27.8.12

कर्ज का कुचक्र और किसान



बीते 22 जुलाई को उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद जनपद की तहसील रुदौली के सिठौली गांव में ज़मीन नीलाम होने के डर के चलते किसान ठाकुर प्रसाद की मौत हो गई. ठाकुर प्रसाद का बेटा अशोक गांव के एक स्वयं सहायता समूह का सदस्य था. उसने समूह से कोई क़र्ज़ नहीं लिया था. समूह के जिन अन्य सदस्यों ने क़र्ज़ लिया था, उन्होंने अदायगी के बाद नो ड्यूज प्रमाणपत्र प्राप्त कर लिया था. बावजूद इसके उपजिलाधिकारी के आदेश पर सभी सदस्यों के खेतों में लाल झंडी लगा दी गई, जो नीलामी के लिए चिन्हित की गई ज़मीनों पर लगाई जाती है. ज़मीन नीलाम होने की खबर सुनकर ठाकुर प्रसाद की मौत हो गई. इस घटना ने सरकारी लापरवाही और संवेदनहीनता को एक बार फिर उजागर कर दिया है. किसानों के मरने का सिलसिला बदस्तूर जारी है. कहीं वे आत्महत्या कर रहे हैं तो कहीं ज़मीन नीलाम हो जाने के डर से जान गंवा रहे हैं. सरकार इस समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं निकाल रही है. सरकारी योजना का फायदा किसानों को नहीं मिल रहा है. 1991 से अब तक जितने किसान आत्महत्या कर चुके हैं, आतंकवादी घटनाओं में मारे गए लोगों की संख्या उस संख्या की मात्र दस प्रतिशत है. सरकार हर साल रक्षा बजट में इज़ा़फा करती रही है, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने के बावजूद केंद्र सरकार नई कृषि नीति नहीं ला रही है. कुछ साल पहले तक आत्महत्या करने वाला किसान या तो विदर्भ का होता था या आंध्र प्रदेश का, मगर अब यह सिलसिला उत्तर भारत में भी शुरू हो गया है. राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2011 में 14,027 किसानों ने आत्महत्या की. 2010 में उत्तर प्रदेश में लगभग 550 किसानों ने आत्महत्या की. 1995 से लेकर आज तक 2,70,940 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. उत्तर प्रदेश में हर साल औसतन 500 किसान आत्महत्या करते हैं. किसान आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र पहले नंबर पर है. सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ हैं. इस साल मानसून कमज़ोर रहने के कारण स्थिति और बिगड़ने की आशंका है. सरकारी आंकड़े ऐसी घटनाओं में गिरावट की बात कह रहे हैं, मगर कहीं भी ऐसा होता नहीं दिख रहा है. छत्तीसगढ़ सरकार ने दावा किया कि राज्य में एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की, जबकि हक़ीक़त यह है कि वहां 1026 किसानों ने आत्महत्या की. केंद्र सरकार के पास किसानों को लेकर न कोई रोडमैप है और न कोई नीति. सरकार न तो अनाज का उचित मूल्य किसानों को दे पाती है और न उसकी उपज को सुरक्षित रखने की व्यवस्था कर पा रही है. हर साल लाखों क्विंटल अनाज सड़ जाता है.
केंद्र सरकार ने 2008-09 के बजट में किसानों के ऋण मा़फ करने के लिए 66,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था. इसके तहत सभी व्यवसायिक बैंकों, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों एवं सहकारी बैंकों द्वारा किसानों को दिए गए ऋण सरकार द्वारा अदा कर दिए गए थे. इसका लाभ किसानों के बदले बैंकों को मिला, क्योंकि अधिकतर किसान ऋण साहूकारों से लेते हैं, जो उनकी तुरंत मदद करते हैं. उस ऋण की भरपार्ई सरकार नहीं कर पाई. सरकार ने उन्हीं किसानों के ऋण मा़फ किए, जो थोड़े-बहुत जानकार हैं और बैंक से सीधे लेन-देन कर सकते हैं. अनपढ़ और ग़रीब किसान इसका फायदा नहीं ले पाए. कुल आवंटित राशि का चालीस प्रतिशत केवल आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र एवं उत्तर प्रदेश के किसानों को मिला. किसानों को ऋण उपलब्ध कराने के लिए सरकार ने किसान क्रेडिट कार्ड योजना शुरू की, लेकिन इसमें भी ऋण लेने की प्रक्रिया इतनी जटिल बना दी गई कि किसानों के लिए इस कार्ड का होना-न होना एक बराबर हो गया. बैंक भी अपने एनपीए (नॉन परफार्मिंग एसेट्‌स) को लेकर बहुत ज़्यादा सतर्क हो गए और कुछ चुनिंदा किसानों को ही ऋण उपलब्ध कराने लगे, जो ऋण वापस कर सकें. दूसरी तऱफ कृषि बीमा योजना का प्रचार-प्रसार भी गांवों में नहीं किया गया है. किसान अब भी इस योजना से अवगत नहीं हैं. कम से कम फसल बीमा कराकर वे किसी भी तरह की आपदा से होने वाले नुक़सान से बच सकते हैं.
आखिर किसान ऋण के इस कुचक्र में फंस कैसे गए. 1991 के उदारीकरण के बाद कृषि लागत में लगातार वृद्धि होती गई. किसानों को उनकी उपज की सही क़ीमत मिलनी बंद हो गई. उर्वरकों-कीटनाशकों, महाराष्ट्र हाईब्रिड कारॅपोरेशन जैसी कंपनियों के उच्च गुणवत्ता वाले बीजों के साथ-साथ डीजल की क़ीमतों में लगातार वृद्धि, उपज को बीज के रूप में इस्तेमाल न कर सकने की बाध्यता, हर साल बीज खरीदने की मजबूरी के चलते साल दर साल लागत बढ़ती गई और मुना़फा कम होता गया. परिणाम स्वरूप किसान ऋण के जाल में फंसता चला गया. यदि लागत 100 रुपये थी तो वह 80 रुपये ही कमा पाता. साल दर साल उसका घाटा बढ़ता गया और जमापूंजी भी खत्म हो गई. एक तऱफ वह भूख से लड़ने लगा और दूसरे खर्चों के लिए बैंकों, सहकारी संस्थाओं, सेल्फ हेल्प ग्रुप एवं माइक्रो फाइनेंस जैसी संस्थाओं पर निर्भर हो गया. किसी एक से ऋण लेकर दूसरे का ऋण खत्म करने की जद्दोजहद में वह चारों ओर से घिरता चला गया. ऐसे में मौत को गले लगाने के अलावा उसके पास कोई रास्ता नहीं बचा. सरकार द्वारा किसानों के लिए बार-बार ऋण मा़फ करने या ऋण उपलब्ध कराने की योजनाएं बनाना स़िर्फ एक ढकोसला है. सरकार किसानों को उपज की सही क़ीमत न देकर उन्हें ऋण के जाल में फंसा रही है. यदि वह किसानों को लागत के अनुसार उनकी उपज की सही क़ीमत दे तो इस समस्या का समाधान हो सकता है. किसान तभी ऋण लेता है, जब उसे आय का कोई अन्य स्रोत नज़र नहीं आता. भारत में किसानों के ऋण लेने का तरीक़ा अमेरिका और पूरी दुनिया को मंदी के जाल में ले जाने वाले निन्जा (नो इनकम-नो जॉब) ऋण की तरह है. यहां किसान ऋण तो ले लेता है, मगर वह उसे वापस नहीं कर पाता है. अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो हमारी अर्थव्यवस्था मज़बूत नहीं हो पाएगी. इसलिए सरकार को चाहिए कि वह देश के किसानों की हालत सुधारने के लिए जल्द से जल्द ठोस क़दम उठाए.

अब तक इतने किसानों ने जान गंवाई

वर्ष महाराष्ट्र आंध्र प्रदेश कर्नाटक मध्य प्रदेश/ छत्तीसगढ़ कुल
1995 1083 1196 2490 1239 10720
1996 1981 1706 2011 1809 13729
1997 1917 1097 1832 2390 13622
1998 2409 1813 1683 2278 16015
1999 2423 1974 2379 2654 16082
2000 3022 1525 2630 2660 16603
2001 3536 1509 2505 2824 16415
2002 3695 1896 2340 2578 17971
2003 3836 1800 2678 2511 17164
2004 4147 2666 1963 3033 18241
2005 3926 2490 1883 2660 17131
2006 4453 2607 1720 2858 17060
2007 4238 1797 2135 2856 16632
2008 3802 2105 1737 3152 16196
2009 2872 2414 2282 3197 17368
2010 3141 2525 2585 2363 15964
2011 3737 2206 2100 1326 14027



 

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