23.8.12

भारतीय शक्ति की पहचान  
 
विजयादशमी बुराई पर अच्छाई की विजय का उत्सव है। भारत को इस समय घर-बाहर, समाज, देश और दुनिया की बुराइयों से लड़ना है। यह अपनी परंपरा और संस्कृति है इसीलिए दुनिया की निगाहें भारत पर रहती हैं। विजयादशमी से अगले 100 दिनों में तीन महाशक्तियों- अमेरिका, फ्रांस और रूस के शीर्ष नेता भारत के राजनीतिक-सामरिक महत्व और आर्थिक शक्ति की संभावना को ध्यान में रखकर यहाँ आने वाले हैं।

कौटिल्य ने बहुत पहले लिखा था- 'यह शक्ति और केवल शक्ति है जो इस दुनिया और दूसरी दुनिया- दोनों को नियंत्रित करती है।' उपनिषद् में भी कहा गया है- 'शक्ति ज्ञान से श्रेष्ठ है।' दूसरी तरफ यह भी सच है कि शक्ति के लिए राज सत्ता की आवश्यकता होती है।

अस्त्र-शस्त्र होने मात्र से कोई शक्तिशाली नहीं माना जा सकता। एक समय भारत के कई राजा-महाराजा बहुत शक्तिशाली थे लेकिन विदेशी आक्रमणकारियों ने उन्हें अपनी चालों और फिर ताकत से पराजित कर दिया।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सत्ता को नैतिक आश्रयों पर निर्भर नहीं माना गया। कौटिल्य ने तो सत्ता के लिए चार उपायों की महत्ता बताई। ये हैं- साम (बातचीत से समझा-बुझाकर), दाम (उपहार या किसी भी रूप में धन देकर), भेद (शत्रु के शिविर में फूट डालकर) और दंड (दंड देकर या शक्ति का उपयोग कर)। विश्व में सत्ता तथा आर्थिक ताकत के लिए ऐसे ही उपायों का सहारा लिया जा रहा है।

महाभारत में श्रीकृष्ण ने पांडवों की विजय के लिए जहाँ अतिआवश्यक हुआ, अनुचित उपायों का सहारा भी लिया। कृष्ण का तर्क था कि यदि शत्रु बलवान हो तो छल न्यायोचित है। कौरव अधर्म के प्रतीक थे। उन्हें हराया जाना आवश्यक था। ऐसी स्थिति में परिणाम तरीकों का औचित्य सिद्ध करता है।

असल में भारत का प्राचीन इतिहास इस बात को सिद्ध करता है कि समाज, राष्ट्र और सत्ता की रक्षा के लिए सार्वभौमिक आचार संहिता नहीं है। बड़े उद्देश्यों के लिए नैतिकता के दृष्टिकोण में लचीलापन स्वीकारा गया है इसलिए भारत को सही अर्थों में महाशक्ति बनने के लिए संकीर्णताओं, कट्टरपन और आडंबरों से मुक्ति पानी होगी। भारत मानवीय मूल्यों और संपूर्ण समाज की तरक्की के आदर्शों को साथ रखते हुए दुनिया के साथ रिश्ते बनाए रख सकता है।

प्राचीन अर्थशास्त्री यही पाठ पढ़ाते रहे कि धर्म, अर्थ और काम में अर्थ सबसे महत्वपूर्ण है। अर्थ के बिना धर्म का व्यवहार नहीं किया जा सकता। भारतीय संस्कृति में भी भौतिक सुखों को मोक्ष की राह में रोड़ा नहीं माना गया। अर्थशास्त्र के अनुसार राजा हमेशा अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में सक्रिय होगा। संपन्नता की जड़ आर्थिक क्रिया है और उसका अभाव विपत्ति लाता है। आर्थिक क्रिया के बिना समृद्धि तथा भावी विकास दोनों नष्ट हो जाएँगे।

ND
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने दो हजार साल पहले लिखी गई 'तिक्कुरल' से उद्धृत कर तीन पंक्तियाँ बताई थीं- किसी देश के विकास के महत्वपूर्ण तत्व हैं- रोगमुक्त रहना, समृद्धि, उच्च उत्पादकता, सद्भावनापूर्ण जीवन तथा मजबूत रक्षा व्यवस्था। संस्कृत रामायण में भी स्पष्ट शब्दों में लिखा गया है- धन अर्जन करो। दुनिया की जड़ें शक्ति संपदा में हैं। एक गरीब व्यक्ति और मृत व्यक्ति में कोई अंतर नहीं है। समुचित आर्थिक विकास होने पर ही राष्ट्र शक्तिशाली बन सकता है।

सवाल यह है कि शक्तिशाली होने का वास्तविक अर्थ क्या है? अस्त्र-शस्त्र होने मात्र से कोई शक्तिशाली नहीं माना जा सकता। एक समय भारत के कई राजा-महाराजा बहुत शक्तिशाली थे लेकिन विदेशी आक्रमणकारियों ने उन्हें अपनी चालों और फिर ताकत से पराजित कर दिया। सैन्य शक्ति तो अमेरिका, ब्रिटेन या रूस के पास कम नहीं थी लेकिन वियतनाम में क्या हुआ? इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका को कितनी सफलता मिल पाई?

शक्ति तो रावण के पास बहुत अधिक थी। रामायण में एक स्थान पर उल्लेख है कि जब रामचन्द्रजी लंका पहुँचे तब विभीषण ने उन्हें दिखाया कि यह आपका शत्रु रावण है। तब राम ने विभीषण से कहा- ओह कितना भव्य पुरुष है। यदि यह पाप कर्मों और अहंकार से भरा नहीं होता तो तीनों लोकों का राजा बन सकता था। यही कारण था कि रावण और उसके साथियों को राक्षसों की संज्ञा दी गई।
शक्ति सही ढंग से अर्जित हो और उसका उपयोग भी सही ढंग से हो, तभी कोई समाज और राष्ट्र सफल तथा संपन्न हो सकता है। वहीं शक्ति संपन्न होने के लिए समाज का संगठित होना जरूरी है। संगठित समाज से आत्मनिर्भरता प्राप्त हो सकती है। इसी तरह अनुशासन के लिए व्यवस्था जरूरी है।

भारत की आर्थिक सफलताओं के लिए बड़े सपने बुने जाते हैं और अमेरिका-चीन से प्रतियोगिता की इच्छा पाली जा रही है, लेकिन इस विजय-यात्रा में सबसे बड़ी रुकावट है भ्रष्टाचार को जीवन पद्धति की तरह स्वीकार कर लेना।

हर साल देश के अनेक नगरों में रावण, कुंभकर्ण के पुतलों पर भ्रष्टाचार लिखकर उन्हें जलाया जाता है। गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा की झाँकियों में भ्रष्टाचार की समस्या को रेखांकित किया जाता है लेकिन उत्सव समाप्ति के बाद वही लोग भ्रष्टाचार के अंधे कुएँ में अपनी मटकी डालने लगते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने पिछले दिनों एक फैसले में व्यंग्य करते हुए यह तर्क दिया कि देश में भ्रष्टाचार पर कोई नियंत्रण नहीं है। सरकार भ्रष्टाचार को वैध क्यों नहीं कर देती और संबंधित विभाग में हर केस के निपटारे के लिए एक निश्चित राशि तय कर दी जाए। यह टिप्पणी बहुत गंभीर स्थिति इंगित करती है। दूसरी तरफ नक्सली आतंकवाद की हिंसा ने देश के विभिन्न हिस्सों को बर्बाद कर रखा है इसलिए रावण-दहन पर खुशियाँ मनाते समय इन दो बुराइयों की समाप्ति के लिए भी कोई संकल्प होना चाहिए।

देश में श्रीराम, श्रीकृष्ण से लेकर महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, कार्ल मार्क्स, जयप्रकाश नारायण, डॉ. हेडगेवार और दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर सत्ता की राजनीति होती है लेकिन इन बुराइयों के नाश के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं होता है। नैतिकता और ईमानदारी का पाठ पढ़ाने वाले कई धर्मगुरुओं के आश्रमों में भ्रष्ट और अपराधी तत्वों को शरण मिल रही है। योग सिखाने वाले स्वामी रामदेव अब काले धन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनजागरण के लिए एक लाख किलोमीटर की स्वाभिमान यात्रा पर निकले हैं लेकिन पिछले वर्षों के दौरान उनके आश्रम में आसन सीखने वाले कई नेता भ्रष्टाचार और काले धन के धंधे में फँस रहे हैं।

अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर जिन नेताओं ने करोड़ों रुपए जमा किए हैं, वे एक बार फिर मंदिर की राजनीति की तैयारी कर चुके हैं। इसलिए साधु के भेष में रावण की तरह छल प्रपंच और अपराध करने वालों से मुक्ति का संकल्प लिए बिना क्या दशहरे की बधाई देना उचित होगा?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.