22.7.12

काला पन्ना जो लिखा जा रहा है
यह काला पन्ना अभी पूरा लिखा नहीं गया है। वह हर रोज आगे और आगे लिखा जा रहा है। गत 50-60 सालों से उसे लिखे जाने का कार्य जारी है। भारतवासी गत 1000 सालों से आतंकवाद से लड़ रहे है शायद आपको स्मरण हो तो मोहम्मद बिन कासिम से लेकर मोहम्मद अली जिन्ना तक। और मोहम्मद अली जिन्ना से लेकर आज तक कितने नाम कितने ही रूपों में हमारे सामने आये है। भारत में दो प्रकार का आतंकवाद है प्रथम:- कट्टरपंथी इस्लामिक चिंतन से उपजा आतंकवाद और दूसरा है वामपंथी विचारधारा के विभिन्न संगठनों से उपजा माओवाद और नक्सलवाद। ये देश के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर पनपते रहते है, हमारे रक्षा संगठनों को इनसे 24 घंटे और 365 दिन लड़ना पड़़ता है। दुर्बल और तुष्टिकरण चाहने वाले राजनेता इसके विरूद्ध प्राणांतक प्रहार से न केवल बचाते है बल्कि उन्हे अनुकूलता पैदा हो इसके लिए अप्रत्यक्ष सहयोग भी करते है। रक्षा संस्थाएं अपनी प्रामाणिकता के लिए सीता की भांति आये दिन अग्नि परीक्षा देती रहती है। मानवाधिकार व न्याय व्यवस्था के झण्डाबरदार पुलिस व सेना द्वारा मारे गए लोगो को तार-तार कर समझती और जांचती रहती है। किन्तु आतंकवादियों के हाथों मरने वालों पर शायद ही कभी विचार करती है! जे लोग निर्दोष लोगों को मारते है, कमजोरों, बीमारों, बच्चों और महिलाओं को बम से उड़ाते है, वे भला कही मानव हो सकते है। वे हर लिहाज से अमानव है, लेकिन मानवाधिकारवादी और उनके समर्थक तथाकथित बुद्धिजीवी उनका पक्ष लेकर सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़ने का काम आये दिन करते रहते है।
 आज पूरा विश्व आतंकवाद से जूझ रहा है। कुल आंतक की घटनाओं में से 95 प्रतिशत जेहाद के नाम पर की जाती है। आतंकवादी सब कुछ इस्लाम, अल्लाह और कुरान के नाम का दुरूपयोग करते हुए करते है। वे पूरे विश्व को इस्लाम में बदलना चाहते है। उनका स्वप्न है: दारूल इस्लाम अर्थात विश्व में इस्लाम के अलावा कोई मत, पंथ, धर्म व संस्कृति ना रहे। अन्य मुस्लिम राष्ट्रों को छोड़कर अकेले पाकिस्तान और बांग्लादेश का विचार करेगें तो पायेगें कि ये पीद्दी से देश आतंकवाद की सबसे बड़ी चारागाह है। नवम्बर 2001 में न्यूजलाईन कराची चौंकाने वाले आंकड़े देता है। वह लिखता है कि गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, देश में करीब 20,000 मदरसे चल रहे है जिनमें करीब 3 करोड़ छात्र अध्ययनरत है। 7000 मदरसे देवबंदी धारा से सम्बधित है, अधिकांश; कट्टरपंथी लड़के इसी धारा से तैयार होकर निकले है। चार वर्ष और इससे अधिक उम्र के लगभग 7 लाख विद्यार्थी देवबंदी सम्प्रदाय के धार्मिक विद्यालयों में पढ़ रहे है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर मदरसों की संख्या में इसी प्रकार वृद्धि होती रही तो सन 2010-2011 तक मदरसों की कुल संख्या पाकिस्तान सरकार द्वारा चलाये जा रहे प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों के बराबर हो जायेगी।
 देवबंदी से जुड़े कुछ लोगों को कहना है कि उनके मदरसों में बालिग; तरूणाई की उम्र, जो चेहरे पर मूंछों और दाड़ी के बाल देखकर निश्चित की जाती है; होने तक विद्यार्थियों को मूल रूप से कुरान और उसकी व्याख्याऐं पढ़ाई जाती है। जब वे बालिग हो जाते है तो उन्हे जेहाद के लिए प्रेरित किया जाता है। सूत्रों का कहना है कि इन मदरसों में आज भी लगभग 3 लाख विद्यार्थी ऐसे है जिन्हे जेहाद के लिए प्रेरित किया जा रहा है। मदरसों में सुबह 3 घण्टे और दोपहर में 3 घण्टे निरंतर जो शिक्षा दी जाती है, उसके सम्बंध में श्री अरूण शौरी अपनी पुस्तक पाकिस्तान-बांग्लादेश आतंकवाद के पोषक में एक स्थान पर लिखते है कि:- कुरान के फायदों पर चली लम्बी बहस के बाद मैने विद्यार्थियों से पूछा कि स्कूल शिक्षा पाने के बाद उनमें से कौन-कौन डॉक्टर या इंजीयिर बनना चाहता है? जबाब में सिर्फ दो हाथ खड़े हुए। जब मैनें यह पूछा कि बड़े हाकर जेहाद के लिए कितने लोग लड़ना चाहते है? तब जबाब में हर विद्यार्थी ने अपना हाथ तपाक से उठा दिया। आश्चर्य की बात तो यह है कि इनमें से अधिकतर बच्चों की उम्र 10 साल से कम थी। जब तक धार्मिक शिक्षा के नाम से ऐसी जेहादी शिक्षा बच्चों को दी जाती रहेगी तब तक पाकिस्तान शांति का दावा कैसे कर सकता है? पेशावर के बाहरी हिस्सों में चल रहे मदरसों का मुआयना करके दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम प्रसारित किया गया। इसमें शंकर शरण की पुस्तक द मदरसा क्वेश्चन एण्ड टेररिज्म में कुछ यू उद्धृत किया गया है; गांधी मार्ग, अप्रेल-जून 2002ः लश्कर-ए-तैयबा को गैर कानूनी संगठन घोषित किए जाने के बाद जो कश्मीर में भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त थे, उन्हे फिर से बसाया गया, जेहाद करने को कहा गया। लश्कर-ए-तैयबा को गैर कानूनी संगठन घोषित करने के एक सप्ताह पहले उसका नेतृत्व छोड़कर सईद व उसके अनुयायियों ने कहा कि उन्होने नये बैनर तले जमात-उद-दावा के नाम से नया संगठन खड़ा कर लिया है। जमात-उद-दावा के सदस्य अबू मूजाहिद नदीम ने कहा, लश्कर के आंतकवादी कश्मीर में तो सक्रिय है, लेकिन अभी पाकिस्तान में उनका अस्तित्व नहीं है। इसकी कोई जरूरत नहीं है। हम सिर्फ धर्म की शिक्षा दे रहें है। लोगों को हम कुरान के अनुसार शिक्षित कर रहे है, जिसमें जेहाद का आह्वान किया गया है।
 पाकिस्तान के उन मदरसों में कुरान के नाम पर जो पढ़ाया जाता है, वह कुछ-कुछ इस प्रकार है:-
अल्लाह की नजर में सबसे बुरा आदमी वह है जो अल्लाह को नहीं मानता, जो उसमें विश्वास नहीं रखता (8/55)
बच्चों को अल्लाह और कुरान का हवाला देते हुए बताया जाता है कि अपनी गलत धारणाओं की वजह से वे अल्लाह के आदेशों का बेजा इस्तेमाल कर रहे है और वचन भंग कर रहे है। (5/14)
उन्होने ईसा की बात को भी ठुकरा दिया है, जिन्होने उनसे कहा था कि वे अल्लाह की पूजा करें ना कि उनकी। (5/116-118)
वे हमेशा छल-कपट की फिराक में लगे रहते है
वे गलत तर्को का सहारा लेते हुए कहते है कि वे तो पहले यहूदी या ईसाई थे जबकि सच्चाई यह है कि वे सभी मुस्लिम थे। (जैसा कि कुरान में कई स्थानों पर उल्लेख है उाहरणार्थ 2/149)
वे तुम्हे पथभ्रष्ट करने की कोशिश करते है।
वे सच्चाई को झूठ का जामा पहना कर उसे ढकना चाहते है।
बच्चों को पढाया जाता है कि वे (नास्तिक लोग) अल्लाह और पैगम्बर की निंदा करते है। वे अल्लाह की यह कहकर निंदा करते है कि ईसा मसीह भगवान है और उसकी पूजा करनी चाहिए।
वे अल्लाह की यह कहकर निंदा करते है कि ईसा मसीह ईश्वर के पुत्र है।
और ऐसा कहकर वे अल्लाह के कोप का भाजन बनते है।
वे अल्लाह की निंदा यह कहकर करते है कि वह एक नहीं तीन है।
वे झगड़ालू लोग है।
ईसा तो महज एक धर्म प्रचारक थे, वे अल्लाह के सेवक से अधिक कुछ नहीं थे।
 इस प्रकार की पाकिस्तान में दी जा रही शिक्षा का परिणाम यह है कि अकेले भारत में पिछले 20 सालों में 60 हजार से अधिक जाने आंतकवादियों ने ली है। इसमें बच्चे, बूढ़े, महिलाऐं, जवान सभी शामिल है और यह सब जेहाद के नाम पर हो रहा है। विकसित और विकासशील देशों में ऐसा कौनसा देश बचा है जो आंतकवाद से मुक्त हो? ब्रिटेन, फ्रांस, हालैण्ड, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा में तो यह गले तक आ गया है। कभी भारत में होने वाली आंतकवादी वारदातों पर ।। यह भारत और पाकिस्तान का आंतरिक मामला है।। कहकर चुप्पी साध लेने वाला अमेरिका अलकायदा द्वारा उसकी दो इमारतों को गिरा देने से इतना घबराया कि पूरी दुनियाभर में ओसामा को तलाशता रहा और वो ओसामा मिला भी तो कहा- अमेरिका की नाक के नीचे उसके पिट्ठू पाकिस्तान में! विकासशील देशों के कुछ तथाकथित मानवाधिकारवादी कश्मीर में हिन्दुओं की हत्या पर स्थानीय जनता द्वारा स्वाधीनता के लिए किए जा रहे संघर्ष स ेउपजी हिंसा बताते है। आज वे ही स्वयं आंतकवाद से पीड़ित होने पर इसे वैश्विक लड़ाई बता रहे है। आओ, मिलकर साथ लड़े का नारा देने लगे है। आज भारत में ऐसी कौनसी तहसील या खण्ड है जहां आईएसआई कोई वाक्या करने में सक्षम नहीं है ! भारत सरकार का ऐसा कौनसा विभाग है जहां उसकी पंहुच नहीं है! आंतकवादी भारतवासियों पर हमला करने का समय, स्थान और माध्यम आपनी इच्छा से चयन करते है। हम रात-दिन सुरक्षात्मक रवैया अपनाए अपनी जान और इज्जत बचाने में लगे रहते है।
         (क्रमशः)

12/02/2010


बीसवीं सदी में भारत के इतिहास के 6 काले पन्ने (भाग 6)

पांचवां काला पन्ना

सदी का पांचवां काला पन्ना लिखा नेहरू-गांधी खानदान के उत्तराधिकारी व भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने। उन दिनों श्रीलंका गृहयुद्ध से जूझ रहा था। लिट्टे और श्रीलंका सेना के बीच संघर्ष जोरो पर था। लिट्टे अपने लिए स्वतंत्र देश तमिल ईलम की मांग कर रहा था। भारत के प्रांत तमिलनाडू में तमिल संख्या कह बहुलता होने के कारण लिट्टे का प्रभाव था। यू तो 1983 से भारत की श्रीलंका पर प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष दृष्टि थी। राजीव गांधी ने अपने पड़ोसियों से सम्बंध सुधारने के नाम पर इन्टरनेशनल स्तर पर अपने नेतृत्व की धाक स्थापित करने की इच्छा से जून 1987 में यह कदम उठाया। प्रसिद्धि की चमक और ताकत की धमक के कारण उन्होने अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए भारतीय सेना को दांव पर लगा दिया। किसी युद्ध में भारत को ऐसी सैन्य हानि नहीं हुई, जितनी शांति सेना को श्रीलंका में भेजकर देश को चुकानी पड़ी। भारत भूमि की रक्षा के लिए हमारा सैनिक हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे देता है, सैनिक का परिवार और समाज उसे शहीद के रूप में बरसों तक पूजता रहता है। पर श्रीलंका में शांति सेना के सैनिकों के बलिदान का उद्देश्य तब भी समझ से परे था और आज भी है। लड़ते हुए सैनिक शायद ही समझ पाये हो कि वे क्यों लड़ रहे है। शांति के लिए युद्ध राजीव गांधी में भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं को ख्याति देने की महत्वाकांक्षा ठीक वैसी ही थी जैसी कभी नेहरू के मन में समाई थी। शायद इसी के चलते उन्होने भारत की सुरक्षा और भावना दोनो को बलात तो में रखकर शांति सेना श्रीलंका में भेज दी।
 श्री राजीव गांधी का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अपना महारथ दिखाने का प्रयास अपरिपक्व राजनीति और अदूरदर्शी कूटनीति से भरा था। यह निर्णय हमारी सेना की हानि के साथ-साथ आने वाले कई सालों तक दो देशों की जनता के बीच अलगाव के बीज बो गया। तात्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह की बात दोहराये तो राजीव के इस निर्णय से हमारे अमूल्य 1100 सैनिकों के प्राण और भारत की जनता की गाढ़ी कमाई के लगभग 2000 करोड़ रूपयें गंवाए है। राजनीतिक और सैन्य दृष्टि से यह निर्णय भारत के पक्ष में नहीं था, यह जानकर वी.पी. सिंह ने सेना को श्रीलंका से वापिस बुला लिया। 24 मार्च 1990 को अंतिम बेड़ा श्रीलंका की धरती को छोड़कर भारत की ओर चला आया।
 श्रीलंका का संकट समाप्ति के नाम पर भेजे गए व्यक्तियों का, वापसी के बाद कहना था कि हमारा उद्देश्य मानवीय दृष्टिकोण से श्रीलंका की मदद करना था। शांति सेना के जवानों का कहना था कि हम तो शांति सेना में थे, पर अचानक हम बिना किसी स्पष्ट आदेश के एक युद्ध के बीच में पंहुच गए। हमारे पास अपने संसाधन और यंत्र भी नहीं थे। हमें ऐसा महसूस हो रहा था कि हम अपने ही लोगो को मार रहे हो।
श्रीलंका की जनता के बीच शांति सेना के विरूद्ध तीव्र आक्रोश था। इसी के चलते शांति सेना के सैनिकों को लिट्टे के सैनिक और जनता दोनो ओर से मार सहनी पड़ी। श्रीलंका की सेना अपने राष्ट्रीय गौरव के मान से भारत की भेजी शांति सेना के विरूद्ध थी और उसने दुनियाभर में यह प्रचार कर दिया कि भारतीय शांति सेना मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रही है। दुनियाभर में शांति सेना के विरूद्ध हत्या, बलात्कार, लूट, महिलाओं एवं बच्चों के साथ गलत व्यवहार के समाचार मनगढन्त तरीके से प्रचारित किए गए। शायद यह पहला मौका था कि जब दुनिया में भारत जैसे देश की महान सेना इस कदर बदनाम हो रही थी और सच यह था कि उसी सेना के साथ अमानवीय व्यवहार हो रहा था। इन सबके पीछे एक मात्र कारण राजीव गांधी की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और कूटनीतिक अपरिपक्वता थी। उनके चाटुकार यहां तक मानते व कहते थे कि ऐसा करने से उन्हे शांति का नोबल पुरस्कार भी मिल सकता है।
 भारत की करीब-करीब सभी राजनैतिक पार्टियों ने राजीव गांधी के इस निर्णय का विरोध किया। बड़ी राजनैतिक पार्टियों ने अपना विरोध संसद के अंदर और बाहर भी प्रकट किया। क्षेत्रीय पार्टिया भी तमिलनाडु की डीएमके के नेतृत्व में लामबन्द हो गई। भारत में ऐसा पहली बार हो रहा था कि भारत की संना का विरोध भारत की जनता या राजनीतिक पार्टिया कर रहे थे। तमिलनाडु में अक्टूबर- नवम्बर 1987 में आंदोलन हुआ, तो उसके पूर्व 22 अक्टूबर 1987 को प्रदेशव्यापी रेल रोको आंदोलन हुआ। इससे पूर्व 22 अक्टूबर 1987 को ही एक विशाल जनसभा का आयोजन डीएमके के नेतृत्व में हुआ जिसमें एक ही आवाज उठ रही थी कि शांति सेना को वापिस बुलाओं। इस सभा में आन्ध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव, अकाली दल के सांसद आहलुवालिया, कांग्रेस आई के सांसद के.पी. उन्नीकृष्णन, लोकदल नेता अजित सिंह एवं सुब्रमण्यम स्वामी और टीडीपी के सांसद पी. उपेन्द्र भी शामिल हुए। पूरे देश की आवाज शांति सेना को वापस बुलाने में एक साथ थी।
 वहीं दूसरी ओर राजीव गांधी का राजनैतिक खेल चल रहा था। वह एक ओर शांति सेना को श्रीलंका में भेजकर लिट्टे के विरूद्ध संघर्ष की बात कर रहे थे तो दूसरी ओर लिट्टे को वित्तीय मदद देने के आरोप भी राजीव पर लग रहे थे। पूरे खेल में बाजी भारत हार रहा था। मर रहे थे भारतीय सैनिक और खो रही थी भारत की जनता अपना अमूल्य धन। जब 2 जनवरी 1989 को राणासिंघे प्रेमदासा श्रीलंका के राष्ट्रपति बने तो उन्होने 1989 में शांति सेना को 3 माह के भीतर श्रीलंका छोड़ने की बात कही। प्रेमदासा को उस दौरान श्रीलंका की जनता का 95 प्रतिशत समर्थन मिल रहा था। परन्तु राजीव गांधी का मानना था कि लिट्टे और श्रीलंका सरकार के मध्य समझौता होने पर ही शांति सेना की वापसी हो। दिसम्बर 1989 में भारत में चुनाव हुए और वी.पी. सिंह भारत के प्रधानमंत्री बने। वीपी सिंह के निर्णय पर शांति सेना की वापसी सुनिश्चित हुई। केवल नेहरू- इंदिरा वंश में जन्म लेने के कारण अचानक देश की राजनीति में सर्वोच्च पद पर पंहुचे राजीव गांधी ने न भारत की सरकार को समझा न भारत के जन के मन को। राजीव गांधी के असफल प्रयास का अंत देश के जन व धन की अपार हानि से पूरा हुआ, भारत ने सब कुछ खोया- स्वाभिमान खोया, गौरव खोया और अंत में अपना युवा पूर्व प्रधानमंत्री भी खो दिया।                                     (क्रमशः)

11/30/2010


बीसवीं सदी में भारत के इतिहास के 6 काले पन्ने (भाग 5)

चौथा काला पन्ना

भारतवासियों ने 1950 में संविधान की शपथ लेकर जन के तंत्र को स्वीकार किया। हमने कहा कि देश की संचालक आम जनता रहेगी। वह जनप्रतिनिधि चुनेगी और उनसे देश की सरकार चलवायेगी। अगर चलाने वालों ने अयोग्यता या भ्रष्ट आचरण का प्रदर्शन किया तो उन्हे बदल देगी। पूरें देश के संचालन के लिए एक व्यवस्था बनी, जो विधानसभा और लोकसभा के नाम से जानी जाने लगी।
वैसे भारत में गणराज्यों की व्यवस्था का पुराना इतिहास है। मालव, शूद्रक, वैशाली जैसे गणराज्यों का वर्णन भारतीय इतिहास में स्थान-स्थान पर मिलता है। हम भारत के लोग स्वभाव से ही प्रजातांत्रिक है। अधिनायकवाद हमें क्षणभर के लिए भी स्वीकार्य नहीं है। तानाशाही चाहे तामसिक, राजसिक या सात्विक आवरण ओढ़कर भी आये तो वह भारतीयो को स्वीकार्य नहीं। अतिवाद और आतंकवाद से भारतीयों को घृणा है। इस देश ने कठमुल्लेपन को कभी महिमामण्डित नहीं किया, धर्मान्धता हमारे रक्त में नहीं है। ऐसे भारत के गणतंत्र में भी काला पन्ना लिखा गया।

                      प्रजातंत्र की इस मातृभूमि में 25 जून 1975 की मध्य रात्रि में सत्ता के चाटुकारों और दलालों द्वारा जनतंत्र से बलात्कार किया गया। रात के अंधेरे में सोते हुए भारत के गणतंत्र पर जो हिटलरी हमला हुआ, वह गत शताब्दी का चौथा काला पन्ना है। इसे लगाने वालों को भूलना स्वयं में सबसे बड़ा पाप है।
आपातकाल लगाने की पूर्व बेला में भारत के मूर्धन्य पत्रकार, प्रसिद्ध लेखक व संपादक श्री राजेन्द्र माथुर द्वारा लिखे गए एक संपादकीय के शब्दों को दोहराना यहां सामयिक रहेगा। अपने लेख में वे लिखते है - ''देश में आज का दिन चाटुकारों और जी-हजुरी करने वालों का बलि चढ़ गया, सही दिशा देने के बजाय वे चरण भक्त इंदिरा गांधी का स्तुतिगान करते रहे। पार्टी के नेता कहते रहे आप जैसा कोई नहीं है मैडम! आप तो आप है। हाईकोर्ट के निर्णय से क्या फर्क पड़ता है! हम सुप्रीम कोर्ट चले जायेगें, आप प्रधानमंत्री पद मत छोड़िये, आपके बगैर देश डूब जायेगा।''
हद तो तब हो गई कि कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता देवकांत बरूआ ''इन्दिरा इज इण्डिया एंड इण्डिया इज इंदिरा'' जैसे नारे लगाने लगे और साठ करोड़ दिलो की धड़कन एक नई पहचान बन गई। इंदिरा हिन्दुस्तान बन गई, इंदिरा हिन्दुस्तान बन गई जैसी कविताएं रची जाने लगी। वैसे चापलूसी कांग्रेस का मूल चरित्र रही है। चाटुकारिता का काम वे पल दो पल नहीं, 24 घण्टे,365 दिन और पूरा जीवन बड़ी सहजता से करते है।25 जून 1975 के बाद कुछ ही दिनों में लाखों लोग जेलों में ठूंस दिए गए। उन्हे अमानवीय यातनाएं दी गई। बोलने और लिखने की आजादी देश और देशवासियों से छीन ली गई। हिटलर और मुसोलीनी की अधिनायकवादिता को अनुशासन पर्व पर रैपर चढ़ा दिया गया। जेलों में बंद सामाजिक कार्यकर्ताओं के हाथ, पैरों के नाखून टेबल और कुर्सियों के पायों से दबा-दबाकर निकाले गए। उनके गुप्तांगों पर मरणांतक प्रहार किए गए। कई लोग अनाम मौत का शिकार हो गए। देश नारकीय कष्टों से गुजरा। एक क्षण के लिए लगा, क्या देश ऐसी सुरंग में चला गया है जिसका कभी अंत नहीं होगा। रह-रहकर शंका होने लगी कि अब हमारा अर्थात भारत का अंत निश्चित है!

                             अधिनायकवादी और अलोकतांत्रिक होना कांग्रेस का सहज स्वभाव है। वह धर्म के आधार पर भारत को बांटते समय भी दिखता है, त्रिपुरी सम्मेलन के घटनाक्रमों में भी नजर आता है, चीन की पराजय पर दिए गए जबाबों में भी साफ झलकता है। कांग्रेस का यह स्वभाव दोष कल भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा। जैसे हिंसक प्राणी हिंसा से नहीं चूकता, वैसे ही कांग्रेस का नेतृत्व अधिनायकवादिता से नहीं चूकता। आपातकाल का अंत भी आपातकाल लगाने वालों के कारण नहीं हुआ था। वह दो प्रमुख कारणों से हुआ था।
एक - आपातकाल लगाने वाले कांग्रेस नेता इस गलतफहमी में थे कि हम चुनाव करवा कर फिर से शासन में आ जायेगें। उन्होने सोचा कि पड़ोसी देशों में जनतंत्र के नाम पर जिस प्रकार से चुनाव होते है, वैसे ही खानापूर्ति के लिए भारत में भी चुनाव करवाकर हम फिर पांच सालों के लिए सत्ता हथिया लेगें। लेकिन उनका यह अनुमान गलत निकला।
दूसरा - भारत इस प्रकार कर आततायी वृत्तियों से सदियों से लड़ता चला आया है। चूंकि भारतवासी प्रकृति से प्रजातांत्रिक, स्वभाव से सहिष्णु व हमला होने या करने पर अजेय योद्धा जैसा आचरण करते है इसलिए हम सही समय का इंतजार करते है, अपनी चेतना को कभी मरने नहीं देते। हम भारतीयों पर ज्यादा दबाब दो तो चुप हो जाते है, मजबूरी हो तो झुक भी जाते है। हमारे झुकने को कोई मिटना समझे और चुप रहने को कायरता मान बैठे तो यह प्रतिद्वंदी की सबसे बड़ी भूल होती है। भारत को गिरकर खड़ा होना बहुत अच्छी प्रकार से आता है। धर्म केन्द्रित हमारी इस सांस्कृतिक चेतना के कारण हमने कांग्रेस द्वारा थोपे गए आपातकाल को उखाड़ फेंका। कही आरएसएस ने नेतृत्व किया तो जनसंघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, समाजवादी व अन्य जन संगठनों ने। वस्तुतः आपातकाल का हटना ना तो कांग्रेस की हार थी न जनता पार्टी के लिए जीत। वह तो करोड़ों भारतीयों के द्वारा विश्व को दिया हुआ एक संदेश था, उन्होने गरजकर घोषणा की थी

हम आततायियों के आक्रमण से नहीं डरते, अत्याचारियों के दबाब के सामने नहीं झुकते, हम स्वभाव से प्रजातांत्रिक है और चेतना से स्वतंत्र है। कभी-कभी दूसरों को लग सकता है कि हम दब गए है या लड़खड़ा रहे है लेकिन उठकर, संभलकर किया हुआ हमारा पलटवार प्रतिद्वंदी के लिए प्राणांतक होता है। सच तो यह है कि हमारे प्रहार क्षेत्र में आया हुआ दुश्मन प्रहार के बाद पानी तक नहीं मांगता। हम अधिनायकवाद को जड़ मूल से उखाड़ फेंकते है, हमारा विरोध कभी किसी व्यक्ति से नहीं रहा, हमारा विरोध सदैव वृत्ति से रहा है। भारत के हर छोटे-बड़े, अपने-अपने स्थान पर नेतृत्व कर रहे या नेतृत्व करने की चाह रखने वाले नायको को यह एक मंत्र कंठस्थ कर लेना होगा। चाहे फिर वह नेतृत्व सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक या अन्य किसी क्षेत्र में हो। कोई बताने पर समझता है, कोई ठोकर खाकर समझता है, तो कोई सब कुछ खोकर समझता है। कांग्रेस की अधिनायकवादी नेतृत्व की वृत्ति कब और कैसे समझती है। वह 1977 में ठोकर खाकर तो नहीं समझती शायद सबकुछ खोकर समझ जाये। आपातकाल लगाकर कांग्रेस ने देश की गत शताब्दी का चौथा बड़ा पाप किया। आपातकाल लगाना व जनता को उसे भोगना भारतीय गणतंत्र के इतिहास में 2000 साल बाद भी शिक्षा व बोध कथाओं का हिस्सा बना रहेगा। बच्चों को पढ़ाया जाता रहेगा कि सन् 1975 में हमारे देश में एक ऐसा घृणित कार्य हुआ था। कांग्रेस नाम का एक राजनैतिक दल था, उसकी नेता इंदिरा गांधी नाम की महिला थी, उसने वा उसके साथियों ने देश में प्रजातंत्र की हत्या करने का प्रयास किया किंतु तत्कालीन भारतीय जनता ने उसे सिरे से नकार दिया।

हे देश के भावी कर्णधारों! तुम्हारे समय में भी कभी ऐसा हो तो तुम भी वैसे ही लड़ना जैसे 1975 से 1977 तक हमारे देश के लोग जनतंत्र के लिए लड़े थे।
(आपको यह लेखमाला कैसी लगी? कृपया अपने विचारों से अवगत अवश्य करावें )

बीसवीं सदी में भारत के इतिहास के 6 काले पन्ने (भाग 4)

तीसरा काला पन्ना

भारत की सेना अजेय है। समय आने पर इसके सैनिक अधिकारी सैन्य विशेषज्ञों के गणित को नकारते हुए विजयश्री का वरण करते है। कारगिल की लड़ाई में जब दुनिया कह रही थी कि यह कई महीनों की लड़ाई है, बत भारतीय सेना ने कुछ ही दिनों में पाकिस्तानियों का हर चोटी से सफाया करके युद्ध जीत लिया। लेकिन क्या कारण है कि 1962 के युद्ध में भारत ने चीन के हाथों से करारी हार देखी!
भारत के सैनिक मोर्चो से पीछे हटते हिमालय की वादियों में नंगे पैर, बिना भोजन और दवा के कई-कई किमी. भटकते रहे। दिशाहीन और बदहवास भटकते हजारों सैनिक मौत की नींद सो गए! 15 साल की आजादी देख रहा देश जिन बंदुकों से लड़ रहा था, उसका बैरल 25-50 राउंड फायर करने के बाद इतना गरम हो जाता था कि उसे चलाना तो क्या पकड़ना भी संभव नहीं होता था। बर्फ से आच्छादित हिमालय में पहनने के जूते नहीं, गरम कपड़े नही और र्प्याप्त प्रशिक्षण भी नही!
युद्ध शुरू होने के लम्बे समय बाद हिन्दी-चीनी भाई-भाई जैसे नारों के जन्मदाता व प्रवर्तक तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, नारा छोड़कर देश के लिए लड़ों-मरो के भाषण देने लगे। ऐसे खोखले भाषणों से कभी कोई सेना लड़ी है क्या! अपने आपको विश्व की महान हस्ती बनाने की कूटनीतिक गलतियां करते चले गए। कबूतरों को उड़ाकर देश की वायु सीमाओं को सुरक्षित समझते रहे। गुलाब का प्रयोग उन्हे दुश्मन देशों को परास्त करने में गोना-बारूद नजर आता रहा। 1950 में भारत से दूर कोरिया पर चीन ने आक्रमण किया तो नेहरू विश्व में घूम-घूम कर उस पर चिन्ता व्यक्त करते रहे। ठीक इसी वर्ष 1950 में चीन ने तिब्बत पर भी हमला किया, जो सामरिक दृष्टि से भारत के लिए अत्यंत खतरनाक था। लेकिन इस सम्बंध में न तो नेहरू बोले, न कृष्ण मेनन, न सरकार का कोई अधिकारी। सब चुप रहे!!

1950 से 1960 के 10 सालों में चीन ने तिब्बत से हिमालय की अग्रिम चौकियों तक सड़क मार्ग बना डाले। यातायात के अच्छे संसाधन खड़े कर लिए। हिमालय की सीमा तक वह सेना के साथ बढ़ता चला आया। नेहरू आंखे बंद कर खामोश रहे। प्रायोजित भीड़ के बीच हाथ हिला-हिलाकर हिन्दी चीनी भाई-भाई का नारा लगाते रहे। दिल्ली की राजनीतिक पार्टियों में चीनीयों के साथ सामूहिक फोटो खिंचाकर पंचशील का मंत्र जपा जाता रहा। चीन के राजनेता और कूटनीतिज्ञ खुश थे- नेहरू और उसके साथियों के इस आत्मघाती, आत्ममुग्ध व्यवहार पर। हिमालय की सुरक्षा के सम्बंध में हमारी क्या रणनीति है, यह आज जितनी कमजोर है, उससे 45 साल पूर्व की कल्पना पाठक सहज ही कर सकते है। चीन अधिकृत हिमालय में उसकी सीमा के अंदर अंतिम छोर पर चीन ने पक्की सड़के बना ली है। भारी गोला बारूद और रसद ले जाने के लिए उनके पास अग्रिम मोर्चे तक पक्की सड़के है। दूसरी ओर भारत की ओर से सीमा पर पंहुचने के जो मार्ग है, उनमें कई स्थानों पर पक्की सड़क के अंतिम बिंदु से सीमा चौकियों तक पंहुचने का माध्यम तब भी खच्चर था और आज भी खच्चर है। आज भी बेस कैम्प से अग्रिम सीमा चौकी तक जाने में कहीं-कहीं तीन से चार दिन का समय लगता है। आज भी भारतीय सेना और आईटीबीपी अपने शस्त्र व रसद खच्चरों पर ढ़ोकर सीमा पर ले जाती है। सोचिये, 1962 में जब चीन ने हमला किया था तब क्या स्थिति रही होगी। पराजय की भीषणता का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। इस पूरी पराजय, दुरावस्था और अपमान के लिए अगर कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार है तो वे है तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू। 1962 की शर्मनाक पराजय के बाद अपने मंत्री से त्यागपत्र मांगने की बजाय नेहरू स्वयं इस्तीफा देते तो सरहद पर शहीद हुए सैनिक तो नहीं लौट सकते थे, पराजय विजय में तो नहीं बदल सकती थी, लेकिन गलती पर थोड़ा प्श्चाताप जनमानस के अवसाद और दर्द को तो कम कर ही सकता था। लेकिन हमारे नेहरूजी...... लता मंगेशकर के एक गीत पर चंद आंसू बहाकर सैनिकों को श्रद्धांजलि दे फिर से प्रधानमंत्री बने रहने में व्यस्त हो गए। चीन के हाथों हुई हमारी हार और चीन के कब्जे वाला भारत का वह भू-भाग भारत के मुहं पर एक ऐसा तमाचा है, जिसे कम से कम आने वाली एक सदी तक तो नहीं भूला जा सकता। यहां फिर प्रश्न पैदा होता है कि सुभाषचन्द्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष पद पर से बलात् न हटाया गया होता, वे विदेश ना जाते, देश में रहकर अंग्रेजों से लड़ते रहते तो स्वतंत्र भारत में वे क्या होते! अपनी श्रेष्ठता के कारण वे निश्चित ही भारत के प्रधानमंत्री होते। वे होते तो भारत की कूटनीति और विदेश नीति फूलों और पक्षियों से नहीं समझाते, बल्कि ''तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे विजयश्री दूंगा'' जैसे नारों से जनता को बताते। सुभाष के रहते चीन के हाथों भारत की पराजय सपने में भी संभव नहीं थी। तब चीन ने भारत पर हमला तो दूर तिब्बत पर भी हमला करने से पूर्व हजारों बार सोचना था, लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ। यहां फिर सवाल नेहरू का नहीं सवाल है सुभाष। उनके ठीक स्थान पर ठीक समय नहीं होने का है। हमें समझ लेना होगा कि मक्खन को छोड़ छाछ उबालने से घी नहीं बनता।

11/27/2010


बीसवीं सदी में भारतीय इतिहास के छः काले पन्ने भाग 3

दूसरे काले पन्ने को भारत का काला पन्ना कहा जाये या विश्व का ही एक काला पन्ना माना जायेए इसे भविष्य तय करेगा। क्योंकि इस पन्ने में कालापन और दर्द की कसक इतनी ज्यादा है कि यह विश्व की अन्य किसी भी घटना में दिखाई नहीं देती। कल्पना करे कि हमारे शहर या प्रान्त को धर्म के आधार पर बांट दिया जाये तो क्या होगा। अपना पैतृक घर, कीमती सामान वहीं छोड़, सालों की बसाई गृहस्थी उजाड़कर शहर अथवा प्रदेश के दूसरे कोने में चले जाने को मजबूर कर दिया जाए तो ....। कुछ घंटों में घर से भागने को कहा जाये! वह भी ऐसी सड़कों और मोहल्लो से जो भीषण दंगो की चपेट में हो! यह सब इसलिए किया जाये क्योंकि जिस हिन्दु धर्म को हम मानते है उसके लोग दूसरे क्षेत्र में रहते है और यह इलाका मुसलमानों का है। रास्ते में लोग आपकी पत्नी, बच्चे, भाई-बंधु की हत्या कर दे, लूटपाट करे तो आपको कैसा लगेगा!
1947 में भारत के एक हिस्से को धर्म के आधार पर अलग कर, शेष हिस्से में उसी आधार को अस्वीकार करने का जो दो मुंहेपन और दोहरे मापदण्डों वाला तथा राष्ट्र के साथ क्रूर मजाक करने वाला आचरण रूपी अपराध कांग्रेस ने किया है, वह अकेला अपने आप में इतना बड़ा पाप है कि उसके लिए सारे कांग्रेसी सौ पीढ़ियों तक आजीवन प्रायश्चित करें तो भी कम है। विश्व के किसी भी सुसभ्य समाज में इस अपराध के लिए कम से कम नहीं सजा होगी जो कोई सभ्य समाज एक अपराधी को ज्यादा से ज्यादा सजा दे सकता है। संसार में साम्प्रदायिकता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि देश का हिस्सा धर्म के आधार पर अलग कर दिया जाये। सत्ता प्राप्त करने की जल्दी में लाखों देशवासियों को असमय ही मौत के हवाले कर दिया गया। चोरी और सीनाजोरी तो तब है जब अपने इस अपराध पर विभाजन करने वाले कांग्रेसियों को किसी प्रकार का अफसोस तक ना हो!
आज पाकिस्तान व बांग्लोदेश में जितने मुसलमान निवास करते है उससे कही अधिक भारत में है। धर्म के आधार पर बना हुआ पाकिस्तान अतिमहत्वाकांक्षी राजनेताओं की असफल योजनाओ का वह बदसूरत स्मारक है जिसके नीचे प्रेम नहीं घृणा दफन है। पाकिस्तान जिस सिद्धांत पर बना वह सिद्धांत आज पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। यह प्रमाणित हो चुका है कि समकालीन समय में जिन्होने देश को धर्म के आधार पर बांटने की योजना बनाई, जिन्होने उसमें सहमति दी और जो मौन रहे वे सब इस देश और मानव जाति की नजरों में उन हत्याओं और बलात्कारों के लिए नैतिक रूप से जिम्मेवार है, जो विभाजन के समय हुए थे।लार्ड वावेल ने भारत के सम्बंध में एक बहुत अच्छी बात कही थी, उसने कहा था,
गॉड हेज क्रिएटेड दिस कन्ट्री वन, एंड यू केन नॉट डिवाइड इट इन टू ।जो  बात ब्रिटेन में पैदा होने वाले राजनेता को समझ में आई वह भारत में जन्में जवाहरलाल नेहरू की समझ में नहीं आई। वास्तव में दोनो नेताओं में अंतर बहुत थोड़ा भी है और बहुत ज्यादा भी। वावेल ब्रिटेन में खड़े होकर भारत को देख रहे थे और नेहरू भारत में खड़े होकर ब्रिटेन को। एक कहावत है-
आप वहां देखिए जहां आपको जाना है अन्यथा आप वहां चले जायेगे, जहां आप देख रहे है।
पाकिस्तान कैसे बना! इस प्रक्रिया को समझने के लिए नेहरू के विचारों में होते बदलाव को गहराई से समझना आवश्यक है। भारत के पहले प्रधानमंत्री बनने के पांच साल पूर्व नेहरू से पूछा गया जिन्ना पाकिस्तान की मांग कर रहे है आपका क्या विचार है! नेहरू ने तमतमाते हुए जबाब दिया ''नथिंग इट इज फेंटास्टिक नोनसेन्स!''
 देश का संचालन करने की चाह रखने वाले की बोली गई बातो को तार-तार करके पढ़ना चाहिए। समाज उन्हे जो साधन, सुख-सुविधाएं प्रदान करता है वे इसलिए होती है कि वे बेहतर काम कर सके, न कि आमोद प्रमोद करते हुए मदमस्त घूमने के लिए। इन्ही नेहरू की उपस्थिति में भारत का विभाजन हुआ। उनके सामने हुआ, उनकी सहमति से हुआ। देश का उन्होने अपने हाथो से बांटा। समय बीता 1950 में फिर एक पत्रकार ने नेहरू से पूछा पाकिस्तान के सम्बंध में आपके क्या विचार है! नेहरू बोले ''नाऊ इट इज ए सेटल्ड फैक्टस!!'' एक राजेनता जो यह ना देख पाया कि देश विभाजन की ओर बढ़ रहा है। देश का प्रधानमंत्री बनने की चाह रखने वाला यह गणित ना लगा सका कि देश बंट रहा है, कटने जा रहा है। सत्ता की वासना ऐसी अनियंत्रित छटपटाहट में बदल जाये कि हमें मरते व कटते हुए हिन्दु-मुस्लिम ना दिखे। सत्ता प्राप्ति की ऐसी भी क्या लालसा कि उसके लिए मानव जाति को इतनी भारी कीमत चुकानी पड़े। क्या फर्क पड़ जाता अगर देश को आजादी 6 महीने पहले मिलती या बाद में। अंग्रेजों को तो जाना ही था, उन्होने अपना सामान बांध ही लिया था। वह छटपटाहट माउंटबैटन या एडविना की नजरों से नहीं बच पाई थी। उस रंगमंच के सभी पात्रों के अपने-अपने सपने थे। सभी के अपने गंतव्य थे। वे सब मिलकर भारत को बांट रहे थे और भारत की भोली-भाली जनता उनके षड्यंत्रों को समझ नहीं पाई। सच तो यह है कि कांग्रेस के डीएनए में सत्ता के प्रति लोलुपता साफ दिखाई देती है। आजादी के बाद सत्ता-प्राप्ति की इस वासना ने इतना विकराल रूप धारण कर लिया कि उसने करीब-करीब देश की राजनीति का ही कांग्रेसीकरण कर डाला। कपड़े पहनने से लगातार उठने-बैठने तक, बातचीत करने की शैली से लगाकर कार्य करने की पद्धति तक। सबमें समानता आ गई। बहुताय जिले के नेता प्रान्तों की राजधानियों को पत्र-पुष्प् भेन्ट करते है और प्रान्त के लोग चुनाव फंड के नाम पर राष्ट्रीय नेताओं को पैसा देते है। देते समय कहते है चुनाव के लिए है सर! सर लीजिए, लेकिन होती है वह व्यक्तिगत भेन्ट। नेहरू को शरणम गच्छामि लोग पंसद थे। कांग्रेस की संस्कृति में सबसे बड़ा नेता कहता है- तुम बने रहो, संवैधानिक पदों को भोगते रहो, बस हमारी कृपा के पात्र बने रहना। मैं जो चाहूं वही करो, नियुक्ति हो या निष्कासन, निर्णय हम करेगे, क्रियान्वयन तुम करना। मेरी हां में हां रही तो तुम राजपथ पर चलते रहोगे अन्यथा वनवास के लिए तैयार रहो। उन्हे स्वाभिमान से खड़े नेताजी सुभाषचन्द्र बोस अच्छे नहीं लगते। फिर चाहे अपना स्वतंत्र मत व्यक्त करते श्यामा प्रसाद मुखर्जी हो या चन्द्रशेखर आजाद। अगर आपने अपनी आवाज उठाई तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जायेगा। बगैर रीढ़ के और सत्ता के लिए कुछ भी करेगें का भाव रखने वाले लोग देश के विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कभी भी बैठ जाते है। ऐसे लोगो के नेतृत्व में देश घिसट-घिसट कर रेंग तो सकता है लेकिन संभलकर चल नहीं सकता। आजादी के आंदोलन के समय सुभाष बाबू का देश से बलात निष्कासन और सरदार पटेल को नेपथ्य में धकेलने की जो कूटनीतिक चाले चली गई, उसका परिणाम आज देश भुगत रहा है। सत्ता के लिए कांग्रेसियों के जब प्राण निकल रहे थे जब अंग्रेजों ने कांग्रेस नेतृत्व से पूछा था कि हम देश को आजाद करने जा रहे है, लेकिन पहले काटेगे फिर बांटेगे और फिर तुम्हे सौंपेगे! बोलो तैयार हो!! और दुर्भाग्य है कि कांग्रेस के नेता देश को बांटने के लिए तैयार हो गए। सच तो यह है कि हमने आजादी अंग्रेजों की इच्छा से नहीं, बल्कि अपने बाहुबल से प्राप्त की थी। वे हमें आजाद करके नहीं गए भारतीयों ने उन्हे भगाया। यह बात सड़क पर चलते आम नागरिक की समझ में आ रही थी लेकिन नेहरू की समझ में नहीं आई। उन्हे लगता था कि मांउटबैटन का मूड खराब हो गया तो शायद आजादी दूर चली जायेगी। नेहरू को कौन समझाता कि बंबई बंदरगाह में हुए विस्फोट आजादी के आने का शंखनाद था, न कि माउंटबैटन और एडविना का मायारूपी मकड़जाल।
सैफोलोजिस्ट से प्रभावित आज की राजनीति में उस समय के कुछ चुनावी आंकड़ों का विश्लेषण करे तो परिणाम बड़े रोचक मिलते है। आज जो पाकिस्तान और बांग्लादेश है वहां 1946 में प्रतिनिधि सभाओं के चुनावों में मुस्लिम लीग हार गई और जो वर्तमान भारत है उसमें मुस्लिम लीग जीत गई। अर्थात वह मुस्लिम लीग जो पाकिस्तान की मांग कर रही थी वह पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में जनता द्वारा अस्वीकार कर दी गई। बलूच, सिंध, पंजाब और बंगाल के मुसलिमों ने मुस्लिम लीग को ठुकरा कर अपना वोट कांग्रेस को दिया था। बलूच प्रान्त के गांधी, खान अब्दुल गफ््फार खान ने जीते जी कभी पाकिस्तान में वोट नहीं डाला। जब तक जीवित रहे हर चुनाव में दिल्ली आते और भारत में वोट डालते थे। उन्होने दिल्ली में अपना आवास सदा बनाए रखा। वे कहते थे, मैं पाकिस्तान के वजूद को अस्वीकार करता हूं। जब तक जिंदा हूं। भारत का हूं और भारत का रहूंगा।
कांग्रेस मुसलमानों से बातचीत के लिए मुस्लिम समाज से गलत प्रतिनिधियों का चुनाव करती रही। अब्दुल गफ्फार खान जैसे देशभक्त को छोड़कर वह जिन्ना को सर पर बिठाए घूमती रही।
जिन्ना को ही मुसलमानों का एकमात्र नेता मानती रही। कांग्रेस के नेता जिन्ना से बार-बार कहते रहे - ''जिन्ना मेरे भाई मान जाओं, हम तुमसे प्रार्थना करते है, मान जाओं!'' दूसरी ओर जिन्ना उनकी हर मांग को अपनी सिग्रेट के धुंए में उन्ही में मुंह पर उड़ाता रहा। यह कौनसी कूटनीति थी और कैसी राजनीति! तब भी समझ से परे थी और आज भी। भारत को धर्म के आधार पर बांटना भारत की गत शताब्दी का दूसरा काला पन्ना है। इस काले पन्ने के लेखक, नायक और महानायक जवाहरलाल नेहरू और केवल नेहरू है।                                         (क्रमशः)

बीसवीं सदी में भारतीय इतिहास के छः काले पन्ने भाग -2

अब प्रश्न खड़ा होता है कि उस दिन कांग्रेस की सभा में सुभाषचन्द्र बोस ने इस्तीफा नहीं दिया होता तो 15 अगस्त 1947 को लाल किले की प्राचीर पर झण्डा कौन फहरा रहा होता? सुभाषचन्द्र बोस जैसा ऊर्जावान व्यक्ति अगर भारत का प्रथम प्रधानमंत्री होता तो भारत की विदेश नीति क्या होती? पड़ोसी देशों से सम्बंध कैसे होते? देश की आतंरिक व बाहरी सुरक्षा व्यवस्था कैसी होती? क्या पाकिस्तानी कबीलाई कश्मीर में घुसकर कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा दबोच सकते थे? क्या चीन भारत को तो छोड़िए तिब्बत पर भी आक्रमण करने का साहस कर सकता था? 60 सालों से भी अधिक समय से बदहाली झेल रहा यह भारत अगर विकास के क्षेत्र में पिछड़ गया है तो उसका मूल कारण है सुभाष बाबू का वह त्याग पत्र! असमय भारतीय समाज जीवन से उनकी अनुपस्थिति। उस दिन पण्डाल से केवल सुभाष बाबू ही बाहर नहीं गए, शक्तिशाली भारत का भविष्य भी बाहर चला गया। उन्होने कोलकाता शहर को नहीं छोड़ा, अकेले भारत की सीमा के बाहर नहीं गए, उनके साथ भारत का भाग्य भी कुछ समय के लिए सीमा पार गया। पार्टी की संवैधानिक व्यवस्था असंवैधानिक प्रयत्नों के सामने हार गई, अनन्त ऊर्जा जो भारत का निर्माण कर सकती थी व्यक्ति निष्ठा की बलि चढ़ गई। स्वर्णिम भारत का भविष्य भी 25-30 सालों के लिए आगे चला गया। शासन का कोई पद खाली नहीं रहता, कोई भी लड़का या लड़की उम्र भर कुंवारा नहीं रहता। हर पद भर जाता है और हर बच्चे  की शादी हो जाती है। मूल बात यह है कि योग्यता के अनुसार जिसे जहां होना चाहिए था, वह वहां था अथवा है क्या। अब घर में प्रज्ञा अपराध होता है तो उसका परिणाम पूरा कुनबा भुगतता है। देश के शक्ति केन्द्र पर जब यह अपराध होता है तो उसे पूरा देश भुगतता है। देश की एक दो नहीं कई पीढ़ियां उस दंश और शूल को भुगतती है। प्रजातंत्र की बाते करने वालों को यह समझ लेना होगा कि असहमति विरोध नहीं है। अयोग्य और नपुंसक को बेटी देकर कोई बाप सुखी नहीं हो सकता है। प्रत्येक कार्य को योग्य कार्यकर्ता और योग्य कार्यकर्ता को उपयुक्त कार्य देना योजनाकारों का काम है जब योजनाकार अपने पट्ठों को नवाजे और अपने से असहमति करने वालों को दुत्कारे तो समझो कि घी नाली में ही बह रहा है।सुभाष चन्द्र बोस एक घनीभूत ऊर्जा थे, ऊजा्र मार्ग मांगती है, अगर उसे मार्ग ना दिया जाये तो वह विस्फोट करते हुए अपनी दिशा स्वयं तय करती है। परदे के पीछे से राजनीति को संचालित करने वाले हमेशा अपने आस-पास कमजोर लोगो को पसंद करते है। व्यक्तियों की पसंद-नापसंद के उनके अपने मानक होते है। क्षमतावान जनाधार वाले व्यक्ति सामान्यतः इस प्रकार के लोगो की पंसद नहीं होते। वे उनके आत्मविश्वास को दंभ और योग्यता को लीक से हटकर व्यक्तिगत छवि के लिए काम करने वाले व्यक्ति के रूप में देखते है। वे औसत क्षमता को प्रतिभा और असाधारण गुणों को अयोग्यता मानते है। सच तो यह है कि शक्ति को पचाने के लिए शिव लगता है, राम के राज्याभिषेक को वशिष्ठ लगता है, राम जैसे कपड़े पहन, सज-धज कर घूमने से रामलीला का राम तो बना जा सकता है किंतु मर्यादा पुरूषोत्तम राम नहीं। चाणक्य की भांति चलने और अभिनय करने से बहरूपिया तो बना जा सकता है, चाणक्य नहीं। दुर्भाग्य से देश जिस अवस्था में गत शताब्दी से चला आ रहा है वह तिलक, सावरकर, सुभाष व वल्लभ भाई पटेल जैसे व्यक्तित्वों की ऊंचाई घटाने या मिटाने का कार्य ही कर रही है। इन महापुरूषों के समकालीन समय में उनके घुटनों तक जिनकी ऊंचाई नहीं आती थी, ऐसे लोगो द्वारा उन्हे हटते और मिटते हम इतिहास में देखते है।
नेताजी बलुचिस्तान, अफगानिस्तान, जर्मनी फिर जापान, रंगुन होते हुए अनन्त की यात्रा पर चले गए। वे कब गए? कहां गए? यह रहस्य का विषय है लेकिन वे क्यों गए? यह प्रश्न आज की पीढ़ी दीवारों पर लगे हुए उन चित्रों से पूछना चाहती है। हमें जबाब दो नायको, इस देश के लाल को विदेश क्यों जाना पड़ा। देश  माउंटबैटन और एडविना की मुस्कुराहट पर क्यों चला। जिस महानायक को इंग्लैण्ड ने समझा, जर्मनी ने पहचाना, जापान ने परखा, देश के छोटे-छोटे लोगो ने जाना। महिलाओं ने हंसते-हंसते उन्हे अपने सोने के जेवर व बच्चों ने पाई-पाई कर बचाई गई गुल्लके दे दी मगर उन्हे नहीं समझा तो कांग्रेस के कर्णधारों ने। कभी कल्पना करता हूं कि 15 अगस्त 1947 को लाल किले की प्राचीर से अगर सुभाष बाबू बोल रहे होते तो कैसे लगते? देश उन्हे कैसे सुनता? देश की व्यवस्था उनके संकेत पर कैसे चलती? रक्षा सेनाओं का पुनर्गठन वे कैसे करते? जिसके पास सेना के नाम पर कोलकत्ता में देसी तमंचा भी नहीं था, उसने आजाद हिन्द फौज खड़ी कर दी! स्वतंत्र भारत की सैन्य शक्ति उन्हे मिल जाती तो वे उसे विश्व की महान शक्तिशाली सेना बना देते। देश के दुश्मन दुम दबाए घूमते नजर आते। लेकिन अफसोस! यह नहीं हो सका। कांग्रेस के तात्कालीन कर्णधारों की हठधर्मिता और विद्याता के इस क्रूर मजाक की भारत ने बहुत बढ़ी कीमत चुकाई हैएक सपना सच होता तो भारत कैसा होता..........।                          (क्रमशः)

बीसवीं सदी में भारतीय इतिहास के छः काले पन्ने

                                                                      रामदास सोनी( स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने बरसों पूर्व भारतीयों को उनके गौरवशाली इतिहास और परम्परा से परिचित करवाने के लिए भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ नामक ग्रन्थ की रचाना की थी ताकि भारतीय अपने आप को पहचाने और किसी भी प्रकार की विदेशी सत्ता के समक्ष नत-मस्तक ना हो, राष्ट्रीय जीवन मूल्यों की आभा से उनका जीवन ही नहीं वरन मुख मण्डल भी प्रदीप्त रहे किंतु वर्तमान में विचारधारा के संघर्षकाल में या यू कहे कि संक्रमण काल में देश घटनाक्रम जिस तेजी से करवट ले रहा उससे आम नागरिक भौचक्का सा रह गया है, वैचारिक भ्रम इतना गहरा रहा है कि सच और झूठ में विभेद कर पाना काफी कठिन लगता है, ऐसे में देशवासियों को उनके स्वत्व, गौरव गरिमा और इतिहास के बारें में अवगत कराने की दृष्टि से लिखी गई है यह लेखमाला। इस लेख में 15 अगस्त 1947 से लेकर आज तक हमारे भाग्य विधाताओं ने जो महत्वपूर्ण भूले की है उनका वर्तमान में हमको क्या मूल्य चुकाना पड़ रहा है, के बारें में चर्चा की गई है।)
बीसवीं सदी में भारतीय इतिहास के छः काले पन्ने भाग .1इस वर्ष आपातकाल को 35 साल बीत गए है। यह एक ऐसी घटना थी, एक ऐसा कानून था, जिसे लागू करने वाले लोग भूल जाना चाहते है और भुगतने वाले रह-रहकर याद रखना अपना धर्म समझते है। सवाल यह है कि हम भारत के लोग इतिहास से सबक लेकर कब अपना वर्तमान बुनेगें और भविष्य संवारेगें? हम भारतीयों के सम्बंध में यह सामान्य धारणा है कि हमारी सामाजिक स्मृति कमजोर है। हमारा कोई बुरा करे, हम पर आपराधिक कृत्य करें, आक्रमण करे या हमारे देश में बम विस्फोट करे, तो हम उसे भूलकर अपने आपको महान् और दयावान बताने का प्रयास करते है। भारतीय अपने पर आक्रमण करने वाले को भूल जाते है। उन्हे वे चेहरे याद नहीं रहते, जिन्होने उन्हे दास बनाया। हम भारतीय उन कारणों की कभी समीक्षा नहीं करते जो हमारी अवनति और पराजय के लिए जिम्मेदार होते रहे है। हमें न तो उपकार याद रहता है और न अपकार। इसलिए हम अपने लिए काम करने वाले, अपने लिए शहीद हो जाने वालों या हमारे लिए तिल-तिल कर जीवन गला देने वालों को भी भूल जाते है। चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह आज पाठ्यक्रम से बाहर है। गांधी के स्वदेशी और स्वाबलंबन कार्यक्रमों से देशवासी कोसो नहीं हजारों मील दूर चले गए है। देश की सुरक्षा में शहीद हुए नायको से नाता 15 अगस्त और 26 जनवरी को बजने वाले गानों की कैसेट में सिमटकर रह गया है। वस्तुत: भूल जाने की वृत्ति के कारण भारतीय समाज ने समय- समय पर बड़ी कीमत चुकाई है। ऐसी कीमत जो दुनिया के किसी देश और कौम ने नहीं चुकाई। हमें यह सीखना होगा कि कोई हमारे साथ गलत करे तब हम उसे सजा अवश्य दे। हमलावर पुनरावृत्ति न करे, इस बात के लिए हमने आवश्यक कदम न उठाए तो यह मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं। आपातकाल गत शताब्दी के प्रमुख काले पन्नों में से एक है। बीती शताब्दी में समय ने कई काले पन्ने लिखे है उनमें से प्रमुख छः काले पन्ने देशवासियों के विचारार्थ प्रस्तुत है-
 प्रथम काला पन्ना - सुभाष बाबू की राजनैतिक हत्याकिसी भी देश, व्यवस्था अथवा व्यक्ति के जीवन में जो बाते प्रथम बार होती है, उनका प्रभाव उस पर सदियों तक बना रहता है। जब भारत आजाद हुआ तो उसका पहला शासक कौन बना? उसकी नीतियां क्या थी? इसका प्रभाव उस देश, वहां की जनता व आगे आने वाली कई पीढिय़ों पर पड़ता है। किसी संस्था का स्थापना पुरूष कौन है? इस बात का असर जीवन भर उस संस्था पर बना रहता है। प्रारंभ का यह प्रभाव घट-बढ़ सकता है,किंतु समाप्त कभी नहीं होता। सदियों की गुलामी के बाद भारत स्वतंत्र होने पर उसका जो पन्ना लिखा गया, उसके नेपथ्य में जाना आवश्यक है।
एक नायक 48 साल की उम्र में संसार से चला गया! ऐसा कुछ लोग मानते है। 35 साल की उम्र में कोलकाता जैसे महानगर का मेयर बन गया। 41 साल की उम्र में वह युवा जब राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद को ग्रहण करता है तो कांग्रेस ही नहीं, पूरा देश उसकी ओर आशाभरी दृष्टि से देखने लगता है। जनता प्रेम से उसे  नेताजी जैसा सम्मानजनक उपनाम देती है। लोगों को सुभाषचन्द्र बोस के हाथों में स्वतंत्र और समर्थ भारत बनता हुआ दिखाई देने लगता है। लेकिन कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग उनके अध्यक्ष बनते ही उन्हे हटाने के ताने-बाने बुनने लगा। यही से भारतीय इतिहास का यह काला पन्ना लिखा जाना प्रारंभ होता है। कांग्रेस के तात्कालीन कर्ता-धर्ता जैसे-तैसे तो एक साल के लिए उन्हे अध्यक्ष के रूप में धका ले गए लेकिन दूसरे कार्यकाल के लिए जब सुभाष ने फिर अध्यक्ष पद का चुनाव लडऩे की घोषणा की तो कांग्रेस के कर्णधारों में खलबली मच गई। उस वर्ष कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन त्रिपुरी- जबलपुर में हुआ था। सुभाष बाबू बहुत बीमार थे। सहयोगी और सलाहकारों ने उन्हे सम्मेलन में न जाने को कहा, लेकिन वे जिद्द पर अड़े रहे। ठीक समय त्रिपुरी- सम्मेलन में पंहुच गए। कमजोरी और अस्वस्थता के कारण उन्हे स्ट्रेचर पर लिटाकर मंच पर लाया गया। सुसुप्त रूप में गांधीजी के मन में सुभाष बाबू के लिए पूर्व में ही अनमना भाव था। गांधीजी ने जब देखा कि सुभाष बाबू वापस अध्यक्ष बनने जा रहे है तो उन्होने पट्टाभिसीतारमैया को सुभाषचन्द्र बोस के सामने चुनाव में खड़ा कर दिया। विधिवत चुनाव हुआ जिसमें सुभाष बाबू 200 मतों से विजयी रहे और दूसरे कार्यकाल के लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित हुए। चुनाव में अपने उम्मीदवार की पराजय को गांधीजी ने इतनी बड़ी माना कि वे सार्वजनिक रूप से बोले, यह पट्टाभिसीतारमैया की हार नहीं बल्कि मेरी हार है। खुले पण्डाल में सभी राष्ट्रीय प्रतिनिधियों के सामने विधिवत रूप से चुनाव लड़कर चुने गए उम्मीदवार का अस्तित्व अब खतरे  में था। उनके साथ उनकी कार्यकारिणी के सदस्यों ने असहयोग करना प्रांरभ कर दिया। अपने अध्यक्षीय भाषण में सुभाष ने पांच बिन्दुओं पर प्रकाश डाला। वे बिन्दु आज के संदर्भ में प्रासंगिक भी है व विचार करने योग्य भी। भाषण में रखे गए बिन्दु हमें यह ध्यान दिलाते है कि एक राष्ट्र नायक की दृष्टि व सोच की दिशा कैसी होनी चाहिए वे कहते है -
1. कांग्रेस के पास एक अति अनुशासित स्वयंसेवक दल होना चाहिए।
2. स्वतंत्र भारत में शासकीय अफसरों का एक कैडर गठित किया जाये। एडमिनिस्ट्रेशन का वह कैडर कांग्रेस के विचारों से पोषित हो।
3. श्रमिक व किसान संघों को मान्यता देकर कांग्रेस से जोड़ा जाये व उन्हे देश सेवा के कार्यो में लगाया जाये।
4. कांग्रेस में वामपंथियों को चकबंद कर उनसे समझौता किया जाये कि वे भविष्य में समाजवाद पर अडिग रहेगें।
5. भारत के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंध बढ़ाना व भारत की स्वतंत्र विदेश नीति का निर्माण करना।
कांग्रेस प्रतिनिधियों से खचाखच भरे पण्डाल के सामने दिए गए उस भाषण में लोगो ने स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की झलक देखी। उन्होने देखा कि 42 साल का यह युवा ओज और तेज से भरपूर है, जिसकी विचार करने की शैली कांच की भांति साफ है। प्रतिनिधियों को उनमें बढ़ते भारत का भविष्य दिखाई दिया लेकिन दुर्भाग्य, उसी अधिवेशन में कांग्रेस कार्यसमिति ने एक प्रस्ताव पारित किया, उस प्रस्ताव में उन्होने जो लिखा वह निर्वाचित अध्यक्ष पर असंवैधानिक दबाब था। एक अध्यक्ष के नाते कार्य करने की स्वतंत्रता पर सीधा हस्तक्षेप था। कांग्रेस कार्यसमिति ने प्रस्ताव में लिखा कि -
कार्यसमिति में रहने वाले किसी भी व्यक्ति को गांधीजी का निर्विवाद विश्वासपात्र होना आवश्यक है।गांधीजी के उम्मीदवार को हराकर अध्यक्ष बने सुभाष बाबू पर यह एक प्रकार से सीधा-सीधा हमला भी था और बंधन भी। जो कुछ भी यहां लिखा जा रहा है वह पट्टाभिसीतारमैया द्वारा लिखित कांग्रेस के इतिहास व कांग्रेस पर लिखित पुस्तकों व उसके सन्दर्भो में वर्णित तथ्यों व प्रमाण के साथ है।
कार्यसमिति सीधे-सीधे अध्यक्ष को कह रही थी कि जो भी कार्य करो, फिर चाहे कार्यकर्ताओं का मनोनयन करो अथवा नियुक्ति, वह सब गांधीजी की सहमति के बाद ही करो। उनकी इच्छा पहले जान लो और उसे ही निर्देश मानो। सम्मेलन व उसके बाद कार्य के गतिरोध हटाने पर लम्बी बहस होती रही, बातचीत के कई दौर चले। समकालीन कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने बीच में पड़कर विवाद को बढ़ने से रोकना चाहा। लेकिन दूसरे धड़े को मानने वालों ने सुभाष बाबू को किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता देने से मना कर दिया। संविधान और विधान के तहत चुने गए अध्यक्ष ने थककर कलकत्ता में 1939 में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के खुले मंच से इस्तीफा हाथ में रख, भाषण देते हुए कहा-
मैं अपना ही निवेदन दोहराना चाहता हूं। वे अर्थात गांधीजी त्रिपुरी कांग्रेस द्वारा सौंपे गए दायित्व का वहन करे और कार्यकारिणी समिति मनोनीत करे। हमारा दुर्भाग्य रहा है कि हर प्रकार से विचार-विमर्श के बावजूद महात्मा गांधी कार्यकारिणी समिति नामजद नहीं कर सके। इसलिए सहयोग की भावना से मैं आपको अपना इस्तीफा सौंप रहा हूं।राजनीति के इन काले पन्नों को लिखने की यह शुरूआत थी।    

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