27.8.12

असम : क्‍यों भड़की नफरत की आग



प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का संसदीय क्षेत्र असम एक के बाद एक, कई घटनाओं के चलते इन दिनों लगातार सुर्खियों में है. महिला विधायक की सरेआम पिटाई, एक लड़की के साथ छेड़खानी और अब दो समुदायों के बीच हिंसा. कई दिनों तक लोग मरते रहे, घर जलते रहे. राज्य के मुख्यमंत्री केंद्र सरकार का मुंह ताकते रहे और हिंसा की चपेट में आए लोग उनकी तऱफ, लेकिन सेना के हाथ बंधे थे. राहत के नाम पर कहीं भी कुछ नहीं था. असम के जनजातीय इलाक़ों में ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया कि ग़ैर जनजातीय समुदाय खुलेआम जनजातीय आबादी के विरुद्ध मुखर हो जाएं. दो समुदायों के आमने-सामने आ खड़े होने की यह पहली घटना थी. इसकी शुरुआत हुई एक अन्य इलाक़े में, जहां राभा जनजाति अपने लिए स्वायत्तता की मांग कर रही है. वहां रहने वाले विभिन्न ग़ैर राभा समुदायों ने उसकी उक्त मांग के विरोध में आंदोलन छेड़ दिया. इस वजह से वहां समय-समय पर हिंसा भी फैलती रही. इस हिंसा की आग से कोकराझाड़, चिरांग एवं धुबड़ी आदि इलाक़े सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं, जबकि बंगाईगांव एवं बाक्सा में भी हिंसा हुई. दरअसल, बीटीसी (बोडोलैंड टेरटोरिएल काउंसिल) इलाक़े में तनाव कोई एक दिन में नहीं फैला. बोडो और ग़ैर बोडो समुदायों के बीच तनाव पिछले कई महीनों से चल रहा था. इस तनाव का कारण है बीटीसी में रहने वाले ग़ैर बोडो समुदायों का बोडो समुदाय द्वारा की जाने वाली अलग बोडोलैंड राज्य की मांग के विरोध में खुलकर सामने आ जाना. ग़ैर बोडो समुदायों के दो संगठन मुख्य रूप से बोडोलैंड की मांग के विरुद्ध सक्रिय हैं. इनमें से एक है ग़ैर बोडो सुरक्षा मंच और दूसरा है अखिल बोडोलैंड मुस्लिम छात्रसंघ. ग़ैर बोडो सुरक्षा मंच में भी मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय के कार्यकर्ता सक्रिय हैं. इन दोनों संगठनों की सक्रियता उन स्थानों पर अधिक है, जहां बोडो आबादी अपेक्षाकृत कम है. लेकिन इससे एक तनाव तो बन ही रहा था, जिसकी प्रतिक्रिया कोकराझाड़ जैसे बोडो बहुल इलाक़ों में हो रही थी. इन दोनों संगठनों की जो बात बोडो संगठनों को नागवार ग़ुजर रही थी, वह यह थी कि बीटीसी इलाक़े के जिन गांवों में बोडो समुदाय की आबादी आधी से कम है, उन्हें बीटीसी से बाहर करने की मांग उठाना.
जब बीटीसी (बोडोलैंड टेरटोरिएल काउंसिल) बनी थी तो सरकार को यह सोचना चाहिए था कि बीटीसी के इलाक़े में अल्पसंख्यक भी हैं, लेकिन सरकार ने दूरदर्शिता का परिचय नहीं दिया. ग़ैर बोडो को भी उनके अधिकार मिलने चाहिए. बोडोलैंड बनने से वहां के अल्पसंख्यकों को उनका हक़ नहीं मिलेगा. दूसरी बात यह है कि माइग्रेशन को पूरी तरह रोकना होगा, इसके लिए सरकार को कठोर क़दम उठाने होंगे.
- दिनकर कुमार, संपादक, द सेंटिनल, असम.

बोडोलैंड की मांग

बोडोलैंड की मांग का समर्थन करने वाले दोनों संगठन समय-समय पर प्रदर्शन और बंद का आह्वान करते रहे हैं. बीते 16 जुलाई को भी ग़ैर बोडो समुदायों ने गुवाहाटी में राजभवन के सामने प्रदर्शन करके शासन का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया था. उन्होंने रेलगाड़ियां रोक कर यह बताने की कोशिश की कि बोडोलैंड राज्य की मांग हमने अभी तक नहीं छोड़ी है. बोडो समुदाय के दो चरमपंथी गुट, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) और वार्तापंथी पृथक बोडोलैंड राज्य की मांग कर रहे हैं. जबकि केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रवक्ता अब तक यही कहते आए हैं कि अलग राज्य बनाने का सवाल ही नहीं पैदा होता. बीटीसी इलाक़े में ग़ैर बोडो समुदायों की नाराज़गी का एक प्रमुख कारण शायद यह भी है कि वहां स्वायत्त शासन लागू होने के बाद से क़ानून-व्यवस्था की स्थिति पहले से बदतर हो गई है. ग़ैर बोडो समुदाय अक्सर अपने साथ भेदभाव होने और शिकायत करने पर पुलिस द्वारा उचित कार्रवाई न किए जाने का आरोप लगाते रहे हैं.

स्थानीय बनाम बाहरी

असम में फैली इस हिंसा की जड़ में बाहरी घुसपैठ भी है. इसी के चलते यहां के मूल निवासियों और बांग्लादेश से आए लोगों के बीच हिंसा भड़की. राज्य में जनसंख्या का स्वरूप बदल रहा है. बांग्लादेश की सीमा से सटे धुबड़ी ज़िले में यह एक बड़ी समस्या बन चुका है. 2011 की जनगणना में यह ज़िला मुस्लिम बहुल हो चुका है. 1991-2001 के बीच असम में मुसलमानों की आबादी 15.03 प्रतिशत से बढ़कर 30.92 प्रतिशत हो गई है. राज्य में 42 से अधिक विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए निर्णायक बहुमत में हैं. हाल में राज्य में विधानसभा चुनावों का यह कहकर बहिष्कार किया गया कि उसमें ज़्यादातर प्रवासियों की भागीदारी है. 1966 के बाद राज्य में आए प्रवासियों के चुनाव में हिस्सा लेने पर रोक लगा दी गई थी.

रोज़ी-रोटी के सवाल

पिछले कुछ समय में असम में बोंगाइगांव, कोकराझाड़, बरपेटा और कछार के करीमगंज एवं हाईलाकड़ी में मुस्लिमों की आबादी बढ़ी है. ज़मीन और रोज़गार में लगातार कमी आ रही है. बोडो जनजातियों की ज़मीन पर अतिक्रमण आम बात है. मैदानी ज़मीन पर खेती, पशुपालन और हैंडलूम एवं हस्तशिल्प का काम मुख्य रूप से बोडो जनजातियों की आजीविका का साधन है. बोडो को राज्य के कारबीआंगलोंग और नॉर्थ कछार हिल इलाक़े में जनजातीय नहीं माना जाता और न मैदानी क्षेत्रों में, जबकि बोडो जनजातियों के लिए राज्य में स्वायत्त परिषद बनी और शेष पूरे देश में वे अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल हैं.

हिंसा की पुरानी आग

कोकराझाड़ में दंगा और हिंसा कोई नई बात नहीं है. इसका एक इतिहास रहा है. 1993 में बोडोलैंड में एक बड़े नरसंहार को अंजाम दिया गया, जिसमें 50 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. मारे गए लोग कोकराझाड़ एवं बोंगाई गांव निवासी बांग्लादेशी मुसलमान थे. इसके बाद मई 1994 में हिंसा ने फिर अप्रवासी मुसलमानों को शिकार बनाया, जिसमें एक सौ से अधिक लोगों की मौत हुई. हिंसा का यह दौर यही नहीं थमा. 1996 में बोडो एवं आदिवासी शरणार्थियों के बीच हुई हिंसा और आगज़नी की घटनाओं में क़रीब 200 लोगों की मौत हुई और 2.2 लाख से भी अधिक लोगों को बेघर होना पड़ा. फिर 2008 में उदलगुड़ी ज़िले में अप्रवासी मुसलमानों एवं बोडो आदिवासियों के बीच हुए संघर्ष में एक सौ से अधिक लोगों की मौत हुई.




 

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