11.2.13

क़ैद में बलात्कार और यातना सहती रही वो..

 सोमवार, 11 फ़रवरी, 2013 को 05:31 IST तक के समाचार

वो 25 मई 2000 का दिन था, जब कोलंबियाई पत्रकार जेनेथ बेदोया को बोगोटा ला मोडेलो जेल के दरवाज़े से अग़वा कर लिया गया. यहां किसी संभावित सूत्र से उनकी मुलाक़ात तय थी.
तीन लोगों ने उन्‍हें 16 घंटे से अधिक समय तक क़ैद में रखा. उन लोगों ने जेनेथ के साथ बलात्‍कार किया और उन्‍हें यातना दी.
बाद में इन तीन लोगों की पहचान कोलंबिया के प्रमुख अर्द्धसैनिक संगठन - कोलंबिया संयुक्‍त स्‍व-रक्षा बल (एयूसी) के सदस्‍य के रूप में की गई. ये वही लोग थे, जिनके बारे में जेनेथ पड़ताल कर रही थीं. बीबीसी को उन्होंने अपनी आपबीती सुनाई.
''बलात्‍कार के बाद सबसे कठिन था ख़ुद को अकेला पाना. चोटों से भरे शरीर के साथ मैं ख़ुद को बिल्कुल अनाथ महसूस कर रही थी. मुझे एहसास हुआ कि जीवन में कामयाबी हासिल करने के लिए चलते रहना है. मैं आगे बढ़ना नहीं चाहती थी. इसलिए मुझे सबसे पहले आत्‍महत्‍या करने का विचार आया. मगर जैसे ही मैंने उस पर अमल करना चाहा, पाया कि मुझमें ऐसा करने का साहस नहीं था.''

आत्महत्या का विचार

मैं डरती थी कि चाहे आत्‍महत्‍या की जितनी भी कोशिशें कर लूं, मरूंगी नहीं. मगर मुझे ज़िंदा रहने का कोई कारण अभी भी दिखाई नहीं दे रहा था.
अंतरात्‍मा से बस एक ही आवाज़ आ रही थी कि अगर मैं ज़िंदा रहती हूं, तो मैं उस काम को आगे बढ़ाऊं, जिसे मैं सबसे ज्‍यादा पसंद करती हूं, और वह काम पत्रकारिता थी.
"मैं डरती थी कि चाहे आत्‍महत्‍या की जितनी भी कोशिशें कर लूं, मरूंगी नहीं. मगर मुझे जिंदा रहने का कोई कारण अभी भी दिखाई नहीं दे रहा था. बाहर निकलना बहुत मुश्किल था, क्‍योंकि मेरे समूचे शरीर पर चोटें थीं. पिटाई के कारण मेरी बाहें नीली पड़ गयी थीं. मेरे हाथ, बदन, चेहरा सब चोटों से भरा पड़ा था और मैं नहीं चाहती थी कि कोई मुझे इस तरह देखे. "
हालांकि बाहर निकलना बहुत मुश्किल था, क्‍योंकि मेरे समूचे शरीर पर चोटें थीं. पिटाई के कारण मेरी बाहें नीली पड़ गयी थीं. मेरे हाथ, बदन, चेहरा सब चोटों से भरा पड़ा था और मैं नहीं चाहती थी कि कोई मुझे इस तरह देखे.
अग़वा किए जाने की घटना के दो सप्‍ताह बाद जैसे ही मुझे महसूस हुआ कि मेरा चेहरा ठीक हो गया है, मैंने अपने अख़बार (एल एसपेक्‍टडर) में वापस जाने का फ़ैसला कर लिया.
ये मेरे लिए बेहद भावुक पल थे, क्‍योंकि अपने डायरेक्‍टर के साथ बेहद मुश्किल से चलते हुए जैसे ही मैं वहां पहुंची, सभी खड़े हो गए. क़रीब 200 जर्नलिस्‍ट और फिर सबने मेरे लिए तालियां बजाईं. उन लोगों ने ख़ूब लंबी क़तार बना रखी थी. सबने एक-एक कर मुझे उस दिन गले लगाया.

बलात्‍कार की चर्चा नहीं

उस दिन के बाद, हमने केवल अपहरण के बारे में बात की. मेरे साथ हुई बलात्‍कार की घटना पर फिर कभी चर्चा नहीं हुई. मेरे कई सहयोगी जानते तक नहीं कि मेरे साथ बलात्‍कार हो चुका था. वो बस इतना जानते थे कि मेरा अपहरण हुआ था और मुझे पीटा गया था.
यह बात तब तक छुपी रही जब तक एक दिन, कार्लोस केसटानो (एयूसी का मुख्‍य कमांडर) ने टीवी इंटरव्यू में इस बात का ज़िक्र न कर दिया. यह बात मेरे अग़वा हो जाने की घटना के कई महीनों बाद की है. उस दिन मेरे अधिकतर सहयोगियों को इस बात का पता चला. बहुत बुरा महसूस हो रहा था.
मैं दो दिन तक काम पर नहीं जा सकी. फिर मैंने सबसे इस बारे में आगे कोई ज़िक्र नहीं करने का निवोदन किया, और सबने मेरी बात का मान रखा.
उस समय कोलंबिया में अपहरण आम बात थी, और ऐसे 90 फीसदी मामलों में यही सब होता था. इसलिए मैंने इस बारे में लिखना शुरू किया. शुरुआत के पहले महीने, हर कहानी मेरे आंसुओं पर जाकर ख़त्‍म होती. मैंने ख़ुद को भरोसा दिया कि मैं हार नहीं मानूंगीं क्योंकि मैने कुछ भी ग़लत नहीं किया था.

अपहरण आम बात

हाल ही में दिल्ली में गैंग रेप की घटना पर व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए.
देश के उत्तरी भाग में अर्द्धसैनिक बलों और गुरिल्‍लाओं के बीच टकराव चल रहा था. मैंने वहां जाने की इच्‍छा ज़ाहिर की.
तब मेरे अपहरण की घटना को छह महीने हो गए थे. अख़बार में सुरक्षा कारणों से कोई इस विचार को लेकर बहुत उत्‍सुक नहीं था. फिर मैंने कार्लोस कास्‍टेनो को एक ई-मेल किया. बताया कि मैं वहां जाकर काम करना चाहती हूं. बस मुझे अर्द्धसैनिक बलों की ओर से गारंटी मिल जाए. उसने जवाब भेजा 'नो प्रॉब्लम' और मैं निकल पड़ी. यह अग्नि परीक्षा साबित होने वाली थी क्‍योंकि वहां उन गुनाहगारों, अर्द्धसैनिक बलों से मुठभेड़ होनी थी.
मैंने जल्‍दी ही कुछ बेहद शुरुआती फ़ैसले लिए. मैंने फ़ैसला किया कि मैं अपने परिवार से ख़ुद को पूरी तरह दूर रखूंगी.
मैं अपनी मां के साथ रहने लगी. वह मेरे जीवन की सबसे महत्‍वपूर्ण व्‍यक्ति थी. मगर मैंने अपने दूसरे रिश्‍तेदारों से दूरी बनाये रखी. अपने पिता से फिर कभी बात नहीं की. मैं अकेली ही अपने दर्द को संभालना और आगे बढ़ना चाहती थी. मैं किसी के लिए भी बोझ नहीं बनना चाहती थी.

मनोवैज्ञानिक मदद

पहले साल के दौरान मैंने मनोवैज्ञानिक की सहायता भी ली थी, मगर अंत में मैं इस नतीजे पर पहुंची कि इससे मुझे कोई मदद नहीं मिल रही है, और मैंने इसे छोड़ दिया.
2011 में जाकर कहीं न्‍यायिक प्रक्रिया फिर से शुरू हुई और यह केवल इसलिए संभव हो सका कि मैंने अपने साथ हुए अपराध के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना तय कर लिया था.
अभी तो शुरूआत ही हुई थी और यह बेहद असहनीय साबित हो रहा था. क्‍योंकि मेरे अपहरण में वो लोग शामिल थे, जिनके बारे में मैं कभी कल्‍पना भी नहीं कर सकती थी. मैंने अपने संपर्कों का इस्‍तेमाल करते हुए पूरी कोशिश की.
"मैं अपनी मां के साथ रहने लगी. वह मेरे जीवन की सबसे महत्‍वपूर्ण व्‍यक्ति थी. मगर मैंने अपने दूसरे रिश्‍तेदारों से दूरी बनाये रखी. अपने पिता से फिर कभी बात नहीं की. मैं अकेली ही अपने दर्द को संभालना और आगे बढ़ना चाहती थी. मैं किसी के लिए भी बोझ नहीं बनना चाहती थी."
अटॉर्नी जनरल तक से सीधी बात की. ये सब कुछ करने के बाद भी अगर कुछ हल नहीं निकले तो यह कल्‍पना की जा सकती है कि दूसरे केसों का क्‍या होता होगा? कोलंबिया की यही समस्‍या है. अगर मेरे मामले में अपराधी को कोई सजा नहीं हुई, तो दूसरी औरतें क्‍या उम्‍मीद कर सकती हैं?''

कोई फ़ायदा नहीं

मिस बेदोया ने बलात्‍कार के तुरंत बाद पुलिस में शिकायत दर्ज की, मगर 11 साल गुज़र जाने के बाद भी यह मामला ज़रा सा भी आगे नहीं बढ़ पाया. लिहाजा मई 2011 में, बेदोया ने मानवाधिकारों के अंतर-अमरीकी आयोग के सामने इस मामले को उठाया.
कोलंबिया अभियोजक कार्यालय तुरंत हरकत में आया. इसके फौरन बाद, एक भूतपूर्व अर्द्धसैनिक को गिरफ्तार कर लिया गया.
सने अपहरण में अपनी भागीदारी कबूल कर ली. तब से, दो और संदिग्‍धों पर भी औपचारिक रूप से अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाए हैं.
सितंबर 2012 में, अभियोजन पक्ष ने कहा कि मिस बेदोया के अगवा कर लिये जाने और बाद में उन पर किये जाने वाले अत्‍याचार और यौन उत्‍पीड़न को "मानवता के ख़िलाफ़ अपराध" की श्रेणी में रखा जाए और इसीलिए इस मामले में किसी भी सीमा में बंधने की ज़रूरत नहीं है, क्‍योंकि इसका इस्‍तेमाल अर्द्धसैनिक बलों ने "युद्ध के उस हथियार के रूप में किया जिसकी मदद से वो उन उठती हुई आवाज़ों को मौन कर देते हैं, जो उनकी ज्‍यादतियों और अतिक्रमण को बेनक़ाब करने का दुस्‍साहस करती हैं."
(कोलंबियाई पत्रकार जेनेथ बेदोया की बीबीसी से बातचीत पर आधारित)

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