21.7.12

कोयले का संकट

Updated on: Tue, 10 Jul 2012 12:33 PM (IST)
नाकामी और नीतिगत पंगुता के आरोपों से घिरी केंद्रीय सत्ता जिस तरह बिजली संयंत्रों को कोयले की आपूर्ति का मसला सुलझाने में असफल हो रही है उससे देश को यही संदेश जा रहा है कि वह प्राथमिकता सूची वाले मामलों में भी निर्णय नहीं कर पा रही है। क्या इससे आवश्यक और कुछ हो सकता है कि बिजली संकट का एक प्रमुख कारण बन रहे तापीय विद्युत संयंत्रों को समुचित कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित हो? यह गहन निराशा का कारण है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने पिछले महीने कोल इंडिया लिमिटेड और बिजली कंपनियों के बीच जारी गतिरोध को तोड़ने के लिए हस्तक्षेप किया था, लेकिन तमाम बैठकों के बावजूद नतीजा सिफर है। ताजा सूचना यह है कि विवाद सुलझाने के लिए मंगलवार को बुलाई गई कोल इंडिया बोर्ड की बैठक टालने का निर्णय किया गया है और वह भी यह बताए बगैर कि ऐसा क्यों करना पड़ रहा है? आखिर यह क्या हो रहा है? यदि कोल इंडिया लिमिटेड और बिजली कंपनियों के बीच कोयले की सप्लाई को लेकर कोई समझौता नहीं हो पाता तो यह लगभग तय है कि देश में बिजली का संकट और अधिक गहराएगा। इस संदर्भ में इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि ऐसे किसी समझौते के अभाव में एक दर्जन से अधिक संयंत्र पूरी क्षमता से बिजली नहीं पैदा कर पा रहे हैं। इसके दुष्परिणाम करीब-करीब पूरे देश को भोगने पड़ रहे हैं। देश का शायद ही कोई हिस्सा हो जो बिजली संकट से त्रस्त न हो। नि:संदेह इस संकट के लिए केवल कोयला आधारित बिजली संयंत्र ही जिम्मेदार नहीं, लेकिन इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनका क्षमता से कम उत्पादन कर पाना इस संकट की एक बड़ी वजह बना हुआ है। यह सही है कि देश के शेष हिस्सों और विशेष रूप से उत्तर भारत में मानसून के आगमन के चलते बिजली की पहले जैसी माग नहीं रह गई है, लेकिन कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि आम लोगों और उद्योगों को पर्याप्त बिजली मिल रही है। कोयला आपूर्ति को लेकर उपजा संकट मुख्यत: दो मंत्रालयों के बीच की तनातनी का नतीजा है। आम जनता के लिए यह समझना कठिन है कि केंद्रीय सत्ता अपने ही दो मंत्रालयों-कोयला मंत्रालय और बिजली मंत्रालय के बीच कोई सुलह करा पाने में नाकाम क्यों है? विडंबना यह है कि यह पहला ऐसा मामला नहीं जिसमें दो मंत्रालयों के झगड़े में राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ रही हो। इसके पहले कोयला तथा वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में तकरार छिड़ गई थी और इसके चलते कोयले का उत्पादन प्रभावित हुआ था। फिलहाल यह तय नहीं है कि कोयला मंत्रालय और बिजली मंत्रालय के बीच का विवाद कब और कैसे सुलझेगा, लेकिन यदि अगले कुछ दिनों में कोल इंडिया लिमिटेड और सार्वजनिक व निजी बिजली कंपनियों के बीच कोयले की आपूर्ति को लेकर कोई समझौता हो भी जाता है तो उस पर अमल के बारे में सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता। बारिश के चलते कोयला उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है और उसकी ढुलाई भी। केंद्रीय सत्ता इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकती पिछले वर्ष बारिश में कोयले की ढुलाई प्रभावित हुई थी और इसके चलते अनेक समस्याएं खड़ी हुई थीं। ऐसा लगता है कि केंद्रीय सत्ता ने पिछले साल के अनुभव से कोई सबक नहीं सीखा। यदि ऐसा कुछ नहीं तो क्या कारण है कि जो मामला तत्काल प्रभाव से हल होना चाहिए वह उलझता चला जा रहा है?

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