अदालत और सरकार
Updated on: Sat, 21 Jul 2012 03:01 PM (IST)
लंबित मामलों में राज्य सरकार द्वारा समय पर हलफनामा नहीं दायर
करने पर हाईकोर्ट ने जब संज्ञान लिया तो शीर्ष प्रशासनिक अधिकारियों के
तुरंत सक्रिय हो जाने का सीधा मतलब है कि वे भय से ही काम करते हैं। यह तो
हाल की घटना है। इसके पहले भी कई मर्तबा हाईकोर्ट द्वारा ध्यान दिलाए जाने
पर या घुड़की लगाई जाने पर ही सरकार सक्रिय हो सकी। अदालत कभी स्वत: संज्ञान
लेकर आदेश करती है तो कभी किसी जागरूक नागरिक द्वारा जनहित याचिका दाखिल
किए जाने पर। न्यायिक हस्तक्षेप के बाद ही सक्रिय होने का सरकार का रवैया
सर्वथा चिंताजनक है। राज्य में कल्याणकारी सरकार के काम करने का ही मतलब
होता है कि वह जन समस्याओं के प्रति सचेत रहे, जागरूक रहे और किसी कोने में
असंतोष उपजने के पहले ही कारगर कदम उठा ले। झारखंड में ऐसा अब तक कभी
देखने में नहीं आया। इसके पीछे बहुत संभव है कि राजनीतिक अस्थिरता भी कारण
हो, क्योंकि अब तक की सभी सरकारें ऐसे-ऐसे गठबंधनों की बनीं, जिनके बिखरने
में ज्यादा वक्त नहीं लगा। इसके बावजूद जब जनता के नाम सरकार बनती है तो
उससे इतनी अपेक्षा तो रहती ही है कि वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती
चले।
जहां तक नौकरशाही की बात है, सारा दारोमदार उसी पर रहता है। सरकार के
मंत्रियों को सलाह देने से लेकर नीतियों के कार्यान्वयन तक की जवाबदेही उन
पर ही रहती है। यहां देखने में यही आ रहा है कि नौकरशाही की अपेक्षा अदालत
जन समस्याओं को लेकर अधिक सचेत है। हाईकोर्ट के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश
को नागरिक सुविधाओं का भौतिक निरीक्षण तक करना पड़ा। यह ठीक है कि अपनी
लोकशाही के चार स्तंभों में से एक न्यायपालिका का काफी महत्व है, किंतु
शासन-प्रशासन की ओर से ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाना चाहिए, जिस पर
न्यायपालिका को अतिरिक्त समय देना पड़े। उसके पास खुद ही काम की कमी नहीं
होती। अदालत जब जन समस्याओं को लेकर सरकार को आगाह करती है तो कई बार
न्यायिक सक्रियता का सवाल उठा दिया जाता है, लेकिन प्रश्न यह भी है कि
शासन-प्रशासन सही तरीके से काम न कर रहा हो तो क्या अदालत भी चुप रहे? कम
से कम नौकरशाही से इतनी अपेक्षा तो की जाती है कि वह अपने हिस्से का काम
तत्परता से करती रहे, क्योंकि वह इसी बात की रोटी खाती है।
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