‘ गॉड पार्टिकल ’ की खोज का सच
Tuesday, July 10, 2012, 20:43
जेनेवा में गॉड पार्टिकल की खोज का महाप्रयोग 4 जुलाई 2012 को अंजाम तक पहुंचा तो दुनिया भर के करोड़ों लोगों के चेहरे विस्मित थे, वैज्ञानिकों को सूझ नहीं रहा था कि उन्होंने क्या पा लिया, जो अब तक नहीं पाया गया। पूरे महाप्रयोग के प्रणेता 80 साल के वैज्ञानिक पीटर हिग्स की आंखें नम थी कि उन्होंने जिसे खोजना चाहा, ब्रह्मांड में जिस शक्तिशाली कण की मौजूदगी की कल्पना की थी, महाप्रयोग ने उसे सच साबित किया। जाहिर तौर पर भारतीय भौतिक विज्ञानी प्रो. सत्येंद्र नाथ बोस का नाम भी सहज तौर पर सबकी जुबां पर था जिन्होंने डॉल्टन के परमाणु मॉडल के बाद ये बताने का साहस किया था कि पदार्थ का अंतिम सत्य सिर्फ न्यूक्लियस में मौजूद प्रोटॉन, न्यूट्रान और उसके चारों ओर चक्कर लगाते इलेक्ट्रान तक ही सीमित नहीं है, इससे भी आगे कणों का अपरंपार समूह है, जिसे उनके नाम पर बोसोन पार्टिकल कहा गया।
पीटर हिग्स ने जो हाईपोथेसिस दी, उसकी बुनियाद सत्येंद्र नाथ बोस ने डाली। हिग्स ने बोसोन की कल्पना को आगे बढ़ाया और दावा किया कि पदार्थ में भार यानी द्रव्यमान देने वाले एक सबपार्टिकिल यानी उपकण है, जो प्रोटॉन के भीतर मौजूद है। अगर इस प्रोटॉन को तोड़ा जाए तो उसके बारे में असल मालूमात हो सकती है, वो कण असीम है, वो सबको चला रहा है, समस्त सृष्टि के कणों का वह संचालनकर्ता है। लेकिन वो क्या है, महाप्रयोग के बाद भी उसकी परिभाषा करने में पीटर हिग्स भी कामयाब नहीं हो पाए। महाप्रयोग के नतीजे के बाद उन्होंने जो अनुभव किया, उसे संसार के सारे वैज्ञानिकों के सामने बताया कि, ‘बहुत थोड़ी देर के लिए वो कण अस्तित्व में आया। ‘ कितने वक्त के लिए वो कण दिखा तो पीटर हिग्स का जवाब था कि ‘सेकेंड के लाखवें के लाखवें के लाखवें हिस्से में वो देखा गया। ‘लेकिन दिखने के बाद वो कहां चला गया। प्रयोगकर्ताओं के मुताबिक, उसने अपना रूप बदल लिया। इतनी जल्दी बदला कि उसे पकड़ पाना नामुमकिन ही था, और सेकेंड के लाखवें के लाखवें हिस्से में झलक दिखाकर वो कहीं अनंत में चला गया। हम अपलक ताकते रह गए। पीटर हिग्स से जब पूछा गया कि इस हिग्स बोसोन कण का हासिल क्या है, फायदा क्या है तो उन्होंने बताया कि मैं अभी कैसे बता सकता हूं, आने वाले वक्त में इस प्रयोग के नतीजों के अध्ययन से शायद कुछ बात बने।
60 के दशक में पीटर हिग्स ने हिग्स बोसोन सबपार्टिकल की अवधारणा पर काम शुरु किया। 90 के दशक में स्विटज़रलैंड में जमीन के करीब 300 फीट नीचे, 27 किलोमीटर के दायरे में लार्ज हैड्रन कोलाइडर मशीन में प्रोटान को तोड़कर उसके भीतर के कणों का पता लगाने के इस महाप्रयोग की शुरुआत हुई। 10 अरब डॉलर खर्च हुए इस पूरे महाप्रयोग में, करीब दुनिया भर के 5000 से ज्यादा वैज्ञानिकों की टोली ने दिन-रात मेहनत कर इस प्रयोग को अंजाम तक पहुंचाया। हालांकि महाप्रयोग के बाद इस सवाल का जवाब वैज्ञानिक नहीं दे सके हैं कि आखिर वो कण था कैसा, उसके व्यवहार, गुण और धर्म पर शायद आगे नतीजों के अध्ययन से ठोस बात निष्कर्ष और सिद्धांत निकाला जा सकेगा। हिग्स-बोसोन कण के बारे में ये ज़रूर बताया गया कि वही संसार में भार पैदा करता है। तारों, गैलेक्सी से लेकर धरती तक पदार्थ में उसी की वजह से ताक़त, शक्ति या भार मिलता है। वो प्रकाश यानी ऊर्जा को भार यानी पदार्थ में बदल देता है। यानी दार्शनिक अंदाज में यही वो कण है जो अमूर्त को मूर्त बनाता है, जिसका कोई रूप नहीं, उसे रूप देता है। जिसे समझा जा सकता है लेकिन जिसके बारे में बताना बेहद मुश्किल है, कुछ वैसे ही जैसे गूंगे का गुड़ जिसकी मिठास का अनुभव तो वैज्ञानिक कर पा रहे हैं लेकिन वो है क्या, वो कैसे ऊर्जा को पदार्थ में बदल देता है, इसके बारे में मालूमात अभी होनी है।
दरअसल सृष्टि के अंतिम नियामक कण की खोज यूरोप और अमेरिका के वैज्ञानिकों के लिए हमेशा चुनौती रही क्योंकि दार्शनिक तौर पर जो बात पूर्व यानी भारत से यूरोप तक गई, यानि कि कण-कण में ईश्वर की सत्ता है, को उसे सही बताने या झुठलाने का कोई प्रमाण पश्चिम के विज्ञान के पास कभी नहीं रहा। इसके उलट वैज्ञानिकों ने हमेशा एक बात सैद्धांतिक तौर पर कही और मानी कि संसार में ईश्वर का कोई अस्तित्व कहीं नहीं है, जो है वो कुदरत यानी प्रकृति के नियमों का व्यवस्थित क्रम है। इसे विज्ञान के द्वारा जाना और समझा जा सकता है। हालांकि हर सदी में विज्ञान के प्रयोग ही नए वैज्ञानिक सत्य को जन्म देते रहे हैं। डॉल्टन ने आधुनिक विज्ञान में परमाणु के अस्तित्व को पहली बार नियमों के तहत परिभाषित किया। उन्होंने कहा कि परमाणु सृष्टि का अंतिम सत्य है और इसके बाद कुछ नहीं है। परमाणु न तो तोड़ा जा सकता है और ना ही इसका भेदन हो सकता है। लेकिन रदरफोर्ड ने जो परमाणु मॉडल पेश किया, उसने डॉल्टन के मॉडल में अमूलचूल बदलाव किए। रदरफोर्ड ने कहा कि परमाणु के भीतर भी एक पूरा संसार है, उसमें भी स्पेस है जिसमें अनगिनत कण चक्कर काटते हैं, उसमें नाभिक है, नाभिक यानी न्यूक्लियस जिसमें न्यूट्रान और प्रोटॉन हैं जिसके चारों ओर इलेक्ट्रान एक व्यवस्थित गति से घूम रहे हैं। कुछ वैसे ही जैसे हमारा सौरमंडल जिसके केंद्र में सूर्य है और उसके चारों ओर गृह अपनी अपनी परिधि में घूम रहे हैं। रदरफोर्ड मॉडल के बाद भौतिक विज्ञान में क्वांटम फिजिक्स और स्टैटिस्टिकल फिजिक्स ने संसार के पूरे रहस्य को समझने की दिशा में बेहद अहम योगदान दिया। लेकिन बावजूद इसके, ये सवाल हमेशा उलझा रहा कि आखिर वो कौन सा तत्व है, कण है जिसके जानने के बाद दुनिया में कोई भी बात रहस्य नहीं रहेगी, जो संसार के निर्माण का अंतिम सत्य है और जिसे जानने के बाद भौतिक विज्ञान की दुनिया में कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा।
जाहिर तौर पर हिग्स-बोसोन पार्टिकल की खोज कुदरत के अनंत रहस्यों को समझने और जानने की दिशा में बेहद अहम है। भारतीय दर्शन और भारतीय वैज्ञानिकों के लिए ये इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यूरोपीय विज्ञान की हर उलझी पहेली को सुलझाने में वो सदियों से आगे रहे हैं। हिग्स-बोसोन कण की खोज में भी भारत के 150 से ज्यादा वैज्ञानिक प्रतिभाओं ने अनथक योगदान दिया। भारत सरकार ने इस प्रयोग में आर्थिक सहायता भी दी। जिस महामशीन में प्रोटॉन तोड़े गए, उसे हैड्रन कोलाइडर के कई हिस्से भारत में बनाए गए। लेकिन इन सबमें सबसे अहम मुद्दा ये है कि महाप्रयोग ने भारत के उस परंपरागत ज्ञान पर मुहर लगाई जो देश के गांव-गांव में सदियों से लोग बोलते चले आ रहे थे कि सृष्टि के हर कण में सृष्टि की नियामक अनंत सत्ता का अस्तित्व है। मुद्दा ये भी है कि आखिर इस महाप्रयोग के नतीजे विज्ञान में किस नए सिद्धांत की बुनियाद डालेंगे ?
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