बी आर चोपड़ा का सफ़र-भाग सात/ प्रकाश के रे
वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज के ब्लॉग के लिये मैं बी आर चोपड़ा पर एक सिरीज़ लिख रहा हूँ.
http://chavannichap.blogspot.com/
नया दौर (1957) बी आर चोपड़ा की
सबसे लोकप्रिय फ़िल्म है. इस फ़िल्म को न सिर्फ़ आजतक पसंद किया जाता है,
बल्कि इसके बारे में सबसे ज़्यादा बात भी की जाती है. नेहरु युग के सिनेमाई
प्रतिनिधि के आदर्श उदाहरण के रूप में भी इस फ़िल्म का ज़िक्र होता है.
पंडित नेहरु ने भी इस फ़िल्म को बहुत पसंद किया था. लेकिन इस फ़िल्म को
ख़ालिस नेहरूवादी मान लेना उचित नहीं है. जैसा कि हम जानते हैं नेहरु
औद्योगिकीकरण के कट्टर समर्थक थे और बड़े उद्योगों को ‘आधुनिक मंदिर’ मानते
थे, लेकिन यह फ़िल्म अंधाधुंध मशीनीकरण पर सवाल उठती है. और यही कारण है
कि इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. बरसों बाद एक साक्षात्कार में चोपड़ा
ने कहा था कि तब बड़े स्तर पर मशीनें लायी जा रही थीं और किसी को यह चिंता
न थी कि इसका आम आदमी की ज़िंदगी पर क्या असर होगा. प्रगति के चक्के के
नीचे पिसते आदमी की फ़िक्र ने उन्हें यह फ़िल्म बनाने के लिये उकसाया.
फ़िल्म की शुरुआत महात्मा गांधी के दो कथनों से होती है जिसमें कहा गया गया है कि मशीन मनुष्य के श्रम को विस्थापित करने और ताक़त को कुछ लोगों तक सीमित कर देने मात्र का साधन नहीं होनी चाहिए. उसका उपयोग मनुष्य की मदद करने और उसकी कोशिश को आसान बनाने के लिये होना चाहिए. नेहरु के विचार इस सन्दर्भ में गांधी के उलट थे और दोनों ध्रुवों के बीच आज़ादी की लड़ाई के दौरान लगातार बहस होती रही थी. नेहरु ने एक बार कहा था कि अक्सर हम उनके (गांधी) विचारों पर बात करते हैं और हँसी-मजाक में कहते हैं कि आज़ादी के बाद उनकी ‘सनक’ को तरज़ीह नहीं दी जायेगी. पूरी फ़िल्म इन दो विचारों के बीच बहस करती चलती है. आश्चर्य है कि बी आर चोपड़ा नेहरु के समर्थक थे किन्तु इस फ़िल्म में ‘खलनायक’ का चरित्र काफी हद तक नेहरूवादी है. यह भी एक दिलचस्प संयोग है कि जिस वर्ष यह फ़िल्म प्रदर्शित होती है उसी वर्ष यानि 1957 में नेहरु उद्योग-समर्थक अपने कट्टर विचारों में संशोधन कर रहे थे. इंदौर में उस वर्ष 4 जनवरी को कॉंग्रेस की एक बैठक में उनका वक्तव्य उल्लेखनीय है: “योजना मूलतः संतुलन है- उद्योग और कृषि के बीच संतुलन, भारी उद्योग और लघु उद्योग के बीच संतुलन, कुटीर और अन्य उद्योगों के बीच संतुलन. अगर इनमें से एक के साथ गड़बड़ी होगी तो पूरी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर होगा”. तबतक ‘सामुदायिक विकास’ की अवधारणा भी लायी जा चुकी थी जिसके मुताबिक गाँव में ही रोज़गार के अवसर पैदा करने की कोशिश होनी थी. दूसरी पञ्च-वर्षीय योजना में लघु और कुटीर उद्योगों पर ख़ासा ध्यान दिया गया था.
फ़िल्म का अंत इसी तर्ज़ पर होता है और इस हिसाब से, और सिर्फ़ इसी हिसाब
से, यह फ़िल्म नेहरूवादी कही जा सकती है. हालाँकि अंत पर भी गांधी की छाप
है जहाँ उद्योगों के विभिन्न रूपों, पूंजी और श्रम के साझे की बात कही गयी
है. लेकिन यह अंत ऐसा भी नहीं है कि इसे पूरी तरह से सुखांत कहा जाये. शंकर
के तांगे से हारा कुंदन कहता है- “ये गाँव बरबाद होके रहेगा. आज जिन
मशीनों को तुम ठुकरा रहे हो, देखना, एक दिन उन्हीं मशीनों का एक रेला उठेगा
और तुम सब कुचल के रख दिए जाओगे”. ये धमकी-भरे शब्द फ़ायदे के भूखे भारतीय
बुर्ज़ुवा के थे जो ग्रामीण ज़मींदारों के साथ साथ-गाँठ कर अगले पचास सालों
तक बड़े उद्योगों का जाल बिछानेवाला था जिसका परिणति भयानक ग़रीबी, पलायन
और सामाजिक असंतोष के रूप में होनी थी. और यह सब होना था समाजवादी भारतीय
राज्य के बड़े-बड़े दावों के बावज़ूद. नया दौर के तेवर और उसकी
बहुआयामी राजनीति उन समझदारियों को ख़ारिज़ करते हैं जिनका मानना है कि
मेलोड्रामाई पॉपुलर सिनेमा अराजनीतिक होता है और पारंपरिक मूल्यों को अपने
स्टिरीयो-टाइप फॉर्मूले में ढोता है.फ़िल्म की शुरुआत महात्मा गांधी के दो कथनों से होती है जिसमें कहा गया गया है कि मशीन मनुष्य के श्रम को विस्थापित करने और ताक़त को कुछ लोगों तक सीमित कर देने मात्र का साधन नहीं होनी चाहिए. उसका उपयोग मनुष्य की मदद करने और उसकी कोशिश को आसान बनाने के लिये होना चाहिए. नेहरु के विचार इस सन्दर्भ में गांधी के उलट थे और दोनों ध्रुवों के बीच आज़ादी की लड़ाई के दौरान लगातार बहस होती रही थी. नेहरु ने एक बार कहा था कि अक्सर हम उनके (गांधी) विचारों पर बात करते हैं और हँसी-मजाक में कहते हैं कि आज़ादी के बाद उनकी ‘सनक’ को तरज़ीह नहीं दी जायेगी. पूरी फ़िल्म इन दो विचारों के बीच बहस करती चलती है. आश्चर्य है कि बी आर चोपड़ा नेहरु के समर्थक थे किन्तु इस फ़िल्म में ‘खलनायक’ का चरित्र काफी हद तक नेहरूवादी है. यह भी एक दिलचस्प संयोग है कि जिस वर्ष यह फ़िल्म प्रदर्शित होती है उसी वर्ष यानि 1957 में नेहरु उद्योग-समर्थक अपने कट्टर विचारों में संशोधन कर रहे थे. इंदौर में उस वर्ष 4 जनवरी को कॉंग्रेस की एक बैठक में उनका वक्तव्य उल्लेखनीय है: “योजना मूलतः संतुलन है- उद्योग और कृषि के बीच संतुलन, भारी उद्योग और लघु उद्योग के बीच संतुलन, कुटीर और अन्य उद्योगों के बीच संतुलन. अगर इनमें से एक के साथ गड़बड़ी होगी तो पूरी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर होगा”. तबतक ‘सामुदायिक विकास’ की अवधारणा भी लायी जा चुकी थी जिसके मुताबिक गाँव में ही रोज़गार के अवसर पैदा करने की कोशिश होनी थी. दूसरी पञ्च-वर्षीय योजना में लघु और कुटीर उद्योगों पर ख़ासा ध्यान दिया गया था.
1957 का साल हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतिहास में एक मील का पत्थर है. इस साल नया दौर के अतिरिक्त प्यासा (गुरु दत्त), मदर इंडिया (महबूब खान), दो आँखें बारह हाथ (व्ही शांताराम) जैसी फ़िल्में आयीं थीं जिन्होंने व्यावसायिक सफलता के साथ साथ फ़िल्मों के दार्शनिक-सामाजिक महत्व को एक बार फ़िर स्थापित किया. इतना ही नहीं, इन फ़िल्मों ने फ़िल्म-निर्माण के शिल्प और कौशल के मानक भी गढ़े. 1950 का दशक बंबई सिनेमा का स्वर्ण युग है तो 1957 का साल उस स्वर्ण युग का कोहिनूर है. इन क्लासिकल फ़िल्मों के अतिरिक्त उस वर्ष की अन्य सफल फ़िल्में भी उल्लेखनीय हैं. नासिर हुसैन की तुमसा नहीं देखा ने शम्मी कपूर जैसा सितारा पैदा किया. देव आनंद और नूतन की पेईंग गेस्ट (सुबोध मुखर्जी), किशोर कुमार और वैजयंती माला की आशा (एम वी रमण), बलराज सहनी और नंदा की भाभी (आर कृष्णन व एस पंजू), राज कपूर और मीना कुमारी की शारदा (एल वी प्रसाद) और दिलीप कुमार, किशोर कुमार एवं सुचित्रा सेन की मुसाफ़िर (ऋषिकेश मुखर्जी) इस साल की सफलतम फ़िल्मों में शुमार थीं. मुसाफ़िर बतौर निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी की पहली फ़िल्म थी और इसे ऋत्विक घटक ने लिखा था. इन सारी फ़िल्मों का उल्लेख ज़रूरी है क्योंकि इनके बीच बी आर चोपड़ा की नया दौर ने सफलता के मुकाम चढ़े और मदर इंडिया के बाद यह साल के सबसे बड़ी फ़िल्म थी. नया दौर बी आर फ़िल्म्स के बैनर तले बनने वाली दूसरी फ़िल्म थी.
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