9.2.13

महिलाएं – दोगला समाज और मानसिकता

पोस्टेड ओन: 15 Jan, 2013 सोशल इश्यू में

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यह चित्र यहाँ लगाकर समस्या पर अधिक लोगों का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास मात्र किया गया है क्योंकि केवल हेडिंग से बहुत सारे लोग इस बात से समर्थन करने के बाद भी समस्या की गंभीरता पर ध्यान नहीं देते हैं ? नारी शक्ति से क्षमा सहित ……….
प्रयाग में शुरू हुए महा कुम्भ मेले के पहले स्नान के बाद जिस तरह से देश विदेश के विभिन्न समाचार पत्रों और उनके ऑनलाइन संस्करणों में जिस तरह से स्नान करते हुए साधु संतों और खासकर महिलाओं के चित्रों को प्रमुखता से स्थान दिया गया है क्या उसकी कोई आवश्यकता है ? यह एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा है जिस पर मेला प्रशासन और सरकार को तुरंत ही कड़े कदम उठाते हुए पूरे मेला क्षेत्र में घाटों पर किसी भी तरह से फोटो खींचने पर पूरी तरह से रोक लगा देनी चाहिए साथ ही वहां पर तैनात पुलिस कर्मियों को इस बात के स्पष्ट निर्देश होने चाहिए कि इस आदेश का उल्लंघन करने वालों पर भारी ज़ुर्माना लगा कर वसूला जाये और उनके कैमरे को भी ज़ब्त कर लिया जाये. किसी भी आस्था से भरे इस माहौल में इस तरह की फोटो खींचे वालों के साथ सख्ती से पेश आने के अलावा कोई अन्य उपाय दिखाई नहीं देता है क्योंकि महिला अधिकारों की लम्बी चौड़ी बातें और महिला अधिकारों का समर्थन करते समय जिस तरह से मीडिया मोमबत्ती लेकर दिल्ली में अपने को पाक साफ़ साबित करना चाहता है वही मीडिया कुम्भ में स्नान करती हुई महिलाओं और लड़कियों के चित्र खींचकर उन्हें प्रदर्शित करने से नहीं चूकता है ?
क्या कुम्भ मेले में केवल स्नान ही हो रहा है जिसका कवरेज़ किये बिना कोई खबर नहीं बन सकती है आखिर क्यों इस तरह से धार्मिक आस्था के साथ संगम पर आये हुए लोगों को अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है वह भी उस शहर में जहाँ प्रदेश का उच्च न्यायलय भी स्थित है ? क्यों किसी न्यायमूर्ति द्वारा इस बात को स्वतः संज्ञान में लेकर कोई आदेश जारी नहीं किया जाता है क्योंकि जब मेला प्रशासन के लिए ज़िम्मेदार प्रदेश सरकार कुछ भी नहीं करना चाह रही है तो अब यह किसकी ज़िम्मेदारी बनती है कि स्नान के लिए बने हुए घाटों पर फोटो खींचना पूरी तरह से प्रतिबंधित किया जाए ? महिला अधिकारों और उन पर निरंतर होने वाले हमलों के बाद भी जिस तरह से पुरुष प्रधान समाज अपनी मानसिकता से नहीं उबर पाता है और वह किसी भी ऐसे स्थल पर भी वह सब देखना चाहता है जिसके लिए वह बड़े बड़े मंचों पर होने वाली बहसों में अपने को महिला अधिकारों का पैरोकार साबित करने से नहीं चूकता है ? आख़िर क्यों इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता है कि देश के किसी भी स्थान पर होने वाले इस तरह के आयोजनों में महिलाओं के अधिकारों की बातें केवल स्क्रीन के सामने ही क्यों की जाती है और उनके प्रति जब स्वतः सम्मान दिखाने की बात आती है तो पुरुष अपनी हरक़त से बाज़ नहीं आता है ?
देश के नेताओं को बिना हो हल्ला हुए कुछ भी न करने की आदत बन चुकी है यहाँ पर केवल एक ही सवाल महत्वपूर्ण है कि पढ़ा लिखा समाज भी आख़िर इस तरह की हरकतें करने से बाज़ क्यों नहीं आता है ? देश के हर संस्थान में सभी इस बात से पूरी तरह से सहमत दिखाई देते हैं कि महिलाओं की निजता का सम्मान होना ही चहिये पर जब सम्मान देने की बात आती है तो सभी अपने उन संस्कारों और मर्यादाओं को भूल जाते हैं जिनके बारे में वे मंचों पर खुद को उनका समर्थक बताया करते हैं ? अब इस मसले पर कुछ ठोस करने की आवश्यकता है क्योंकि कुम्भ में केवल महिलाएं स्नान के लिए ही नहीं जाती है या वहां पर देश भर के धार्मिक गुरु भी आते हैं उनके पंडालों में क्या और किस तरह से चल रहा है यह भी एक अच्छा समाचार हो सकता है पर जब तक समाचारों के लिए इस तरह का कुछ नहीं हो तब तक उन्हें भी आख़िर आज की भाषा में मसालेदार मसाला कैसे बनाया जाये यह भी चिंता का विषय होता है ? जो समाज स्वेच्छा से महिलाओं की इतनी ही इज्ज़त करता है अगर उसमें पूरे वर्ष भर महिलाओं के प्रति दरिंदगी के होती रहती है तो उस पर चिंता करने की क्या बात है ?

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