की कोई ऐसी पुस्तक देखी है, जिसमें हमारे इतिहासकारों ने करीब हर पन्ने पर किसी यूरोपीय इतिहासकार को उद्धृत न कर रखा हो? हमने तो नहीं देखी। हमारे इतिहासकार यूरोपीय इतिहासकारों के मतों के खिलाफ जाने के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकते- उन्हें चुनौती देना तो बहुत दूर की बात है।
मैं अपनी सामान्य बुद्धि के आधार पर यूरोपीय इतिहासकारों को चुनौती देता हूँ और यह दावा करता हूँ कि इस देश में पहले वैदिक सभ्यता पनपी, जो कि काफी हद तक एक ग्रामीण सभ्यता थी- बहुत ही सरल। इसी सभ्यता ने हजारों वर्षों बाद शहरी सभ्यता का रुप धारण किया, जिसका एक छोटा-सा नमूना सिन्धु घाटी की सभ्यता के रुप में हाड़प्पा, मोहन-जो-दारो, लोथल इत्यादि स्थानों पर दीखता है। इसकी लिपि प्रारम्भिक किस्म की लिपि है, जिसने विकसित होते हुए आज के देवनागरी का रुप धारण किया है। मेरा यह दावा ऊपर बताये गये “सामान्य तर्क” पर आधारित है कि ग्रामीण सभ्यता तथा भाषा पहले बनती है और विकास के क्रम में यह सभ्यता शहरी बनती है तथा भाषा के लिए लिपि का आविष्कार होता है।
मैं यूरोपीय इतिहासकारों तथा उनके मतों को ब्रह्मवाक्य मानने वाले भारतीय इतिहासकारों के इस सिद्धान्त का भी खण्डन करता हूँ इस देश में किसी एक सभ्यता ने दूसरी सभ्यता पर आक्रमण किया। ऐसा बिलकुल नहीं हुआ है। कर्क रेखा के उत्तर में सूर्य की किरणें सालोंभर तिरछी पड़ती हैं इसलिए इस तरफ रहने वालों का रंग जरा साफ हो गया जबकि कर्क रेखा के दक्षिण में रहने वालों का रंग जरा गहरा हो गया क्योंकि वहाँ सूर्य की तपिश अपेक्षाकृत ज्यादा है। साफ रंग वालों ने खुद को श्रेष्ठ माना, या उन्हें श्रेष्ठ माना गया; इसलिए उन्हें “आर्य” सम्बोधित किया गया। यह कहना कि गोरे लोग मध्य एशिया या यूरोप से आये और उन्होंने भारतीयों को हराकर दक्षिण में धकेल दिया- एक भ्रामक तथा शरारतपूर्ण विचारधारा है।
इसी प्रकार, बाहर से गोरे लोगों द्वारा कुछ भारतीयों को जँगलों-पहाड़ों में धकेल दिये जाने की बात भी कपटपूर्ण है। सामान्य तर्क यह है कि नदियों के किनारे बसने वालों ने बदलावों को तथा तरक्की को सहजता के साथ अपना लिया- क्योंकि नदियाँ ही यातायात का साधन होती थीं और नयी वस्तुएँ तथा नये लोग आसानी से नदियों के किनारे रहने वालों तक पहुँच जाते थे। इसके मुकाबले नदियों से दूर, बहुत दूर जँगलों-पहाड़ों में रहने वालों तक न नये लोग / नयी वस्तुएँ आसानी से पहुँचती थीं और न ही ये लोग दूर तक यातायात कर पाते थे। इसलिए बदलाव या तरक्की को नापसन्द करना लगभग इनका स्वभाव बन गया। (कुछ हद तक यह स्वभाव अब भी कायम है।)
कहने का तात्पर्य, हम “भारतीयों” को आर्य, द्रविड़ तथा आदिवासियों में बाँटने का जो सिद्धान्त है, वह एक कुटिल चाल है यूरोपीय इतिहासकारों का और दुर्भाग्य से, भारतीय इतिहासकार अब तक ‘ब्रिटिश हैंग-ओवर’ से उबरने में नाकाम साबित हुए हैं, इसलिए आज तक उनकी बातों पर चल रहे हैं। सच्चाई यह है कि सभी “भारतीय” एक ही सभ्यता, एक ही पूर्वजों के वंशज हैं और उनके रंग-रुप, उनकी भाषा एवं लिपि, उनकी संस्कृति एवं परम्पराओं में जो भी भेद हैं वे भौगोलिक परिस्थितियों के कारण पैदा हुए हैं। देखा जाय, तो भौगोलिक रुप से भारत एक “महादेश” है, “देश” नहीं। अतः इस तरह की विभिन्नतायें सामान्य बात है। इन विभिन्नताओं के आधार पर यह साबित करना कि बाहर से आयी एक सभ्यता ने यहाँ के लोगों को युद्ध में पराजित कर उन्हें दक्षिण में या जँगलों-पहाड़ों में धकेल दिया- सरासर एक बौद्धिक विद्वेष है।
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एक तर्क है, जिसे मिश्र की प्राचीन सभ्यता पर लागू किया जाता है। नील नदी के किनारे प्राचीन मिश्र का कोई चिन्ह नहीं पाया जाता। क्यों? क्योंकि यहाँ प्राचीनकाल से लेकर अब तक मानव बस्तियों बसती आ रही हैं- एक के ऊपर एक। सो, प्राचीन सभ्यता के अवशेष यहाँ नहीं खोजे जा सकते- वे जमीन के काफी नीचे दफ्न हो गयीं हैं। प्राचीन मिश्र के जो भी अवशेष पाये जाते हैं, वे नील नदी से मीलों दूर रेगिस्तान में पाये जाते हैं, जहाँ मानव बस्तियाँ नहीं थीं।
मैं इतिहासकारों के इस तर्क को (जो कि एक वाजिब तर्क है) भारत पर लागू करना चाहता हूँ। भारत में वैदिक युग में नदियों के किनारे जो मानव बस्तियाँ बसी थीं, उनपर एक के बाद एक बस्तियाँ बसती चली गयीं तथा इन बस्तियों ने आज के नगरों-महानगरों का रुप धारण कर लिया है। अब यहाँ वैदिक सभ्यता के अवशेष खोजना लगभग असम्भव है क्योंकि वे जमीन के काफी नीचे दफ्न हो गयी हैं। हाँ, वैदिक सभ्यता तरक्की करते हुए जब शहरी सभ्यता बन गयी थी, तब उसके कुछ अवशेष आप सिन्धु घाटी में खोज सकते हैं, क्योंकि वहाँ सरस्वती नदी के सूख जाने के बाद लोगों ने इसके किनारे बसे शहरों को छोड़ दिया था। इन शहरों के ऊपर नये शहर नहीं बसे, यह स्थान रेगिस्तान-जैसा बन गया, इसलिए यहाँ अवशेष बचे रह गये।
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एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि यूरोपीय इतिहासकारों द्वारा भरतीयों को नीचा दिखाने, आर्यों को येन-केन-प्रकारेण यूरोपीय साबित करने, वेदों की उच्चस्तरीय दार्शनिक ऋचाओं को ‘गड़ेरियों के गीत’ बतलाने के पीछे आखिर कारण क्या है? उन्हें कष्ट क्या है भारतीयों से?
इसका उत्तर पाने के लिए जरा पीछे चलते हैं। 7वीं से 11वीं सदी तक भारत विज्ञान, गणित, कला, शिल्प, वाणिज्य, तकनीक, निर्माण इत्यादि प्रायः हर विषय में “विश्वगुरू” था। ज्यादा वैभव ने यहाँ के लोगों को कुछ हद तक विलासी बना दिया- यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यही कारण है कि जब देश के पश्चिमोत्तर प्रान्त पर आक्रमण पर आक्रमण हो रहे थे, तब हम वहाँ किलेबन्दी करने के बजाय खजुराहो तथा देश के अन्य भागों में मन्दिरों की दीवारों पर बड़े-बड़े वक्षस्थलों तथा नितम्बों वाली नारी देह की प्रतिमायें गढ़ने में व्यस्त थे। नतीजा यह हुआ कि भारत पराधीन हुआ, विज्ञान सहित प्रायः सभी विषयों में हम पिछड़ गये, समाज अन्तर्मुखी हो गया और ढेर सारी कुरीतियाँ समाज में प्रवेश कर गयीं।
इसके कुछ समय बाद यूरोपीय लोगों ने लम्बी-लम्बी सामुद्रिक यात्राएँ कीं तथा विश्व के सुदूर भागों तक उपनिवेश स्थापित करने में वे सफल रहे। समुद्र के किनारे रहने वाले स्वाभाविक रुप से साहसी होते हैं। भारतीयों ने भी जावा-सुमात्रा, मलेशिया तक यात्राएँ करके न केवल वहाँ राज किया था, बल्कि वहाँ की संस्कृति को प्रभावित किया था। यहाँ विश्व मानचित्र पर यूरोप की खास भौगोलिक स्थिति ने यूरोप को फायदा पहुँचाया।
खैर, एक दिन भारत भी यूरोप का उपनिवेश बन गया।
यह भारत के अन्धकार का युग था। भारतीय अपने अतीत के गौरव को भूल गये थे। अतः यूरोपीयों ने भारत को एक पिछड़ा देश ही माना- अन्यान्य देशों की तरह। इस दौरान यूरोपीय विद्वानों ने एशिया तथा अफ्रीका के देशों पर अपने शासन को वैध ठहराने के लिए एक सिद्धान्त गढ़ा- कि इन काले लोगों को सभ्य बनाने की जिम्मेवारी हम गोरों पर है। इस सिद्धान्त को “गोरों का बोझ” कहा गया। कितना बड़ा बोझ था बेचारे “सभ्य” गोरों पर कि उन्हें पिछड़े एशियायियों तथा अफ्रीकियों को भी “सभ्य” बनाना पड़ रहा था। हम भारतीय भी इस सिद्धान्त से सहमत होने लगे थे।
उधर 1655 में ही कम्बोडिया में अंगकोरवाट के विशाल मन्दिर प्रकाश में आकर भारतीयों की कुछ और ही गाथा व्यक्त कर रहे थे। 1819 में एक अँग्रेज ने ही अजन्ता-एलोरा की गुफाओं को अनजाने में खोज निकाला- यह भी भारतीयों की कुछ और ही कहानी बयान करने लगा। खजुराहो के मन्दिरों को गाँववाले एक-एक कर तोड़ रहे- बचे-खुचे मन्दिर अचानक बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में प्रकाश में आ गये- ये भी भारतीयों की कुछ और गाथा व्यक्त करने लगे।
तुरुप के पत्ते की तरह सबसे चमत्कारिक खोज रही- 1920 में सिन्धु-घाटी में “शहरी सभ्यता” का अवशेष मिलना। हजारों साल पुराने ऐसे शहर मिले, जहाँ “जन-स्नानागार” थे, पक्की नालियाँ थीं, नब्बे डिग्री पर मिलती हुई सड़कें थीं। भले आज हमें यह सब मामूली लगे, मगर यकीन कीजिये, उस समय यूरोपीय विद्वानों के सीने पर साँप लोट गया होगा! किसे “सभ्य” बनाने की बात कर रहे थे वे? उन्हें, जो पाँच हजार साल पहले योजनाबद्ध तरीके से बसाये गये शहरों में रहते थे? जरा सोचिये, पाँच हजार साल पहले खुद यूरोपीय लोग किस तरह से रहते होंगे….! …और तभी से रचे जाने लगे येन-केन-प्रकारेण भारतीयों को नीचा दिखाने के षड्यंत्र!
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प्रसंगवश, यहाँ मैं भारत की प्रसिद्ध “रटन्त” विद्या की प्रशंसा करना चाहूँगा कि सैकड़ों वर्षों के “अन्धकार” के बावजूद सिर्फ इस विद्या के बल पर ही वेदों की ऋचाओं को बचाया जा सका। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ये ऋचायें सुरक्षित पहुँचती रहीं- वह भी बिना किसी विचलन के! भारतीयों के गणित में बेहतर होने के पीछे भी इस “रटन्त” विद्या का ही हाथ है। “पहाड़ा” याद रहने के कारण ही भारतीय बड़े-से-बड़ा जोड़-घटाव-गुणा-भाग सहजता से कर लेते हैं- बिना कैलकुलेटर की मदद के!
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मैं जान रहा हूँ कि मेरी इन बातों का भारतीय इतिहासकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। जैसे भारतीय “जवानों” की “राजभक्ति” बड़ी मुश्किल से खत्म हुई थी, वैसे ही, यूरोपीय इतिहासकारों के कथनों को “पत्थर की लकीर” मानने की इनकी प्रवृत्ति भी मुश्किल से ही जायेगी। मगर मैं अपने-जैसे आम लोगों से तो विचार-मन्थन करने का अनुरोध कर ही सकता हूँ।
अन्त में, मैं “आम भारतीयों” के लिए ही (इतिहासकारों पर इसका भी कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा- मैं जानता हूँ) लाल बहादूर शास्त्री जी के भाषण से उनका एक कथन उद्धृत करना चाहूँगा-शायद शास्त्री जी का यह कथन उनकी अन्तरात्मा को झकझोर सके-
‘‘हमारे स्कूलों और कॉलेजों में हमें जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह हमारा इतिहास नहीं है। वह उन लोगों का इतिहास है, जिन्होंने हमें दबाया और हमारा शोषण किया। इस इतिहास को पढ़कर हममें पराजय व निराशा की भावना पैदा होती है, न कि आशा व स्वाभिमान की। हमारे इतिहास में हमारी पराजय का ही वर्णन मिलता है, पर हमारे संघर्ष और हार के कारणों का कोई वर्णन नहीं मिलता। फिर हिन्दू-काल और मुस्लिम-काल में इतिहास को बाँटना गलत व भ्रमपूर्ण है। इससे साम्प्रदायिकता की भावना को बल मिला है। हमें अपने इतिहास को फिर से भारतीय व राष्ट्रीय दृष्टिकोण से लिखना होगा।
‘‘हमें अपने देश के बच्चों को बताना होगा कि प्राचीन काल में भारत के पास अजेय जहाजी बेड़ा था। भारत का साम्राज्य समुद्र पार देशों तक फैला हुआ था और हमारा व्यापारिक सम्बन्ध प्रशान्त महासागर के अनेक देशों के साथ था। हिन्द महासागर के हम एकमेव स्वामी थे।
‘‘स्मरण रहे कि हमारे यहाँ तुलसी, कबीर, नानक, रामदास आदि सन्त हो चुके हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय एकता पर जोर दिया और जन-जन में नैतिक शक्ति पैदा की। हम इन सन्तों को ब्रिटिश शासकों और दिल्ली के शहंशाहों से अधिक महान मानते हैं और उनकी राष्ट्रीय महत्ता भी अधिक थी। अतः आज जो इतिहास हमारे विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है,वह इतिहास नहीं पढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि वह न सत्यता पर आधारित है और न राष्ट्रीय दृष्टिकोण से लिखा गया है। हमें राष्ट्रीय दृष्टिकोण से सही इतिहास लिखने की आवश्यकता है।’’

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