27.8.12

भारतीय बीज जीन बैंक पर खतरा : निजी कृषि कंपनियों के हाथों बेचने की साजिश



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     यूनेस्को ने भारत के कई स्थानों की जैव विविधता को विश्व के लिए महत्वपूर्ण कृषि विरासत एवं खाद्य सुरक्षा के लिए उपयोगी मानते हुए उन्हें संरक्षित करने की बात कही है. 12वीं शताब्दी में ही रूस के प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी निकोलाई वाविलो ने भारत को कई फसलों का उत्पत्ति केंद्र (ओरिजिन ऑफ क्रोप) बताया था. फिर भी जैव विविधताओं से भरे इस देश में जब एक किसान को विदेशी कंपनियों से बीज खरीदने पड़ें तो इसे क्या कहेंगे? इन कंपनियों के बीज हाइब्रिड क़िस्म के होते हैं यानी उनका दोबारा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, जैसे बीटी कॉटन. हाल में संसदीय पैनल ने बीटी ब्रिंजल समेत अन्य जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों पर तब तक रोक लगाने की सलाह दी है, जब तक एक विश्वसनीय कंट्रोल मैनेजमेंट के लिए ढांचा नहीं तैयार हो जाता है. बहरहाल, चौथी दुनिया के पास कुछ ऐसे दस्तावेज़ मौजूद हैं, जो इस बात को साबित करते हैं कि कैसे भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और उसके तहत आने वाली कुछेक संस्थाओं में भारी गड़बड़ी चल रही है. कैसे भारतीय बीजों को दूसरे देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों बेचने की साज़िश की जा रही है. इस पूरी कहानी के मुख्य किरदार इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च (आईसीएआर), नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज (एनबीपीजीआर), (एनआरसीपीबी), यहां के बड़े अधिकारी और कृषि मंत्रालय हैं. जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) बीजों के सहारे कृषि उत्पादन बढ़ाने के विचार से आईसीएआर ने 2005 में चावल, गेहूं, दलहन एवं तिलहन की जेनेटिकली मॉडिफाइड प्रजाति के विकास के प्रयास शुरू किए. इस प्रोजेक्ट की ज़िम्मेदारी सौंपी गई डॉक्टर के सी बंसल को, जो तब एनआरसीपीबी के प्रिंसिपल साइंटिस्ट थे. यह प्रोजेक्ट क़रीब 135 करोड़ रुपये का था.
भारत का बीज जीन बैंक दुनिया के सबसे बड़े जीन बैंकों में से एक है. बीजों का महत्व क्या होता है, इसे द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रूस में घटी एक घटना से समझा जा सकता है. रूसी सैनिकों के पास बीजों का एक भंडार था, लेकिन उन्होंने भूखों मरना स्वीकार किया, बजाय उन बीजों को खाकर अपनी जान बचाने के. ऐसा नहीं है कि देश के भीतर अनुसंधान केंद्र नहीं हैं या नए किस्म के बीजों की खोज नहीं हो रही है. जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) बीजों के दौर में सरकार ने करोड़ों रुपये अनुसंधान के लिए खर्च किए, फिर भी देश में किसानों और कृषि की हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती क्यों जा रही है? आखिर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद जैसी संस्थाओं और देश के कृषि मंत्रालय का इस सबमें रोल क्या है? जिन देशी फसलों के जेनेटिकली मॉडिफाइड बीज तैयार करने का दावा किया जाता है, वे कहां हैं?
चौथी दुनिया के पास उपलब्ध दस्तावेज़ के मुताबिक़ इस रिसर्च को जिस उद्देश्य से शुरू किया गया था, वह अधर में लटक गया. इस पूरी कहानी से जुड़े दो अहम तथ्य हैं. पहला, इस प्रोजेक्ट से जुड़े अधिकारियों से और दूसरा सीड जीन बैंक पर डाका डालने की योजना से. उपरोक्त प्रोजेक्ट का मुखिया डॉ. के सी बंसल को बनाया गया था. प्रिंसिपल साइंटिस्ट के तौर पर उन्होंने सूखे क्षेत्रों के लिए गेहूं और धीमी गति से पकने वाले टमाटर की प्रजाति विकसित करने का दावा किया था और इससे संबंधित कई रिसर्च पेपर भी प्रकाशित हुए, लेकिन सवाल है कि ऐसी प्रजातियों के बीज आखिर कहां हैं? चौथी दुनिया के पास उपलब्ध दस्तावेज़ के मुताबिक़ डॉ. बंसल जब निदेशक बनकर एनबीपीजीआर पहुंचे, तब उन्होंने जिन प्रजातियों के विकास का दावा किया था, उनके बीज अपने मूल संस्थान में जमा नहीं कराए. जबकि नियमत: उन्हें एनआरसीपीबी में बीजों को जमा कराना चाहिए था. एनआरसीपीबी के निदेशक ने इस संबंध में डॉ. बंसल को कई रिमाइंडर भी भेजे, लेकिन उन्होंने वे बीज जमा नहीं कराए. ग़ौरतलब है कि उक्त सभी संस्थाएं आईसीएआर (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) के तहत आती हैं. इस मामले को आईसीएआर के उप महानिदेशक डॉ. एस के दत्ता के समक्ष भी रखा गया था, लेकिन डॉ. बंसल पर बीजों की वापसी के लिए कोई कार्रवाई नहीं हुई. यह स्थिति मई 2012 तक की है. अब सवाल उठता है कि नई प्रजाति के वे बीज कहां गए? क्या उन्हें किसी विदेशी कंपनी के हाथों बेच दिया गया या फिर ऐसी किसी प्रजाति का अस्तित्व ही नहीं है?
जब आईसीएआर ने विभिन्न जगहों पर विकसित किए जा रहे जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों के लिए फील्ड डे ऑर्गेनाइज किए थे, तब उस दौरान बीज एवं कृषि से जुड़ी प्राइवेट एंग्रीकल्चर कंपनियों को बुलाया गया था. वहां कोई सुरक्षा नहीं थी. इस दौरान कितना जेनेटिक मैटेरियल ले जाया गया या चोरी किया गया, इस बात की कोई गारंटी नहीं है. सवाल है कि इस देश के कृषि मंत्री कृषि मंत्री है या क्रिकेट मंत्री जो किसानों की खड़ी फसल में क्रिकेट खेलते हैं? आखिर इस संगीन मामले की जांच क्यों नहीं कराई जा रही है?
डॉ. हरपाल सांगवान, किसान एवं फार्मर्स राइट एक्टिविस्ट
बहरहाल, देशी बीजों के जीन बैंक पर खतरा मंडरा रहा है. उदाहरण के लिए 2011-12 के दौरान करनाल, हिसार, इसापुर और तमिलनाडु के वेलिंगट्‌न में गेहूं की हज़ारों क़िस्में रोपी गईं. गेहूं की उक्त क़िस्में वैज्ञानिकों द्वारा पचासों साल की मेहनत का नतीजा था. अब जिन जगहों पर देशी बीजों की उन्नत क़िस्में विकसित की जा रही हैं, वहां बाहरी व्यक्तियों के प्रवेश पर पाबंदी रहती है, क्योंकि ऐसी स्थिति में बीज चोरी होने की आशंका बनी रहती है, लेकिन फील्ड डे (खेत के निरीक्षण) के दौरान कई बाहरी व्यक्तियों और निजी बीज कंपनियों के जाने की भी शिकायतें आई हैं. ज़ाहिर है, इस दौरान अगर किसी ने बीज चुरा लिए और वह उनका व्यापारिक इस्तेमाल करने लगे, तो इससे भला कैसे इंकार किया जा सकता है. इसके अलावा आईसीएआर ने विदेशी बीज कंपनियों के हाथों देश का उन्नत देशी सीड जीन बैंक भी गिरवी रखने की तैयारी कर ली है. मई 2012 में वाल स्ट्रीट जर्नल में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, आईसीएआर ने बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों से हाथ मिलाने का फैसला कर लिया है. इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि इन कंपनियों की विशेषज्ञता का लाभ उठाकर भारत लंबे समय तक चलने और ज़्यादा उपज देने वाले बीजों का विकास कर सकता है. आईसीएआर के उप महानिदेशक डॉ. एस के दत्ता ने इन कंपनियों से एक्स्पर्टीज (विशेषज्ञता) के बदले अपने सीड जीन बैंक का दरवाज़ा खोलने की बात कही है.
आईसीएआर ने विदेशी बीज कंपनियों के हाथों देश का उन्नत देशी सीड जीन बैंक भी गिरवी रखने की तैयारी कर ली है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़, आईसीएआर ने बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों से हाथ मिलाने का फैसला कर लिया है. इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि इन कंपनियों की विशेषज्ञता का लाभ उठाकर भारत लंबे समय तक चलने और ज़्यादा उपज देने वाले बीजों का विकास कर सकता है. आईसीएआर के उप महानिदेशक डॉ. एस के दत्ता ने इन कंपनियों से एक्स्पर्टीज (विशेषज्ञता) के बदले अपने सीड जीन बैंक का दरवाज़ा खोलने की बात कही है. एक अनुमान के मुताबिक़, आईसीएआर क़रीब 4 लाख से भी ज़्यादा देशी बीजों के संवर्धित जीन (जर्म प्लाज्म) इन कंपनियों को दे सकती है.
एक अनुमान के मुताबिक़, आईसीएआर क़रीब 4 लाख से भी ज़्यादा देशी बीजों के संवर्धित जीन (जर्म प्लाज्म) इन कंपनियों को दे सकती है. ऐसा सब करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और देश के भीतर भी तर्क यह दिया जा रहा है कि इतनी विविधता के बाद भी भारत की ग्लोबल सीड मार्केट (विश्व बीज बाज़ार) में महज़ 2 फीसदी हिस्सेदारी है और ऐसा इसलिए, क्योंकि उसके पास इस क्षेत्र में न तो विशेषज्ञता है और न मज़बूत मार्केटिंग सिस्टम. यानी जिन देशी बीजों का विकास पिछले 50 सालों की मेहनत से हुआ है, उसका सीधा लाभ अब बहुराष्ट्रीय कंपनियां उठाएंगी. दत्ता के मुताबिक़, इससे देश के किसानों को फायदा होगा. सवाल यह उठता है कि पहले से ही जब बहुराष्ट्रीय कंपनियों से बीज खरीद-खरीद कर इस देश के किसानों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, तब ऐसी स्थिति में क्या आईसीएआर का यह निर्णय किसानों को मौत के कुएं में धकेलने जैसा नहीं है.
किसी प्रोजेक्ट के मुखिया के चुनाव के लिए क्या मापदंड होने चाहिए? अहम फसलों के बीजों के जीन संवर्धन के लिए केंद्र सरकार के करोड़ों के प्रोजेक्ट के मुखिया डॉ. के सी बंसल ने पहले तो उन बीजों को कहीं जमा ही नहीं कराया, जिनके विकास का वह दावा कर रहे थे. फिर उन्होंने एक प्रतिष्ठित अवॉर्ड (आईसीएआर की ओर से दिया जाने वाला ऱफी अहमद किदवई अवॉर्ड) पाने के लिए जिस प्रजाति के पेटेंट का दावा किया था, उस पर भी कई सवाल खड़े किए जा रहे हैं. 21 जुलाई, 2011 को राष्ट्रीय पादप जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान केंद्र (एनआरसीपीबी) के परियोजना निदेशक डॉ. पी आनंद कुमार ने आईसीएआर के उप महानिदेशक को लिखे अपने पत्र में बताया है कि डॉ. के सी बंसल के जिस प्रजाति के बैंगन के पेटेंट का ज़िक्र ऱफी अहमद किदवई अवॉर्ड के साइटेशन में किया गया है, असल में उसके पेटेंट के लिए बंसल ने आधिकरिक रूप से कोई अनुमति ही नहीं ली थी.
बहरहाल, इस पूरी कहानी से जुड़े कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके न स़िर्फ जवाब सामने आने चाहिए, बल्कि सरकार और खासकर कृषि मंत्रालय को इन सवालों पर जांच कराकर सच सामने लाना चाहिए. इस बात की जांच होनी चाहिए कि कृषि विकास एवं अहम फसलों के बीजों के जीन संवर्धन के नाम पर केंद्र सरकार हर साल जो करोड़ों रुपये खर्च करती है, वे कहां जाते हैं? भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिक आखिर कैसा और किसके लिए अनुसंधान करते हैं? आखिर क्यों देशी फसलों के देशी तरीके से जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों का लाभ आम किसानों को नहीं पहुंच रहा है? कहीं देशी बीजों (जेनेटिकली मॉडिफाइड) के जीन बैंक को विदेशी कंपनियों के हवाले तो नहीं कर दिया गया है?

डॉ. के सी बंसल सवालों के घेरे में

किसी प्रोजेक्ट के मुखिया के चुनाव के लिए क्या मापदंड होने चाहिए? अहम फसलों के बीजों के जीन संवर्धन के लिए केंद्र सरकार के करोड़ों के प्रोजेक्ट के मुखिया डॉ. के सी बंसल ने पहले तो उन बीजों को कहीं जमा ही नहीं कराया, जिनके विकास का वह दावा कर रहे थे. फिर उन्होंने एक प्रतिष्ठित अवॉर्ड (आईसीएआर की ओर से दिया जाने वाला ऱफी अहमद किदवई अवॉर्ड) पाने के लिए जिस प्रजाति के पेटेंट का दावा किया था, उस पर भी कई सवाल खड़े किए जा रहे हैं. 21 जुलाई, 2011 को राष्ट्रीय पादप जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान केंद्र (एनआरसीपीबी) के परियोजना निदेशक डॉ. पी आनंद कुमार ने आईसीएआर के उप महानिदेशक को लिखे अपने पत्र में बताया है कि डॉ. के सी बंसल के जिस प्रजाति के बैंगन के पेटेंट का ज़िक्र ऱफी अहमद किदवई अवॉर्ड के साइटेशन में किया गया है, असल में उसके पेटेंट के लिए डॉ. के सी बंसल ने आधिकरिक रूप से कोई अनुमति ही नहीं ली थी. इतना ही नहीं, 15 जनवरी, 2010 को इंस्टीट्यूट टेक्नोलॉजी मैनेजमेंट कमेटी की एक बैठक एनआरसीपीबी में हुई, जिसमें के सी बंसल के पेटेंट और रफी अहमद किदवई अवॉर्ड पर चर्चा हुई. इस बैठक की प्रोसिडिंग रिपोर्ट में इस बात का ज़िक्र है कि के सी बंसल ने 4 अगस्त, 2009 को प्लास्टिड ट्रांसफॉर्मेशन इन ब्रिंजल नाम से एक आवेदन (संख्या 1621/डीईएल/ 2009) (पेटेंट के लिए) जमा किया था. यह आवेदन परियोजना निदेशक द्वारा ऱफी अहमद किदवई अवॉर्ड के साइटेशन में ज़िक्र किए गए पेटेंट के मुद्दे पर स़फाई मांगे जाने के बाद जमा किया गया था. ग़ौरतलब है कि डॉ. के सी बंसल को यह अवॉर्ड 16 जुलाई, 2009 को मिला था. 21 जुलाई को परियोजना निदेशक ने पत्र लिखकर उनसे स़फाई मांगी थी और 4 अगस्त को डॉ. के सी बंसल प्लास्टिड ट्रांसफॉर्मेशन इन ब्रिंजल के पेटेंट के लिए आवेदन देते हैं. इसके साथ ही डॉ. हरपाल सांगवान के एक आरटीआई के जवाब में, जिसमें उन्होंने क्लोरोप्लास्ट ट्रांसफॉर्म्ड इन ब्रिंजल (डॉ. के सी बंसल) नाम से पेटेंट के बारे में जानकारी चाही थी, आईसीएआर एवं पेटेंट ऑफिस से संबंधित कई संस्थाओं ने बताया कि इस नाम से किसी भी पेटेंट का रिकॉर्ड उनके यहां नहीं है. इसके अलावा डॉ. के सी बंसल के निदेशक के तौर पर हुई चयन प्रक्रिया में भी आरोप लगे हैं. फार्मर्स राइट एक्टिविस्ट डॉ. हरपाल सांगवान आरोप लगाते हैं कि उनके चयन में डॉ. एस के दत्ता और डॉ. दीपक पेंटल (पूर्व कुलपति, दिल्ली विश्वविद्यालय) की भूमिका है, जबकि डॉ. बंसल प्लांट फिजियोलॉजी में पीएचडी हैं, जिसे उन्होंने दीपक पेंटल के स्वर्गीय ससुर एस के सिन्हा के मातहत किया था. इसके अलावा डॉ. बंसल के खिला़फ दो विजिलेंस इंक्वायरी भी चल रही थीं. बहरहाल, यह मुद्दा कि डॉ. के सी बंसल के नाम उक्त पेटेंट है या नहीं, उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितने कि आईसीएआर जैसी संस्था से जुड़े और इस देश में कृषि विकास के लिए अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिकों पर उठ रहे सवाल हैं? क्या इन सवालों के जवाब नहीं मिलने चाहिए?




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