2.6.12


विकसित देशों के नागरिक भी पूँजीवादी शोषण से त्रस्त हैं |

पूंजीवाद _पूंजीवादी व्यवस्था _भूमंडलीकरण
‘साम्यवाद’ व ‘पूँजीवाद’ दो “ध्रुव” हैं और ध्रुवों पर सहज जीवन बिताना मुश्किल होता है।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ विकासशील एवं गरीब देशों के नागरिक ही पूँजीवादी शोषण से त्रस्त हैं और इससे मुक्ति पाने के लिए छटपटा रहे हैं; बल्कि अमीर एवं विकसित देशों के नागरिक भी इस क्रूर, निर्दय एवं वीभत्स शोषण के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं और अपनी आवाज बुलन्द कर रहे हैं।
जाहिर है, जैसे दो दशक पहले अप्रत्याशित रुप से साम्यवाद के छोटे-बड़े सभी गढ़ एक-एक कर ढह गये थे; वैसे ही पूँजीवादी साम्राज्य के छोटे-बड़े सभी किले अब ढहने वाले हैं। इस पतन की शुरुआत भी अप्रत्याशित तरीके से होगी। अगर 2 वर्षों के अन्दर ऐसा हो जाय, तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा!
सच पूछिये तो ‘साम्यवाद’ व ‘पूँजीवाद’ दो “ध्रुव” हैं और ध्रुवों पर सहज जीवन बिताना मुश्किल होता है। पृथ्वी को ही देख लीजिये- जीवन कहाँ पनपता और फलता-फूलता है- उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव के मध्य में न? तो हमारा जीवन भी उसी व्यवस्था में सहज रहेगा, जो न तो धुर साम्यवादी हो और न ही धुर पूँजीवादी।
वैसे, यह भी सच है कि किसी भी “वाद” या “व्यवस्था” से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है- “शासक/शासकों की नीयत”! सत्ता की बागडोर जिसके हाथों में है, वह अगर अपने देश एवं देशवासियों का भला चाहता है, तो भला कर सकता है। कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि उस देश में साम्यवाद है, पूँजीवाद है, मिश्रित अर्थव्यवस्था है, तानाशाही है, या राजशाही है।
मैं यह कहना चाहता हूँ कि पूँजीवाद के पतन के बाद एक “आदर्श विश्व व्यवस्था” का जन्म होगा। इस आदर्श व्यवस्था में भी हालाँकि निम्न, मध्यम एवं उच्च वर्ग होंगे; मगर उनके बीच की खाई को एक सीमा से ज्यादा चौड़ा नहीं होने दिया जायेगा। उदाहरण के लिए तीनों वर्गों के लिए “आय एवं सम्पत्ति” का अनुपात 1:3:6, या 1:5:10, या बहुत हुआ तो 1:7:14 तय कर दिया जायेगा। कहने का तात्पर्य, दुनिया में गरीब व अमीर व्यक्ति के बीच आय एवं सम्पत्ति के बीच का अन्तर 14 गुना से ज्यादा नहीं होने दिया जायेगा! कोई देश 6 गुना या 10 गुना की सीमा को भी अपना सकेगा।
इस आदर्श व्यवस्था में सरकारें आय के अनुपात में लोगों से कर या कोई भी फीस लेगी- जैसे, निम्न वर्ग अगर कर/फीस का 5 प्रतिशत चुकायेगा, तो मध्यम वर्ग 50 प्रतिशत और उच्च वर्ग शत प्रतिशत। तीनों वर्गों के लोग अपनी-अपनी जरुरत की सामग्रियाँ एवं सेवायें आसानी से हासिल कर सकेंगे। सरकारें “जनकल्याणकारी” होंगी, न कि मुनाफाखोर! न शोषण होगा, न युद्ध, और न ही धार्मिक उन्माद।
इस व्यवस्था की शुरुआत भारत से होगी- इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए। कैसे होगी और कब होगी, इनका उत्तर देना सम्भव नहीं है; मगर मेरा अनुमान कहता है कि एक “आदर्श” प्रकार की तानाशाही इस देश में अप्रत्याशित तरीके से कायम होगी, जो न केवल इस देश को एवं इसके वासियों को फिर से महान बनायेगी, बल्कि भविष्य के लिए आदर्श “लोकतांत्रिक” व्यवस्था की भी स्थापना करेगी। ऐसा कभी भी हो सकता है- हो सकता 2 वर्ष के अन्दर ही यह चमत्कार हो जाये! फिर एक-एक कर दुनिया के सभी देशों के नागरिक अपनी-अपनी सरकारों को बाध्य कर देंगे- “आदर्श विश्व व्यवस्था” में शामिल होने के लिए।
“नियति” एक “समय-रेखा” है, जिसके आदि और अन्त को तो हम नहीं जान सकते, मगर इतना मान सकते हैं कि इस रेखा पर घटनायें “नियत” रहती हैं। इन भावी घटनाओं को “इच्छाशक्ति” या “विचार-तरंगों” से बदला भी जा सकता है। अगर हम विश्व में घट रही घटनाओं का विश्लेषण करें, तो नियति की समय-रेखा पर दर्ज “आदर्श विश्व व्यवस्था” की भावी घटना को देख सकते हैं- यह ज्यादा दूर नहीं है।
अगर यह घटना नियति की रेखा में दर्ज नहीं है, तो भी कोई बात नहीं; हम अपने विचार-तरंगों के बल पर इस घटना को समय-रेखा पर दर्ज करा सकते हैं…. ।
आईये, हम सब मिलकर “आदर्श विश्व व्यवस्था” की स्थापना के लिए प्रार्थना करें- आमीन… । एवमस्तु… ।

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