विश्व युद्ध में गैस चैंबर से बच निकली बच्ची की दास्तान
पोलैंड जब दूसरे विश्व युद्ध की
चपेट में आया तब जनीना डाविडोविक्ज़ सिर्फ़ नौ साल की थीं. यहूदी होने के
कारण उन्हें उनके परिवार समेत वारसा की एक यहूदी बस्ती में भेज दिया गया.
लेकिन वो वहाँ से किसी तरह जान बचाकर भागने में सफल रहीं और आज भी जीवित
हैं.
उन दिनों को याद करते हुए जनीना कहती हैं कि आज से 70 साल पहले पोलैंड में यहूदियों को मौत के घाट उतारने की प्रक्रिया शुरू हई थी.जनीना के अनुसार अगर कोई नाज़ी सिपाहियों के आदेश का उल्लंघन करता तो उसे गोली मार दी जाती थी.
नाजी सिपाही यहूदियों से कहते थे कि उन्हें पूर्वी पोलैंड के मज़दूर शिविरों में भेजा जा रहा है जहां उनकी स्थिति बेहतर होगी और उन्हें मुफ़्त खाना दिया जाएगा.
लेकिन वहां मौजूद किसी यहूदी को शायद ये नहीं पता था कि उन्हें सीधे गैस चैंबर में भेजा जा रहा था.
वारसा बस्ती
सबसे पहले जाने वालों में बूढ़े, बीमार और बारह साल से कम उम्र के बच्चे थे.वारसा की यहूदी बस्ती नवंबर 1940 में बसाई गई थी. वारसा की कुल जनसंख्या का लगभग एक तिहाई यहूदी थे लेकिन वे सभी उस छोटी सी जगह में रहने के लिए मजबूर थे.
जनीना और उनका परिवार कैलिक्ज़ शहर से उस बस्ती में रहने के लिए आया था.
जनीना और उनके माता-पिता एक बहुत ही छोटे और तंग से कमरे में रहने लगे.
जनीना कहती हैं, ''कमरे में इतनी सीलन थी कि मैं दीवार पर हिसाब-किताब कर सकती थी, सोने से पहले चादर को सुखाना पड़ता था और एक सामुदायिक नल से पानी लाना पड़ता था. खाने के लिए हमें ब्रेड और आलू दिए जाते थे.''
काम की तलाश में दर-दर की ठोकर खा रहे जनीना के पिता मारेक को यहूदी पुलिस में नौकरी मिल गई.
उस नौकरी को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता था लेकिन उस समय जनीना के परिवार को जीवित रखने के लिए यही ज़रूरी था.
"कमरे में इतनी सीलन थी कि मैं दीवार पर हिसाब-किताब कर सकती थी, सोने से पहले चादर को सुखाना पड़ता था और एक सामूदायिक नल से पानी लाना पड़ता था. खाने के लिए हमें ब्रेड और आलू दिए जाते थे."
जनीना डाविडोविक्ज़
लेकिन युद्ध शुरू होने के बाद ढेर सारे यहूदी संगीतकार और तकनीशियन उसी बस्ती में रहने के लिए मजबूर थे.
'जनसंहार'
बस्तियों में रहने वाले लोगों को इस बात का विश्वास था कि युद्ध ख़त्म हो जाने के बाद उनकी हालत सुधर जाएगी, ज़िंदगी पहले जैसे ना सही लेकिन फिर भी हालात बेहतर हो जाएंगे.लेकिन तत्कालीन सोवियत संघ को हराने में असफल रहने के कारण यहूदियों के प्रति नाज़ी नीतियों में काफ़ी बदलाव हो गया.
पहले नाज़ी सेना यहूदियों की गोली मार कर हत्या करती थी लेकिन बाद में यहूदियों का जनसंहार शुरू हो गया.
जुलाई और अगस्त 1942 में हर दिन लगभग छह हज़ार यहूदियों को वारसा की बस्ती से ट्रेबलिंका ले जाया जाता था और गैस चैंबर में रख कर मार दिया जाता था.
1942 में गर्मियों के अंत कर लगभग ढाई लाख यहूदियों को ट्रेबलिंका के गैस चैंबर में मार डाला गया था.
एक पुलिसकर्मी की बेटी होने के कारण शायद जनीना उन कुछ बच्चों में थी जिनकी जान बची हुई थी.
ईसाई ननों ने जनीना को अपने पास रखा और उसकी पहचान छुपाने के लिए उसका नाम बदल दिया.
जनीना के माता-पिता उसी यहूदी बस्ती में रह गए और जनीना उन्हें दोबारा कभी नहीं मिल सकी. जनीना को ये भी पता नहीं कि उसके माता-पिता कब और कैसे मारे गए.
युद्ध ख़त्म होने के बाद जनीना की अपने एक चाचा से मुलाक़ात हुई. इस उम्मीद पर के शायद उसके परिवार का कोई और उसे मिल जाए जनीना अपने शहर कैलिक्ज़ आई और वहां एक साल तक रही लेकिन जब सारी उम्मीदें ख़त्म हो गईं तो वो वहां से चली गई.
लगभग दो साल तक एक बाल-शिविर में रहने के बाद जनीना अपनी जिंदगी की नई शुरूआत करने के लिए मेलबर्न चली गई.
वहां उसने एक फ़ैक्ट्री में नौकरी कर ली और साथ-साथ अपनी पढ़ाई दोबारा शुरू की और एक समाजसेवी बन गई.
लेकिन यूरोप की याद उन्हें सताने लगी और इसी कारण 1958 में जनीना लंदन चली गई और वहीं बस गई.
लंदन में ही जनीना ने अपनी ज़िंदगी के अनुभवों को लिखना शुरू किया. आख़िर में जनीना ने अपनी आत्मकथा 'ए स्कॉयर ऑफ़ स्काई' पूरी की जिसे उन्होंने अपने पेन नेम या उपनाम जनीना डेविड के नाम से लिखी.
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