दयनीय दशा का प्रमाण
Updated on: Wed, 13 Jun 2012 11:16 AM (IST)
देश-दुनिया की अर्थव्यवस्था की नब्ज टटोलती रहने वाली प्रतिष्ठित
रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पूअर्स ने निवेश के लिहाज से भारत का दर्जा
गिराने की जो चेतावनी जारी की उससे केंद्रीय सत्ता के नीति-नियंताओं की
आखें खुल जाएं तो बेहतर हैं। वैसे ही बहुत देर हो चुकी है और शायद इसी कारण
स्टैंडर्ड एंड पूअर्स ने यह टिप्पणी करने में भी संकोच नहीं किया कि
मौजूदा नकारात्मक माहौल के लिए काग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाधी और
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की राजनीतिक स्थिति जिम्मेदार है। यह कोई नई बात
नहीं है। सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को प्रत्येक छोटे-बड़े
फैसले के लिए सर्वोच्च अधिकार प्राप्त सोनिया गाधी की स्वीकृति और समर्थन
चाहिए होता है। एक समय सोनिया गाधी-मनमोहन सिंह की ऐसी स्थिति आदर्श थी और
संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में इसके सकारात्मक नतीजे भी देखने को मिले।
कोई नहीं जानता कि इस आदर्श स्थिति ने संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में
सुस्ती-जड़ता और निर्णयहीनता का माहौल कैसे रच दिया? इस सवाल का चाहे जो
जवाब दिया जाए, इससे सारी दुनिया भली तरह परिचित हो चुकी है कि मनमोहन
सरकार आर्थिक मोर्चे पर बुरी तरह नाकाम है और वह छोटे-छोटे मामलों में भी
आगे बढ़ने के बजाय किस्म-किस्म के बहाने बनाती है। कभी अंतरराष्ट्रीय
आर्थिक माहौल का रोना रोया जाता है, कभी घटक दलों को दोष दिया जाता है और
कभी मौसम-मानसून अथवा विपक्षी दलों को। यह घोर निराशाजनक है कि केंद्रीय
सत्ता के रणनीतिकार अभी भी सच्चाई से मुंह मोड़ने की हर संभव कोशिश कर रहे
हैं। यह हास्यास्पद और दयनीय है, क्योंकि अब कोई भी बहाना काम आने वाला
नहीं है। अब तो पोल खुल चुकी है। रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पूअर्स के
आकलन को खारिज करना खुद को धोखा देना और अपनी खामी के लिए दूसरों को दोष
देने की आत्मघाती प्रवृत्ति को अपनाने जैसा है। यदि सब कुछ सही है, जैसा कि
दावा किया जा रहा है तो फिर औद्योगिक उत्पादन ठहर जाने के नतीजे कहा से आ
गए? क्या कारण है कि हर मोर्चे पर नाकामी और निराशा का माहौल है? जब हर आम
और खास को सरकार से यह अपील-अनुरोध करना पड़े कि उसे देश के भले के लिए
ऐसा-ऐसा करना चाहिए तो इसका सीधा मतलब है कि उसने शासन करने की क्षमता खो
दी है। अब कोरे आश्वासनों, थोथी घोषणाओं अथवा सक्रिय दिखने का उपक्रम करते
रहने से बात बनने वाली नहीं है। अर्थव्यवस्था रूपी जहाज अब हिचकोले खाने
लगा है। अब भी न चेतने का अर्थ है संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थो के लिए देश का
बेड़ा गर्क करना। राजनीतिक रूप से सबसे ताकतवर सोनिया गाधी को पार्टी,
सरकार और साथ ही देशहित में कड़े फैसले लेने ही होंगे। उन्हें यह आभास हो
जाना चाहिए कि एक समय की आदर्श स्थिति अब एक दु:स्वप्न में बदल गई है। इस
स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन करना ही होगा। देश को काम करने वाली सरकार
चाहिए-न कि ऐसी सत्ता जो अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़े। कठोर फैसले लेने
में और अधिक देरी का इसलिए कोई औचित्य नहीं, क्योंकि अब देश की साख के
साथ-साथ काग्रेस की प्रतिष्ठा भी दाव पर लग चुकी है।
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