27.8.12

संशोधित भूमि अधिग्रहण बिलः ग्रामीण विकास या ग्रामीण विनाश



ओडिसा के जगतसिंहपुर से लेकर हरियाणा के फतेहाबाद में ग्रामीण भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं. दूसरी ओर झारखंड के कांके-नग़डी में आईआईएम के निर्माण के लिए हो रहे भूमि अधिग्रहण का लोग विरोध कर रहे हैं. इस पर सरकार का कहना है कि देश को विकास पथ पर बनाए रखने के लिए भूमि अधिग्रहण आवश्यक है. एक तऱफ सरकार है जो किसी भी तरह से निजी कंपनियों को विकास के नाम पर ज़मीन देना चाहती है, दूसरी तऱफ वे किसान हैं जो अपनी पारंपरिक आजीविका के साधन को नहीं छोड़ना चाहते हैं. ऐसी स्थिति में भूमि अधिग्रहण क़ानून में किए जा रहे संशोधन भी किसानों, मज़दूरों और आम आदमी के हितों की रक्षा नहीं कर पाएंगे. इस संबंध में प्रस्तुत है चौथी दुनिया की खास रिपोर्ट:
केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण के संबंध में एक बिल लेकर आ रही है जिस भू अधिग्रहण पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना बिल का लोग लंबे समय से इंतज़ार कर रहे थे, उसे सरकार ने भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवज़े का अधिकार, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना एवं पारदर्शिता बिल-2012 नाम दिया है. सरकार का दावा है कि यह बिल सरकार की भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में किसी परियोजना में प्रभावितों के लिए विधायी अधिकार और ज़्यादा पारदर्शिता सुनिश्चित करता है. यह भी दावा किया जा रहा है कि यह बिल स्थानीय निकायों ग्राम सभा की सहमति से मानवीय, मंत्रणात्मक, सहयोगपूर्ण और पारदर्शी प्रक्रिया से भूमि अधिग्रहण को सुनिश्चित कर सकेगा. लोगों के सुझाव के लिए बिल को ग्रामीण विकास मंत्रालय की वेबसाइट के ज़रिए 30 दिन तक लोगों के बीच रखा गया था, जबकि इस क़ानून से प्रभावित होने वाले ग्रामीण तकनीकी सीमाओं के कारण अपनी आपत्तियां दर्ज नहीं करा सके. ग्रामीण विकास मंत्रालय ने क्षेत्रीय संस्थाओं और प्रदेश सरकारों से इस विषय पर किसी भी तरह का विचार-विमर्श नहीं किया, जैसा कि विभिन्न संस्थाओं ने मंत्रालय को सुझाव दिया था. लेकिन स्टैंडिंग कमेटी ने बिल पर अपनी रिपोर्ट दे दी है, जिस पर ग्रामीण विकास मंत्रालय ने अपनी प्रतिक्रिया और विचार खुले तौर पर सबके सामने रख दिए हैं. लेकिन सामाजिक संस्थानों ने इस विषय पर संज्ञान लेते हुए स्टैंडिंग कमेटी के कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर दिए गए अच्छे सुझावों का समर्थन करते हुए ग्रामीण विकास मंत्रालय के उन सुझावों का विरोध किया, जिन्हें या तो ग्रामीण विकास मंत्रालय ने कमज़ोर कर दिया है या उन सुझावों को अस्वीकार कर दिया है. ग्रामीण विकास मंत्रालय का यह रवैया चौंकाने वाला है.
जिस मुद्दे पर ग्रामीण विकास मंत्रालय ने स्टैंडिंग कमेटी के सुझावों को दरकिनार किया है, उसमें खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण है. इस विषय पर स्टैंडिंग कमेटी का कहना है कि ज़बरदस्ती कृषि भूमि का अधिग्रहण न किया जाए, जिसमें एक फसली और बहु फसली दोनों तरह की ज़मीन शामिल है. इस विषय पर ग्राणीण विकास मंत्रालय का कहना है कि केवल बहु फसली ज़मीन को ही अधिग्रहण के दायरे बाहर रखा जाए. मंत्रालय का ऐसा कहना बिल्कुल भी ठीक नहीं है. इस तरह तो देश के 75 प्रतिशत किसान अधिग्रहण के दायरे में आ जाएंगे, क्योंकि देश में अधिकांश जगहों पर खेती वर्षा पर निर्भर है.
पहला विषय, जिस मुद्दे पर ग्रामीण विकास मंत्रालय ने स्टैंडिंग कमेटी के सुझावों को दरकिनार किया है, उसमें खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण है. इस विषय पर स्टैंडिंग कमेटी का कहना है कि ज़बरदस्ती कृषि भूमि का अधिग्रहण न किया जाए, जिसमें एक फसली और बहु फसली दोनों तरह की ज़मीन शामिल है. इस विषय पर ग्राणीण विकास मंत्रालय का कहना है कि केवल बहु फसली ज़मीन को ही अधिग्रहण के दायरे बाहर रखा जाए. मंत्रालय का ऐसा कहना बिल्कुल भी ठीक नहीं है. इस तरह तो देश के 75 प्रतिशत किसान अधिग्रहण के दायरे में आ जाएंगे, क्योंकि देश में अधिकांश जगहों पर खेती वर्षा पर निर्भर है. इन खेतों में वर्ष में केवल एक फसल ही सिंचाई के साधनों की अनुपलब्धता के कारण पैदा की जा सकती है. ऐसी ज़मीनें भी अधिकांशतः दलित आदिवासी और छोटे किसानों के अधीन हैं. इन लोगों और खाद्य सुरक्षा के लिए कृषि भूमि को अधिग्रहण के चक्रव्यूह से बचाना ज़रूरी है, क्योंकि खाद्य सुरक्षा खेत में फसल पैदा करने से मिलती है न कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली से.
दूसरा विषय निजी और पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के उद्यमों के लिए भूमि का अधिग्रहण है. इस विषय पर स्टैंडिंग कमेटी ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि किसी भी निजी अथवा पीपीपी प्रोजेक्ट जिसे सार्वजनिक उद्देश्य के प्रोजेक्ट के रूप में चिन्हित न किया गया हो, उसके लिए ज़बरदस्ती ज़मीन का अधिग्रहण न किया जाए. ग्रामीण विकास मंत्रालय ने स्टैंडिंग कमेटी के इस सुझाव को सिरे से नकार दिया. स्वयं को सही बताते हुए कहा कि किसी भी निजी प्रोजेक्ट से प्रभावित होने वाले 80 प्रतिशत लोगों की सहमति मिलने पर ज़मीन अधिग्रहित कर ली जाएगी, जबकि इस बिल का विरोध करने वाली संस्थाओं का कहना है कि नव उदारवाद के दौर में व्यवसायिक घरानों के निवेश और फायदों को लेकर स्थापित किए जाने वाले उद्योग बहुमूल्य ज़मीन और खनिज संपदा पर क़ब्ज़ा करके अपनी जड़ें मज़बूत करते जा रहे हैं और पीढ़ियों से इन जगहों पर रह रहे लोगों को मारते जा रहे हैं. इसे बंद करना होगा और यह तभी संभव है, जब सरकारें व्यवयायिक घरानों के लिए ग़रीब किसानों की ज़मीन की दलाली करना बंद कर दें.
तीसरा विषय 16 अन्य क़ानूनों को बिल के दायरे में लाना है. इस विषय पर स्टैंडिंग कमेटी का सुझाव है कि 16 अन्य क़ानून जिनके अंतर्गत भूमि अधिग्रहित की जाती है, सभी को इस नए क़ानून के दायरे में लाया जाना चाहिए, क्योंकि संविधान की धारा-14 में क़ानून की समानता की बात की गई है. इसलिए किसी को भी इस क़ानून के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता है, जबकि ग्रामीण विकास मंत्रालय इस इन 16 क़ानूनों में से 13 को नए क़ानून के दायरे से बाहर रखना चाहता है. इनमें औद्योगिक विकास क़ानून, भू-अधिग्रहण (खदान) क़ानून और राष्ट्रीय राजमार्ग क़ानून इत्यादि शामिल हैं. इसका मतलब यह है कि देश में चल रहा 90 प्रतिशत भूमि अधिग्रहण नए क़ानून की आड़ में इसी तरह बेलगाम ताक़त और अन्याय के साथ होता रहेगा. 16 में से 13 क़ानूनों को नए क़ानून के दायरे से बाहर रखकर सरकार लोगों को स़िर्फ यह दिखाना चाहती है, उसने नया क़ानून बना दिया है भले ही वह निष्क्रिय ही क्यों न हो. अगर सरकार वाक़ई अच्छा क़ानून बनाना चाहती है तो उसे स्टैंडिंग कमेटी के सुझावों को मानना होगा.
मिनिस्ट्री ऑफ रूरल डेवलपमेंट (ग्रामीण विकास मंत्रालय) अब मिनिस्ट्री ऑफ रूरल डिसप्लेसमेंट (ग्रामीण विस्थापन) या कहें मिनिस्ट्री ऑफ रूरल डिस्ट्रक्शन (ग्रामीण विनाश मंत्रालय) में बदल गया है. इसलिए सरकार ऐसा बिल लेकर आई है, जो किसानों, मज़दूरों और आम आदमी के हित में नहीं है.
मेधा पाटकर, सामाजिक कार्यकर्ता
चौथा विषय है भूमि अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा और बस्ती सभा की सहमति. इस विषय पर स्टैंडिंग कमेटी का कहना है कि सामाजिक प्रभाव और पारिस्थितिक प्रभाव का आकलन, एक्सपटर्र् कमेटी द्वारा समीक्षा ग्राम सभा के सहयोग से बनाई जानी चाहिए और संबंधित रिपोर्ट ग्राम सभा को भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए. लीनियर प्रोजेक्ट्‌स के मुद्दे पर ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 80 प्रतिशत प्रभावित होने वाले परिवारों की सहमति पर ही ज़ोर दिया है. इस क़ानून में सरकारी और निजी हर तरह के प्रोजेक्ट के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा की सीधी भागीदारी और सहमति आवश्यक होनी चाहिए. निजी योजनाओं के लिए केवल 80 प्रतिशत प्रभावित लोगों की सहमति पर्याप्त नहीं है, लेकिन लीनियर प्रोजेक्ट्‌स को इससे बाहर क्यों रखा गया है? अगर केवल प्रभावित होने वाले परिवारों की सहमति की बात होगी तो इसमें बहुत तरह के हेरफेर हो सकते हैं. इस तरह की अनियमितताएं मुंबई झुग्गी पुनर्वास योजना में देखी जा जा चुकी हैं.
पांचवां विषय है उद्योगों द्वारा उपयोग में नहीं लाई गई ज़मीन और भूमि बैंक. इस विषय में स्टैंडिग कमेटी ने कहा कि यदि अधिग्रहित की गई ज़मीन का पांच साल तक उपयोग नहीं होता है, तो ज़मीन को अधिग्रहण की तिथि के पांच साल बाद भूमि मालिक को वापस कर देनी चाहिए. लेकिन ग्रामीण विकास मंत्रालय ने पांच साल की बात तो स्वीकार कर ली, लेकिन सवाल है कि वर्तमान में ऐसी बहुत सी अधिग्रहित ज़मीनें हैं, जिनका इस्तेमाल 25 सालों तक नहीं हुआ. फिर भी ये ज़मीनें उनके पुराने मालिकों को नहीं लौटाई गईं. फिर इस बात की क्या गारंटी है कि 5 साल बाद ज़मीन वापस कर दी जाएगी.
छठा विषय, पूर्वव्यापी पुनर्वास और पुनर्स्थापना क़ानून के अनुप्रयोग के विषय पर स्टैंडिंग कमेटी ने सुझाव दिया कि मंत्रालय को इस पर पुनर्विचार करना चाहिए और आवश्यक प्रावधानों को नए बिल में शामिल किया जाना चाहिए, लेकिन मंत्रालय ने इस सुझाव को सिरे से नकार दिया. बहरहाल, आज़ादी के बाद देश में लगभग 10 करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं, जिनमें से केवल 17 से 20 प्रतिशत लोगों को पुनर्स्थापित किया जा सका. अंग्रेजी शासन के दौरान 1894 में आए क़ानून में भी केवल सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना के लिए ही भूमि अधिग्रहण की बात की गई थी. उस दौरान वही निजी संस्था थी और वही सरकारी संस्था, वह अपने निजी उपयोग को सार्वजनिक बताकर अधिग्रहण कर लेती थी. मगर आज सरकार अपने को सार्वजनिक बताकर निजी कंपनियों के हित के लिए काम कर रही है. आज़ादी के 66 साल बाद भी सरकार लोकहित को नज़र अंदाज़ करती जा रही है. सरकार को अधिग्रहण के दौरान इस बात का आवश्यक रूप से ध्यान रखना चाहिए कि अनाज खेतों में ही पैदा होता है, उसका उत्पादन किसी फैक्ट्री में नहीं हो सकता. सरकार ने नए बिल में परिभाषा में कहा है कि वह देश में भूमि का बाज़ार विकसित करना चाहती है. सरकार कॉर्पोरेट घरानों से मिलकर प्राकृतिक संसाधनों की लूट को क़ानूनी अमलीजामा पहनाना चाहती है.
विकास परियोजनाओं की आवश्यकता, इंफ्रास्ट्रक्चर और शहरीकरण लाखों लोगों की क़ब्र के ऊपर नहीं किया जा सकता है. अधिग्रहण के विषय पर किसानों की बात आवश्यक रूप से सुनी जानी चाहिए. शहरी क्षेत्रों में 20 प्रतिशत विकसित भूमि भू मालिकों को वापस करने का प्रावधान है. लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इसे नज़र अंदाज़ कर दिया गया है. नए बिल के तहत ग्रामीणों की आजीविका छीनकर उन्हें नग़द मुआवज़ा देना ठीक नहीं है. सरकार को लोगों की आजीविका आधारित पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना का प्रावधान करना चाहिए.

काले क़ानून

ग़ुलामी के प्रतीक इन क़ानूनों को हम आज भी ढो रहे हैं, आखिर क्यों?
1.         भूमि अधिग्रहण क़ानून-1894
2.        ऑफिशियल सीक्रेट्‌स एक्ट
3.         राजद्रोह क़ानून
4.         भारतीय पुलिस एक्ट
5.         भारतीय दंड संहिता-1860
6.         इंडियन एविडेंस एक्ट-1872
7.         इंडियन टेलीग्राफ एक्ट-1885
8.         बाल विवाह क़ानून-1929


 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.