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मॉनसून पर निर्भरता, आफत ही आफत

Tuesday, July 31, 2012, 17:39

मॉनसून पर निर्भरता, आफत ही आफतबिमल कुमार

तुलसीदास ने रामायण में लिखा है “का बरखा, जब कृषि सुखाने। समय चुके फिर का पछताने”। कमजोर पड़े मॉनसून और बारिश की कमी से देश भर में इस समय हाहाकार की नौबत उत्‍पन्‍न हो गई है। मॉनसून में कमी के चलते सिर्फ देश भर के किसान ही नहीं बल्कि पूरा तंत्र परेशान हैं। अगर ‘इंद्रदेव’ इसी तरह रूठे रहे तो पहले से खराब अर्थव्यवस्था का हाल और बुरा हो सकता है। उत्तर, मध्य और दक्षिण भारत में मॉनसून की अब तक की चाल से किसानों के माथे पर चिंता की गहरी रेखाएं खिंच गई हैं। हालांकि, किसान अब भी आसमां की ओर टकटकी लगाए है, लेकिन जो नुकसान अब तक हो चुका है, उसकी भरपाई अब शायद ही संभव है।

यह विदित है कि देश की खुशहाली अब भी मॉनसून पर ही पूरी तरह निर्भर है। इसकी कमी से न सिर्फ अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है, बल्कि यह देश और देशवासियों के लिए भी खतरा साबित हो सकती है। मॉनसून इतना महत्वपूर्ण है कि बीते माह तत्कालीन वित्त मंत्री और अब देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखजी ने भी मॉनसून को देश का `वास्तविक वित्त मंत्री` कह डाला था। कृषि के लिहाज से मॉनसून की खासी अहमियत है क्योंकि देश में अभी भी 40 प्रतिशत कृषि योग्य क्षेत्र सिंचाई के अंतर्गत है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान करीब 15 प्रतिशत है। दरअसल भारत की 60 फीसदी खेती मॉनसून पर निर्भर करती है और जीडीपी में खेती के अहम योगदान के चलते बारिश, अर्थव्यवस्था और रोजगार का आपस में परस्पर संबंध होता है।

सवाल उठना लाजिमी है कि आजादी के 65 साल में भी आखिर देश क्यों मॉनसून और खासकर दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून पर इतना निर्भर है। देश में कुल बारिश में जहां मॉनसून का 75 फीसदी योगदान है, वहीं सिंचाई के लिए कुल पानी की जरूरत का आधा इसी से हासिल होता है। हम सब मानसून का पीछा करते हैं, लेकिन इससे निकलने कोई कारगर उपाय नहीं है। यदि बारिश होती है, तो धरती पर सब कुछ सुहाना होता है। लेकिन यदि यह नहीं होता है, तो आप सिवाय सूखा राहत बांटने के कुछ और नहीं करते। मॉनसून पर ही टिके रहने से आखिर कब तक निजात मिल पाएगी।

अर्थव्यऔवस्थाॉ के लिहाज से देखें तो बारिश होने की स्थिति में मौद्रिक नीति काम करती है। सब कुछ अच्छा रहता है। यदि बारिश नहीं होती है, तो चिंता की बात है। गौर हो कि देश में सलाना लगभग 4000 अरब घन मीटर बारिश होती है। इसका तीन चौथाई हिस्सा दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून से मिलता है। लेकिन दुखद यह है कि इसमें से भी सिर्फ 1,100 अरब घन मीटर का ही उपयोग हो पाता है। शेष पानी बह जाता है।

किसी तरह यदि इस जल को रोक कर इसका उपयोग कर लिया जाए, तो मॉनसून पर देश की निर्भरता कुछ कम हो सकती है। मॉनसून में देरी होने से बैंकिंग उद्योग प्रभावित होता है, क्योंकि किसान अपेक्षा से कम ऋण लेते हैं। अब जबकि मॉनसून में देरी हो चुकी है और सिंचाई का कोई और बेहतर विकल्प समग्र रूप में मौजूद नहीं है, इसलिए लोगों के कर्ज कम लेने का क्रम जारी है।

हाल में रिपोर्ट आई थी कि इस साल अब तक मॉनसून की बारिश जुलाई के अंतिम सप्ताकह तक सामान्य से 21 प्रतिशत कम रही है। जिसके चलते मोटे अनाज की धीमी बुवाई को लेकर खासा चिंता है। आज हालात यह हो गए हैं कि देश के कई राज्यक सूखे जैसी स्थिति का सामना कर रहे हैं। एक आंकड़े के अनुसार कर्नाटक में सबसे प्रतिकूल असर मोटे अनाज पर पड़ा है। देश भर में मोटे अनाज का बुवाई क्षेत्र 23 प्रतिशत घटकर 1.17 करोड़ हेक्टेयर रह गया है, जोकि खासा चिंतनीय है। इसका सीधा असर फसल उत्पादन और खाद्यान्न संकट पर पड़ेगा।

ख्‍राब मॉनसून ने धान की खेती की तस्वीतर बिगाड़ दी है। कुल बुवाई रकबे में लगभग 20 लाख हेक्टेीयर की कमी दर्ज की गई है। इससे धान की पैदावार में भारी गिरावट के आसार हैं। हालांकि कुछ राज्यों मसलन पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सिंचाई साधनों के सहारे रोपाई का काम तो किसी तरह पूरा हो गया, मगर बरसात न होने से इन इलाकों में खेती की लागत बहुत बढ़ जाएगी। जिन राज्यों में सूखे का सूखे का असर ज्यादा पड़ा है,वहां खरीफ की खेती भी उतनी ही पिछड़ी है। हालांकि जून के शुरुआती सप्ताह में मॉनसून केरल तट से देश में प्रवेश कर गया था, लेकिन बाद के दिनों में इसकी प्रगति धीमी रही। जिसका खामियाजा यह हुआ कि धान, दलहन तथा मोटे अनाज की बुआई में देरी हुई।

मॉनसूनी बारिश की आस में धान, सोयाबीन तथा मूंगफली की खेती करने वाले कृषक अब भी आस लगाए बैठे हैं, लेकिन अब इसका ज्यादा कुछ फायदा नहीं होगा। कारण यह कि यदि फसल की बुवाई में दो हफ्ते से अधिक की देरी होती है तो फसल का उत्पा दन काफी घट जाएगा और किसानों को पूरी लागत भी नहीं मिल पाएगी। दूसरा नुकसान, इस प्रभाव फसल चक्र पर भी पड़ेगा।

मॉनसून पर निर्भरता, आफत ही आफत
अब तक कम बारिश होने से कर्नाटक तथा महाराष्ट्र में मोटे अनाज की खेती प्रभावित हुई है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक के कुछ भागों तथा मध्य प्रदेश के मध्य भागों में हल्की बारिश ही हुई है, जिससे सभी फसलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इन राज्यों में अधिकांश खरीफ फसलों के रकबे में कमी आई है। गौर हो कि पिछले साल मॉनसून बेहतर रहने से 2011-12 के फसल वर्ष (जुलाई-जून) में खाद्यान उत्पादन 25.26 कराड़ टन रहा था।
देश के ज्यादातर हिस्से में कमजोर मॉनसून के कारण धान, मोटे अनाज, दलहनों, तिलहनों और कपास की बुवाई काफ पीछे हो गई है। एक रिपोर्ट के अनुसार धान की बुवाई का रकबा 8.71 प्रतिशत घटकर 1.91 करोड़ हेक्टेयर रह गया है जो रकबा पिछले सत्र की समान अवधि में दो करोड़ 9.3 लाख हेक्टेयर था। अन्य फसलों बाजरा, रागी और ज्वार जैसे मोटे अनाज का रकबा भी 23 प्रतिशत घटकर एक करोड़ 17.4 लाख हेक्टेयर रह गया है। आशंका यह है कि इस साल बारिश की कमी से चावल का उत्पादन 100 मिलियन टन को नहीं छू सकेगा। अगर बारिश ठीक नहीं हुई तो दाल, सोयाबीन, कपास, मूंगफली और बाजरा जैसी फसलों पर भी असर पड़ेगा। फसल खराब होगी, जिससे महंगाई बढ़ेगी।बारिश एक हद तक महंगाई दर भी लगाम लगाती है। खेती बिगड़ी तो अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ना लाजिमी है।

इस बार मॉनसून के के कमजोर होने के कई कारण है। कई चरणों में बारिश हुई, यह गति नहीं पकड़ सकी। वैसे भी मॉनसून में देरी तथा कम बरसात के कारण सब्जियों के दाम काफी बढ़ गए हैं, जिससे आम आदमी का घरेलू बजट भी बिगड़ गया है। इस वर्ष 25 करोड़ 74.4 लाख टन खाद्यान्न उत्पादन के स्तर को पाना निश्चित तौर पर संभव नहीं लगता, पर अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि उत्पादन में वास्तव में कितनी गिरावट आएगी। लेकिन फसलों की उत्पादकता और उत्पादन प्रभावित होना तय है।

आज भी देश की खेतीबारी कुदरत के भरोसे चल रही है और किसानों के लिए खेती करना किसी जुए से कम नहीं है। इस बार भी सूखे की स्थिति बलवती हो रही है। अक्सकर लोगों को यह कहते सुना जाता है कि भारत की कृषि मॉनसून पर निर्भर है, लेकिन न तो कभी सरकार ने और न हमने इस दिशा में कोई ठोस और सार्थक पहल किए। न ही इससे उबरने की कभी जहमत उठाई। आज मॉनसून के अनुमान से कम रहने से सिर्फ किसान ही नहीं, वरन पूरे देश का गला सूख रहा है। अब यह बेहद जरूरी है कि मॉनसून के फेल होने की दशा में सिंचाई व्यीवस्था को सुधारा जाए, जिससे कृषि क्षेत्र को टिकाऊ एवं सुरक्षित बनाया जा सके।

इसमें कोई शक नहीं है कि नई लघु-सिंचाई प्रणालियों को अपनाकर कमजोर मॉनसून से उत्पन्न हुई समस्या से निपटकर कृषि क्षेत्र को बचाया जा सकता है। सरकार को इस दिशा में गंभीरता से सोंचने होंगे। ताकि मॉनसून की कमी के चलते सूखे का हौव्वा न बन पाए। हालांकि, अभी हालात साल 2009 के जितनी बुरी नहीं है। उस साल भयंकर सूखा पड़ा था, जिससे खाद्यान्न उत्पादन में 1.6 करोड़ टन की गिरावट आई थी। इन हालातों में अब जरूरत आन पड़ी है कि सरकार मॉनसून की स्थिति की निगरानी करते हुए राज्यों के साथ तालमेल कायम कर किसी भी प्रतिकूल स्थिति का सामना करे और सूखाग्रस्त इलाकों में कृषकों को तत्काल राहत पहुंचाई जाए।

आज जरूरत यह है कि किसानों को मॉनसून पर कम से कम निर्भरता के लिए प्रोत्साहित करना होगा, ताकि वे अधिक से अधिक ऋण ले सकें। मॉनसून पर निर्भरता धीरे-धीरे कम करनी होगी, ताकि जल संग्रहण का कार्य उचित तरीके से शुरू किया जा सके। एक बार जब किसान और अन्ये लोग ऐसा करने लगेंगे, तो मॉनसून पर उनकी निर्भरता कम होने लगेगी। हालांकि मॉनसून की भूमिका को कभी भी खारिज नहीं किया जा सकता है। इस समय देश पहले की तुलना में सूखे का सामना करने में अधिक सक्षम है। यदि हम अपनी जल नीति को सही दिशा में रख सकें तो कृषि और अर्थव्यवस्था को मौसमी सूखे की मार से बचाया जा सकेगा।

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